तीन चावल : लोक कथा

राजा गोपीचंद का मन गुरु गोरखनाथ के उपदेश सुनकर सांसारिकता से उदासीन हो गया। मां से अनुमति लेकर गोपीचंद साधु बन गए। साधु बनने के बहुत दिन बाद एक बार वह अपने राज्य लौटे और भिक्षापात्र लेकर अपने महल में भिक्षा के लिए आवाज लगाई। आवाज सुन उनकी मां भिक्षा देने के लिए महल से बाहर आई। गोपीचंद ने अपना भिक्षापात्र मां के आगे कर दिया और कहा,-‘मां मुझे भिक्षा दो।’ मां ने भिक्षा पात्र में चावल के तीन दाने डाल दिए। गोपीचंद ने जब इसका कारण पूछा तो मां बोली- ‘तुम्हारी मां हूं। चावल के यह तीन दाने मेरे तीन वचन है। तुम्हें इसका पालन करना है। पहला वचन, तुम जहां भी रहो वैसे ही सुरक्षित रहो जैसे पहले मेरे घर पर रहते थे।

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दूसरा वचन, जब खाओ तो वैसा ही स्वादिष्ट भोजन खाओ जैसा राजमहल में खाते थे। तीसरा वचन, उसी प्रकार की निद्रा लो जैसी राजमहल में अपने आरामदेह पलंग पर लेते थे।’ गोपीचंद इन तीन वचनों के रहस्य को नहीं समझ सके और कहने लगे- ‘मां मैं अब राजा नहीं रहा तो सुरक्षित कैसे रह सकता हूं?’ मां ने कहा- ‘तुम्हें इसके लिए सैनिकों की आवश्यकता नहीं है। तुम्हें क्रोध, लोभ, माया, घमंड, कपट जैसे शत्रु घेरेंगे। इन्हें पराजित करने के लिए सत्संगति, अच्छे विचार, अच्छा आचरण रखना होगा।’ गोपीचंद ने फिर पूछा- ‘वन में मेरे लिए कौन अच्छा भोजन पकाएगा?’ मा ने कहा- ‘जब ध्यान और योग में तुम्हारा पूरा दिन व्यतीत होगा, तुम्हें तेज भूख लगेगी। तब उस स्थिति में जो भी भोजन उपलब्ध होगा, वह स्वाद वाला होगा। और रही सोने की बात तो कड़ी मेहनत से थक कर चूर होने के बाद जहां भी तुम लेटोगे, गहरी नींद तुम्हें घेर ही लेगी।’ मां के इन तीन वचनों ने गोपीचंद की आंखें खोल दी। वे फिर से ज्ञान की तलाश में निकल गए।।

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नरसी मेहता जी के जीवन की एक घटना

एक बार नरसी जी का बड़ा भाई वंशीधर नरसी जी के घर आया।
पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना था।

वंशीधर ने नरसी जी से कहा :–
” कल पिताजी का वार्षिक श्राद्ध करना है।
कहीं अड्डेबाजी मत करना बहु को लेकर मेरे यहाँ आ जाना।
काम-काज में हाथ बटाओगे तो तुम्हारी भाभी को आराम मिलेगा।”

नरसी जी ने कहा :- ‘पूजा पाठ करके ही आ सकूँगा।’

इतना सुनना था कि वंशीधर उखड गए और बोले :- ‘जिन्दगी भर यही सब करते रहना।

जिसकी गृहस्थी भिक्षा से चलती है, उसकी सहायता की मुझे जरूरत नहीं है।

तुम पिताजी का श्राद्ध अपने घर पर अपने हिसाब से कर लेना।’

नरसी जी ने कहा :-“नाराज क्यों होते हो भैया?
मेरे पास जो कुछ भी है, मैं उसी से श्राद्ध कर लूँगा।’

दोनों भाईयों के बीच श्राद्ध को लेकर झगडा हो गया है, नागर-मंडली को मालूम हो गया।

नरसी अलग से श्राद्ध करेगा, ये सुनकर नागर मंडली ने बदला लेने की सोची।

पुरोहित प्रसन्न राय ने सात सौ ब्राह्मणों को नरसी के यहाँ आयोजित श्राद्ध में आने के5 लिएआमंत्रित कर दिया।

प्रसन्न राय ये जानते थे कि नरसी का परिवारमांगकर भोजन करता है।वह क्या सात सौ ब्राह्मणों को भोजन कराएगा?

आमंत्रित ब्राह्मण नाराज होकर जायेंगे और तब उसे ज्यातिच्युत कर दिया जाएगा।

अब कहीं से इस षड्यंत्र का पता नरसी मेहता जी की पत्नी मानिकबाई जी को लग गया वह चिंतित हो उठी।

अब दुसरे दिन नरसी जी स्नान के बाद श्राद्ध के लिए घी लेने बाज़ार गए।

नरसी जी घी उधार में चाहते थे पर किसी ने उनको घी नहीं दिया।

अंत में एक दुकानदार राजी हो गया पर ये शर्त रख दी कि नरसी को भजन सुनाना पड़ेगा।

बस फिर क्या था, मन पसंद काम और उसके बदले घी मिलेगा, ये तो आनंद हो गया।

अब हुआ ये कि नरसी जी भगवान का भजन सुनाने में इतने तल्लीन हो गए कि ध्यान ही नहीं रहा कि घर में श्राद्ध है।
मित्रों ये घटना सभी के सामने हुयी है।
और आज भी कई जगह ऎसी घटनाएं प्रभु करते हैं ऐसा कुछ अनुभव है।
ऐसे-ऐसे लोग हुए हैं इस पावन धरा पर।

तो आईये कथा मे आगे चलते हैं…

अब नरसी मेहता जी गाते गए भजन उधर नरसी के रूप में भगवान कृष्ण श्राद्ध कराते रहे।
यानी की दुकानदार के यहाँ नरसी जी भजन गा रहे हैं और वहां श्राद्ध “कृष्ण भगवान” नरसी जी के भेस में करवा रहे हैं।

जय हो, जय हो वाह प्रभू क्या माया है…..

अद्भुत, भक्त के सम्मान की रक्षा को स्वयं भेस धर लिए।

वो कहते हैं ना की :-

“अपना मान भले टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा।

प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर, प्रभु को नियम बदलते देखा,

अपना मान भले टल जाये, भक्त मान नहीं टलते देखा।”

तो महाराज सात सौ ब्राह्मणों ने छककर भोजन किया।
दक्षिणा में एक एक अशर्फी भी प्राप्त की।

सात सौ ब्राह्मण आये तो थे नरसी जी का अपमान करने और कहाँ बदले में सुस्वादु भोजन और अशर्फी दक्षिणा के रूप में…

वाह प्रभु धन्य है आप और आपके भक्त।

दुश्त्मति ब्राह्मण सोचते रहे कि ये नरसी जरूर जादू-टोना जानता है।”

इधर दिन ढले घी लेकर नरसी जी जब घर आये तो देखा कि मानिक्बाई जी भोजन कर रही है।

नरसी जी को इस बात का क्षोभ हुआ कि श्राद्ध क्रिया आरम्भ नहीं हुई और पत्नी भोजन करने बैठ गयी।

नरसी जी बोले :- ‘वो आने में ज़रा देर हो गयी। क्या करता, कोई उधार का घी भी नहीं दे रहा था, मगर तुम श्राद्ध के पहले ही भोजन क्यों कर रही हो?”

मानिक बाई जी ने कहा :- “तुम्हारा दिमाग तो ठीक है?

स्वयं खड़े होकर तुमने श्राद्ध का सारा कार्य किया।

ब्राह्मणों को भोजन करवाया, दक्षिणा दी।

सब विदा हो गए, तुम भी खाना खा लो।’

ये बात सुनते ही नरसी जी समझ गए कि उनके इष्ट स्वयं उनका मान रख गए।

गरीब के मान को, भक्त की लाज को परम प्रेमी करूणामय भगवान् ने बचा ली।

मन भर कर गाते रहे :-

कृष्णजी, कृष्णजी, कृष्णजी कहें तो उठो रे प्राणी।
कृष्णजी ना नाम बिना जे बोलो तो मिथ्या रे वाणी।।

भक्त के मन में अगर सचमुच समर्पण का भावहो तो भगवान स्वयं ही उपस्थित हो जाते हैं!

बोलो सावंरे सेठ की जय…

श्रीकृष्ण भक्त शिरोमणी संत श्री नरसी मेहता की जय

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आज का संदेश

संसार में बहुधा यह बात कही और सुनी जाती है कि व्यक्ति को ज्यादा सीधा और सरल नहीं होना चाहिए। सीधे और सरल व्यक्ति का हर कोई फायदा उठाता है। यह भी लोकोक्ति कही जाती है कि टेढे वृक्ष को कोई हाथ भी नहीं लगाता सीधा वृक्ष ही काटा जाता है।

यह बात जरूर समझ लेना दुनिया में जितना भी सृजन हुआ है वह टेढ़े लोगों से नहीं सीधों से ही हुआ है।

टेढ़े लोगों से दुनिया दूर भागती हैं वहीं सीधों को परेशान किया जाता है। तो क्या फिर सहजता और सरलता का त्याग कर टेढ़ा हुआ जाए ? पर यह बात जरूर समझ लेना दुनिया में जितना भी सृजन हुआ है वह टेढ़े लोगों से नहीं सीधों से ही हुआ है।

कोई सीधा पेड़ कटता है तो लकड़ी भी भवन निर्माण में या भवन श्रृंगार में उसी की ही काम आती है। मंदिर में भी जिस शिला में से प्रभु का रूप प्रगट होता है वह टेढ़ी नहीं कोई सीधी शिला ही होती है। जिस वंशी की मधुर स्वर को सुनकर हमें आंनद मिलता है वो भी किसी सीधे बांस के पेड़ से ही बनती है। सीधे लोग ही गोविंद के प्रिय होते हैं।

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गीता के प्रमुख वचन भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जो बताया था वह 10 प्रमुख ज्ञान स्पष्ट है

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(1) मैं सब प्राणियों के हृदय में हर समय रहता हूं
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(2) जो यात्रा मृत्यु पर समाप्त हो जाए वह तो शरीर की यात्रा है आत्मा तो इससे भी आगे जाता है और उसकी यात्रा तो अनंत है

(3) ना मुझे कोई प्रिय है ना मुझे कोई अप्रिय यानी मैं सबके लिए समान हूं परंतु जो मुझे भजते हैं मैं उन्हीं की रक्षा करता हूं

(4) कर्म निरंतर करते रहो फल के विषय में कभी मत सोचो यदि सोचोगे तो कर्म में आसक्ति हो जाएगी और तुम्हारा कर्म बिगड़ जाएगा केवल कर्म ही तुम्हारे हाथ में है फल तुम्हारे हाथ में नहीं है

(5) जब संसार में अधर्म की वृद्धि और धर्म की हानि होती है तब मैं साधु पुरुषों की रक्षा के लिए धरती पर अवतरित होता हूं और अधर्म का नाश करता हूं

(6) हवा पानी अग्नि पृथ्वी आकाश शब्द रूप प्रकाश गंध रसना त्वचा मन बुद्धि अहंकार चित्त सूर्य चंद्रमा तारे ग्रह संपूर्ण ब्रह्मांड चेतन और चेतना धड़कन ह्रदय श्वास आंख कान वाणी समस्त जीव माया अविनाशी बीज यह सब मैं ही हूं मेरे से अलग कुछ भी नहीं है यानी मैं ही सब कुछ हूं सब कुछ

(7) बिना मोह के कर्म करना ही कर्मयोग है धर्म का पालन करना जरूरी है अर्थात कर्म ऐसे करो जिससे तुम्हारा मन उस कर्म से अलग रहे पर वह कार्य सही सही हो यानी उस कर्म से मोह ना हो

(8) आत्मा अमर है इसे कोई भी शस्त्र आग जल वायु इसे नष्ट नहीं कर सकता और आत्मा किसी को मार भी नहीं सकता और यह किसी के द्वारा मर नहीं सकती

(9) आत्मा अजन्मा है अविनाशी है नित्य है शाश्वत है पुरातन है दिव्य है और यह अखंड है यानी यह अनादि है अनंत है

(10) संपूर्ण धर्मों को छोड़कर केवल मेरी ही शरण में आ जाओ मैं समस्त पापों से तुम्हें मुक्त कर दूंगा

श्रीमद्भागवत गीता

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एक अद्भुत कथा “पंचमुखी क्यो हुए हनुमान “

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लंका में महा बलशाली मेघनाद के साथ बड़ा ही भीषण युद्ध चला. अंतत: मेघनाद मारा गया. रावण जो अब तक मद में चूर था राम सेना, खास तौर पर लक्ष्मण का पराक्रम सुनकर थोड़ा तनाव में आया.
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रावण को कुछ दुःखी देखकर रावण की मां कैकसी ने उसके पाताल में बसे दो भाइयों अहिरावण और महिरावण की याद दिलाई. रावण को याद आया कि यह दोनों तो उसके बचपन के मित्र रहे हैं.
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लंका का राजा बनने के बाद उनकी सुध ही नहीं रही थी. रावण यह भली प्रकार जानता था कि अहिरावण व महिरावण तंत्र-मंत्र के महा पंडित, जादू टोने के धनी और मां कामाक्षी के परम भक्त हैं.
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रावण ने उन्हें बुला भेजा और कहा कि वह अपने छल बल, कौशल से श्री राम व लक्ष्मण का सफाया कर दे. यह बात दूतों के जरिए विभीषण को पता लग गयी. युद्ध में अहिरावण व महिरावण जैसे परम मायावी के शामिल होने से विभीषण चिंता में पड़ गए

विभीषण को लगा कि भगवान श्री राम और लक्ष्मण की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी करनी पड़ेगी. इसके लिए उन्हें सबसे बेहतर लगा कि इसका जिम्मा परम वीर हनुमान जी को राम-लक्ष्मण को सौंप दिया जाए. साथ ही वे अपने भी निगरानी में लगे थे.
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राम-लक्ष्मण की कुटिया लंका में सुवेल पर्वत पर बनी थी. हनुमान जी ने भगवान श्री राम की कुटिया के चारों ओर एक सुरक्षा घेरा खींच दिया. कोई जादू टोना तंत्र-मंत्र का असर या मायावी राक्षस इसके भीतर नहीं घुस सकता था.
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अहिरावण और महिरावण श्री राम और लक्ष्मण को मारने उनकी कुटिया तक पहुंचे पर इस सुरक्षा घेरे के आगे उनकी एक न चली, असफल रहे. ऐसे में उन्होंने एक चाल चली. महिरावण विभीषण का रूप धर के कुटिया में घुस गया.
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राम व लक्ष्मण पत्थर की सपाट शिलाओं पर गहरी नींद सो रहे थे. दोनों राक्षसों ने बिना आहट के शिला समेत दोनो भाइयों को उठा लिया और अपने निवास पाताल की और लेकर चल दिए.
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विभीषण लगातार सतर्क थे. उन्हें कुछ देर में ही पता चल गया कि कोई अनहोनी घट चुकी है. विभीषण को महिरावण पर शक था, उन्हें राम-लक्ष्मण की जान की चिंता सताने लगी.
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विभीषण ने हनुमान जी को महिरावण के बारे में बताते हुए कहा कि वे उसका पीछा करें. लंका में अपने रूप में घूमना राम भक्त हनुमान के लिए ठीक न था सो उन्होंने पक्षी का रूप धारण कर लिया और पक्षी का रूप में ही निकुंभला नगर पहुंच गये.
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निकुंभला नगरी में पक्षी रूप धरे हनुमान जी ने कबूतर और कबूतरी को आपस में बतियाते सुना. कबूतर, कबूतरी से कह रहा था कि अब रावण की जीत पक्की है. अहिरावण व महिरावण राम-लक्ष्मण को बलि चढा देंगे. बस सारा युद्ध समाप्त.

कबूतर की बातों से ही बजरंग बली को पता चला कि दोनों राक्षस राम लक्ष्मण को सोते में ही उठाकर कामाक्षी देवी को बलि चढाने पाताल लोक ले गये हैं. हनुमान जी वायु वेग से रसातल की और बढे और तुरंत वहां पहुंचे.
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हनुमान जी को रसातल के प्रवेश द्वार पर एक अद्भुत पहरेदार मिला. इसका आधा शरीर वानर का और आधा मछली का था. उसने हनुमान जी को पाताल में प्रवेश से रोक दिया.
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द्वारपाल हनुमान जी से बोला कि मुझ को परास्त किए बिना तुम्हारा भीतर जाना असंभव है. दोनों में लड़ाई ठन गयी. हनुमान जी की आशा के विपरीत यह बड़ा ही बलशाली और कुशल योद्धा निकला.
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दोनों ही बड़े बलशाली थे. दोनों में बहुत भयंकर युद्ध हुआ परंतु वह बजरंग बली के आगे न टिक सका. आखिर कार हनुमान जी ने उसे हरा तो दिया पर उस द्वारपाल की प्रशंसा करने से नहीं रह सके.
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हनुमान जी ने उस वीर से पूछा कि हे वीर तुम अपना परिचय दो. तुम्हारा स्वरूप भी कुछ ऐसा है कि उससे कौतुहल हो रहा है. उस वीर ने उत्तर दिया- मैं हनुमान का पुत्र हूं और एक मछली से पैदा हुआ हूं. मेरा नाम है मकरध्वज.
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हनुमान जी ने यह सुना तो आश्चर्य में पड़ गए. वह वीर की बात सुनने लगे. मकरध्वज ने कहा- लंका दहन के बाद हनुमान जी समुद्र में अपनी अग्नि शांत करने पहुंचे. उनके शरीर से पसीने के रूप में तेज गिरा.

 

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उस समय मेरी मां ने आहार के लिए मुख खोला था. वह तेज मेरी माता ने अपने मुख में ले लिया और गर्भवती हो गई. उसी से मेरा जन्म हुआ है. हनुमान जी ने जब यह सुना तो मकरध्वज को बताया कि वह ही हनुमान हैं.
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मकरध्वज ने हनुमान जी के चरण स्पर्श किए और हनुमान जी ने भी अपने बेटे को गले लगा लिया और वहां आने का पूरा कारण बताया. उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि अपने पिता के स्वामी की रक्षा में सहायता करो.
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मकरध्वज ने हनुमान जी को बताया कि कुछ ही देर में राक्षस बलि के लिए आने वाले हैं. बेहतर होगा कि आप रूप बदल कर कामाक्षी कें मंदिर में जा कर बैठ जाएं. उनको सारी पूजा झरोखे से करने को कहें.
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हनुमान जी ने पहले तो मधु मक्खी का वेश धरा और मां कामाक्षी के मंदिर में घुस गये. हनुमान जी ने मां कामाक्षी को नमस्कार कर सफलता की कामना की और फिर पूछा- हे मां क्या आप वास्तव में श्री राम जी और लक्ष्मण जी की बलि चाहती हैं ?
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हनुमान जी के इस प्रश्न पर मां कामाक्षी ने उत्तर दिया कि नहीं. मैं तो दुष्ट अहिरावण व महिरावण की बलि चाहती हूं.यह दोनों मेरे भक्त तो हैं पर अधर्मी और अत्याचारी भी हैं. आप अपने प्रयत्न करो. सफल रहोगे.
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मंदिर में पांच दीप जल रहे थे. अलग-अलग दिशाओं और स्थान पर मां ने कहा यह दीप अहिरावण ने मेरी प्रसन्नता के लिए जलाये हैं जिस दिन ये एक साथ बुझा दिए जा सकेंगे, उसका अंत सुनिश्चित हो सकेगा.
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इस बीच गाजे-बाजे का शोर सुनाई पड़ने लगा. अहिरावण, महिरावण बलि चढाने के लिए आ रहे थे. हनुमान जी ने अब मां कामाक्षी का रूप धरा. जब अहिरावण और महिरावण मंदिर में प्रवेश करने ही वाले थे कि हनुमान जी का महिला स्वर गूंजा.
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हनुमान जी बोले- मैं कामाक्षी देवी हूं और आज मेरी पूजा झरोखे से करो. झरोखे से पूजा आरंभ हुई ढेर सारा चढावा मां कामाक्षी को झरोखे से चढाया जाने लगा. अंत में बंधक बलि के रूप में राम लक्ष्मण को भी उसी से डाला गया. दोनों बंधन में बेहोश थे.
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हनुमान जी ने तुरंत उन्हें बंधन मुक्त किया. अब पाताल लोक से निकलने की बारी थी पर उससे पहले मां कामाक्षी के सामने अहिरावण महिरावण की बलि देकर उनकी इच्छा पूरी करना और दोनों राक्षसों को उनके किए की सज़ा देना शेष था.
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अब हनुमान जी ने मकरध्वज को कहा कि वह अचेत अवस्था में लेटे हुए भगवान राम और लक्ष्मण का खास ख्याल रखे और उसके साथ मिलकर दोनों राक्षसों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया.
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पर यह युद्ध आसान न था. अहिरावण और महिरावण बडी मुश्किल से मरते तो फिर पाँच पाँच के रूप में जिदां हो जाते. इस विकट स्थिति में मकरध्वज ने बताया कि अहिरावण की एक पत्नी नागकन्या है.
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अहिरावण उसे बलात हर लाया है. वह उसे पसंद नहीं करती पर मन मार के उसके साथ है, वह अहिरावण के राज जानती होगी. उससे उसकी मौत का उपाय पूछा जाये. आप उसके पास जाएं और सहायता मांगे.
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मकरध्वज ने राक्षसों को युद्ध में उलझाये रखा और उधर हनुमान अहिरावण की पत्नी के पास पहुंचे. नागकन्या से उन्होंने कहा कि यदि तुम अहिरावण के मृत्यु का भेद बता दो तो हम उसे मारकर तुम्हें उसके चंगुल से मुक्ति दिला देंगे.
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अहिरावण की पत्नी ने कहा- मेरा नाम चित्रसेना है. मैं भगवान विष्णु की भक्त हूं. मेरे रूप पर अहिरावण मर मिटा और मेरा अपहरण कर यहां कैद किये हुए है, पर मैं उसे नहीं चाहती. लेकिन मैं अहिरावण का भेद तभी बताउंगी जब मेरी इच्छा पूरी की जायेगी.
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हनुमान जी ने अहिरावण की पत्नी नागकन्या चित्रसेना से पूछा कि आप अहिरावण की मृत्यु का रहस्य बताने के बदले में क्या चाहती हैं ? आप मुझसे अपनी शर्त बताएं, मैं उसे जरूर मानूंगा.
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चित्रसेना ने कहा- दुर्भाग्य से अहिरावण जैसा असुर मुझे हर लाया. इससे मेरा जीवन खराब हो गया. मैं अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलना चाहती हूं. आप अगर मेरा विवाह श्री राम से कराने का वचन दें तो मैं अहिरावण के वध का रहस्य बताऊंगी.
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हनुमान जी सोच में पड़ गए. भगवान श्री राम तो एक पत्नी निष्ठ हैं. अपनी धर्म पत्नी देवी सीता को मुक्त कराने के लिए असुरों से युद्ध कर रहे हैं. वह किसी और से विवाह की बात तो कभी न स्वीकारेंगे. मैं कैसे वचन दे सकता हूं ?
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फिर सोचने लगे कि यदि समय पर उचित निर्णय न लिया तो स्वामी के प्राण ही संकट में हैं. असमंजस की स्थिति में बेचैन हनुमानजी ने ऐसी राह निकाली कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.
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हनुमान जी बोले- तुम्हारी शर्त स्वीकार है पर हमारी भी एक शर्त है. यह विवाह तभी होगा जब तुम्हारे साथ भगवान राम जिस पलंग पर आसीन होंगे वह सही सलामत रहना चाहिए. यदि वह टूटा तो इसे अपशकुन मांगकर वचन से पीछे हट जाऊंगा.
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जब महाकाय अहिरावण के बैठने से पलंग नहीं टूटता तो भला श्रीराम के बैठने से कैसे टूटेगा ! यह सोच कर चित्रसेना तैयार हो गयी. उसने अहिरावण समेत सभी राक्षसों के अंत का सारा भेद बता दिया.
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चित्रसेना ने कहा- दोनों राक्षसों के बचपन की बात है. इन दोनों के कुछ शरारती राक्षस मित्रों ने कहीं से एक भ्रामरी को पकड़ लिया. मनोरंजन के लिए वे उसे भ्रामरी को बार-बार काटों से छेड रहे थे.
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भ्रामरी साधारण भ्रामरी न थी. वह भी बहुत मायावी थी किंतु किसी कारण वश वह पकड़ में आ गई थी. भ्रामरी की पीड़ा सुनकर अहिरावण और महिरावण को दया आ गई और अपने मित्रों से लड़ कर उसे छुड़ा दिया.
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मायावी भ्रामरी का पति भी अपनी पत्नी की पीड़ा सुनकर आया था. अपनी पत्नी की मुक्ति से प्रसन्न होकर उस भौंरे ने वचन दिया थ कि तुम्हारे उपकार का बदला हम सभी भ्रमर जाति मिलकर चुकाएंगे.
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ये भौंरे अधिकतर उसके शयन कक्ष के पास रहते हैं. ये सब बड़ी भारी संख्या में हैं. दोनों राक्षसों को जब भी मारने का प्रयास हुआ है और ये मरने को हो जाते हैं तब भ्रमर उनके मुख में एक बूंद अमृत का डाल देते हैं.
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उस अमृत के कारण ये दोनों राक्षस मरकर भी जिंदा हो जाते हैं. इनके कई-कई रूप उसी अमृत के कारण हैं. इन्हें जितनी बार फिर से जीवन दिया गया उनके उतने नए रूप बन गए हैं. इस लिए आपको पहले इन भंवरों को मारना होगा.
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हनुमान जी रहस्य जानकर लौटे. मकरध्वज ने अहिरावण को युद्ध में उलझा रखा था. तो हनुमान जी ने भंवरों का खात्मा शुरू किया. वे आखिर हनुमान जी के सामने कहां तक टिकते.
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जब सारे भ्रमर खत्म हो गए और केवल एक बचा तो वह हनुमान जी के चरणों में लोट गया. उसने हनुमान जी से प्राण रक्षा की याचना की. हनुमान जी पसीज गए. उन्होंने उसे क्षमा करते हुए एक काम सौंपा.
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हनुमान जी बोले- मैं तुम्हें प्राण दान देता हूं पर इस शर्त पर कि तुम यहां से तुरंत चले जाओगे और अहिरावण की पत्नी के पलंग की पाटी में घुसकर जल्दी से जल्दी उसे पूरी तरह खोखला बना दोगे.

 

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भंवरा तत्काल चित्रसेना के पलंग की पाटी में घुसने के लिए प्रस्थान कर गया. इधर अहिरावण और महिरावण को अपने चमत्कार के लुप्त होने से बहुत अचरज हुआ पर उन्होंने मायावी युद्ध जारी रखा.
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भ्रमरों को हनुमान जी ने समाप्त कर दिया फिर भी हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों अहिरावण और महिरावण का अंत नहीं हो पा रहा था. यह देखकर हनुमान जी कुछ चिंतित हुए.
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फिर उन्हें कामाक्षी देवी का वचन याद आया. देवी ने बताया था कि अहिरावण की सिद्धि है कि जब पांचो दीपकों एक साथ बुझेंगे तभी वे नए-नए रूप धारण करने में असमर्थ होंगे और उनका वध हो सकेगा.
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हनुमान जी ने तत्काल पंचमुखी रूप धारण कर लिया. उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख.
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उसके बाद हनुमान जी ने अपने पांचों मुख द्वारा एक साथ पांचों दीपक बुझा दिए. अब उनके बार बार पैदा होने और लंबे समय तक जिंदा रहने की सारी आशंकायें समाप्त हो गयीं थी. हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों शीघ्र ही दोनों राक्षस मारे गये.
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इसके बाद उन्होंने श्री राम और लक्ष्मण जी की मूर्च्छा दूर करने के उपाय किए. दोनो भाई होश में आ गए. चित्रसेना भी वहां आ गई थी. हनुमान जी ने कहा- प्रभो ! अब आप अहिरावण और महिरावण के छल और बंधन से मुक्त हुए.
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पर इसके लिए हमें इस नागकन्या की सहायता लेनी पड़ी थी. अहिरावण इसे बल पूर्वक उठा लाया था. वह आपसे विवाह करना चाहती है. कृपया उससे विवाह कर अपने साथ ले चलें. इससे उसे भी मुक्ति मिलेगी.
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श्री राम हनुमान जी की बात सुनकर चकराए. इससे पहले कि वह कुछ कह पाते हनुमान जी ने ही कह दिया- भगवन आप तो मुक्तिदाता हैं. अहिरावण को मारने का भेद इसी ने बताया है. इसके बिना हम उसे मारकर आपको बचाने में सफल न हो पाते.
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कृपा निधान इसे भी मुक्ति मिलनी चाहिए. परंतु आप चिंता न करें. हम सबका जीवन बचाने वाले के प्रति बस इतना कीजिए कि आप बस इस पलंग पर बैठिए बाकी का काम मैं संपन्न करवाता हूं.
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हनुमान जी इतनी तेजी से सारे कार्य करते जा रहे थे कि इससे श्री राम जी और लक्ष्मण जी दोनों चिंता में पड़ गये. वह कोई कदम उठाते कि तब तक हनुमान जी ने भगवान राम की बांह पकड़ ली.
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हनुमान जी ने भावा वेश में प्रभु श्री राम की बांह पकड़कर चित्रसेना के उस सजे-धजे विशाल पलंग पर बिठा दिया. श्री राम कुछ समझ पाते कि तभी पलंग की खोखली पाटी चरमरा कर टूट गयी.
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पलंग धराशायी हो गया. चित्रसेना भी जमीन पर आ गिरी. हनुमान जी हंस पड़े और फिर चित्रसेना से बोले- अब तुम्हारी शर्त तो पूरी हुई नहीं, इसलिए यह विवाह नहीं हो सकता. तुम मुक्त हो और हम तुम्हें तुम्हारे लोक भेजने का प्रबंध करते हैं.
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चित्रसेना समझ गयी कि उसके साथ छल हुआ है. उसने कहा कि उसके साथ छल हुआ है. मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक उनके सामने किसी के साथ छल करें यह तो बहुत अनुचित है. मैं हनुमान को श्राप दूंगी.
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चित्रसेना हनुमान जी को श्राप देने ही जा हे रही थी कि श्री राम का सम्मोहन भंग हुआ. वह इस पूरे नाटक को समझ गये. उन्होंने चित्रसेना को समझाया- मैंने एक पत्नी धर्म से बंधे होने का संकल्प लिया है. इस लिए हनुमान जी को यह करना पड़ा. उन्हें क्षमा कर दो.
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क्रुद्ध चित्रसेना तो उनसे विवाह की जिद पकड़े बैठी थी. श्री राम ने कहा- मैं जब द्वापर में श्री कृष्ण अवतार लूंगा तब तुम्हें सत्यभामा के रूप में अपनी पटरानी बनाउंगा. इससे वह मान गयी.
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हनुमान जी ने चित्रसेना को उसके पिता के पास पहुंचा दिया. चित्रसेना को प्रभु ने अगले जन्म में पत्नी बनाने का वरदान दिया था. भगवान विष्णु की पत्नी बनने की चाह में उसने स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया.
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श्री राम और लक्ष्मण, मकरध्वज और हनुमान जी सहित वापस लंका में सुवेल पर्वत पर लौट आये.!
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मन्त्रों से करें रोग निवारण

कैंसर रोग ॐ नम: शिवाय शंभवे कर्केशाय नमो नम:। यह मंत्र किसी भी तरह के कैंसर रोग में लाभदायक होता है।

मस्तिष्क रोग
ॐ उमा देवीभ्यां नम:।
यह मंत्र मस्तिष्क संबंधी विभिन्न रोगों जैसे सिरदर्द, हिस्टीरिया, याददाश्त जाने आदि में लाभदायी माना जाता है।

आंखों के रोग ॐ शंखिनीभ्यां नम:।
इस मंत्र से जातक को मोतियाबिंद सहित रतौंधी, नेत्र ज्योति कम होने आदि की परेशानी में लाभ मिलता है।

हृदय रोग
ॐ नम: शिवाय संभवे व्योमेशाय नम:।
हृदय संबंधी रोगों से अधिकांश लोग पीड़ित होते हैं। इसलिए अगर वे इस मंत्र का जप करें, तो उन्हें लाभ मिलता है।

स्नायु रोग
ॐ धं धर्नुधारिभ्यां नम:।

कान संबंधी रोग
ॐ व्हां द्वार वासिनीभ्यां नम:।
कर्ण विकारों को दूर करने में यह मंत्र आश्चर्यजनक भूमिका निभाता है।

कफ संबंधी रोग
ॐ पद्मावतीभ्यां नम:।

श्वास रोग
ॐ नम: शिवाय संभवे श्वासेशाय नमो नम:।

पक्षाघात रोग
ॐ नम: शिवाय शंभवे खगेशाय नमो नम:।

इन मंत्रों की शक्ति से रोग भागते हैं मंत्रों में गजब की शक्ति होती है। इनका नियमित जप न केवल जातक को मानसिक शांति देता है, बल्कि उन्हें होने वाली गंभीर बीमारियों को भी दूर भगा सकता हैं अब आप कितना करते है यह तो आप पर निर्भर करता हैं। इसमे कोई अतिशोक्ति नही यदि कुछ रोग जड से सामाप्त हो जाये।

 

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मीठे पानी की छबील

एकादशी से अगले दिन एक भिखारी एक सज्जन की दुकान पर भीख मांगने पहुंचा। सज्जन व्यक्ति ने 1 रुपये का सिक्का निकाल कर उसे दे दिया।
भिखारी को प्यास भी लगी थी,वो बोला बाबूजी एक गिलास पानी भी पिलवा दो,गला सूखा जा रहा है। सज्जन व्यक्ति गुस्से में तुम्हारे बाप के नौकर बैठे हैं क्या हम यहां,पहले पैसे,अब पानी,थोड़ी देर में रोटी मांगेगा,चल भाग यहां से।

भिखारी बोला:-
बाबूजी गुस्सा मत कीजिये मैं आगे कहीं पानी पी लूंगा। पर जहां तक मुझे याद है,कल इसी दुकान के बाहर मीठे पानी की छबील लगी थी और आप स्वयं लोगों को रोक रोक कर जबरदस्ती अपने हाथों से गिलास पकड़ा रहे थे,मुझे भी कल आपके हाथों से दो गिलास शर्बत पीने को मिला था।मैंने तो यही सोचा था,आप बड़े धर्मात्मा आदमी है,पर आज मेरा भरम टूट गया।
कल की छबील तो शायद आपने लोगों को दिखाने के लिये लगाई थी।
मुझे आज आपने कड़वे वचन बोलकर अपना कल का सारा पुण्य खो दिया। मुझे माफ़ करना अगर मैं कुछ ज्यादा बोल गया हूँ तो।
सज्जन व्यक्ति को बात दिल पर लगी, उसकी नजरों के सामने बीते दिन का प्रत्येक दृश्य घूम गया। उसे अपनी गलती का अहसास हो रहा था। वह स्वयं अपनी गद्दी से उठा और अपने हाथों से गिलास में पानी भरकर उस बाबा को देते हुए उसे क्षमा प्रार्थना करने लगा।

भिखारी:-
बाबूजी मुझे आपसे कोई शिकायत नही,परन्तु अगर मानवता को अपने मन की गहराइयों में नही बसा सकते तो एक दो दिन किये हुए पुण्य व्यर्थ है।
मानवता का मतलब तो हमेशा शालीनता से मानव व जीव की सेवा करना है।
आपको अपनी गलती का अहसास हुआ,ये आपके व आपकी सन्तानों के लिये अच्छी बात है।
आप व आपका परिवार हमेशा स्वस्थ व दीर्घायु बना रहे ऐसी मैं कामना करता हूँ,यह कहते हुए भिखारी आगे बढ़ गया।

सेठ ने तुरंत अपने बेटे को आदेश देते हुए कहा:-
कल से दो घड़े पानी दुकान के आगे आने जाने वालों के लिये जरूर रखे हो।उसे अपनी गलती सुधारने पर बड़ी खुशी हो रही थी।
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गुप्त भजनानन्दी….

भगवान् का भजन गुप्त रखना चाहिये। इससे भजन करनेवाले को बड़ा लाभ होता है, इस पर एक दृष्टान्त याद आ गया, वह आपको बताया जाता है।

एक राजा थे, बड़े भजनानन्दी, अंदर ही अंदर भजनरूपी पूँजी इकट्ठी किया करते थे, किसी को पता नहीं लगा कि राजा इतना भजन करने वाला है। सब यही सोचते कि पक्का नास्तिक है। भगवान् का एक बार भी नाम नहीं लेता, इसी प्रकार की कल्पना लोग किया करते थे।

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राजा की रानी साहिबा भी बड़ी भजन वाली थीं, वह भी यही सोचती कि ये भगवान् का नाम नहीं लेते, वे पति से भजन करने का आग्रह भी किया करती थीं, किंतु वे इस बात पर ध्यान नहीं देते थे। रानी बेचारी बड़ी दु:खी रहतीं कि ये भगवान् का नाम नहीं लेते।

एक दिन सोते समय राजा के मुख से स्वाभाविक ही राम का नाम निकल गया, अब तो रानी बड़ी प्रसन्न हुई, उसने अपना बड़ा भाग्य समझा क्योंकि सोते समय उसके पति के मुख से राम-नाम निकल गया।

रानी ने आदेश दिया कि सारे नगर में बाजे बजे एवं उत्सव मनाया जाय। रानी की आज्ञानुसार सब हुआ, जब बाजे बजने लगे तो राजा ने पूछा कि आज क्यों बाजे बज रहे हैं ?

आज तो न कोई पर्व है न कोई उत्सव। रानी ने कहा कि आपने अब तक भगवान् का नाम नहीं लिया, किंतु रात्रि में आपके मुख से राम नाम निकला। इसलिये इस खुशी में यह सब हो रहा है।

राजा ने कहा कि क्या राम का नाम मेरे मुख से निकल गया। रानी ने कहा-‘हाँ, तब तो निकल ही गया, अब हमेशा के लिये निकल जायगा, राजा ने अपने प्राणों को निरुद्ध किया एवं प्राणों का परित्याग कर दिया। कहने का मतलब है कि अपने भजन-ध्यान को गुप्त रखना चाहिये।

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तुलसी की माला जरूर पहने

साधारण काष्ठ नहीं है तुलसी की माला….

साधारण काष्ठ नहीं है तुलसी की माला वैष्णव चिह्न से भी आगे की चीज़ है।हमारा यह शरीर भगवान का मंदिर है जिसमें युगल सरकार राधाकृष्ण का वास है, और हमारी आत्मा ही प्रभु का शरीर है।जब हम तुलसी की माला गले में पहनते हैं तो हम कहते हैं:- “भगवान हम जैसे भी हैं तुम्हारे ही हैं।” तुलसी की माला समर्पण के इसी पूर्णत्व का प्रतीक है, तथा अन्य वैषणव चिह्न -तिलक और छापा (रामनौमी ). सुनिश्चित जानिये इन्हें पहनने का लाभ आपको तो मिलेगा साथ परिवार के अन्य लोगों को भी इसका लाभ मिलेगा।

कविवर रसखान अपने गले में असंख्य तुलसी मालाओं को धारण किए रहते थे। एक बार किसी ने रसखान जी से पूछा- ‘महाराज आप इतनी अधिक काष्ठ मालाएं क्यों पहने रहते हैं?’ रसखान जी बोले- ‘मैं नीच कुल में पैदा हुआ हूँ, मैं नहीं जानता पाप क्या है, लेकिन इतना मैंने संतों से सुना है की तुलसी की यह माला साधारण काष्ठ की माला नहीं है। यह मेरा भी बेड़ा पार कर देगी और मेरे कुल का भी बेड़ा पार होगा ऐसा मैं सोचता हूँ। मुझे यह जानने में अब बहुत देर हो गई है कि पाप का उपाय क्या है, लेकिन यह साधारण सा उपाय तो मैं कर ही सकता हूँ।इसीलिए मैं इतना ब्रह्म काष्ठ धारण किये रहता हूँ।’तुलसी जी की काष्ठ को ब्रह्म काष्ठ कहा गया है।वर्षों पहले साधारण लकड़ी के स्लीपर (स्लीपर यानी लकड़ी के लठ्ठे) को जोड़कर उस दौर में यूं ही नदी में बहा दिया जाता था, जिनको नियत स्थान पर पानी से निकाल भी लिया जाता था।उनके साथ उन पर बैठे-खड़े छोटे बच्चे तथा बड़े मीलों मील तक सफर करते थे।साधारण लकड़ी भी जब आपको जल में डूबने नहीं देती तो यह तो कल्याणी ब्रह्मकाष्ठ है तुलसी की माला।कल्याणी इसलिए कि यह जगत का कल्याण करती है।महाविष्णु के चरण कमलों की शोभा हैं, प्रिया हैं तुलसी जी। तुलसी की माला पहनकर घर पर साधारण स्नान करने वालों को तमाम तीर्थों में स्नान करने का पुण्य प्राप्त होता है। यदि मृत्यु के समय किसी के गले में तुलसी की माला का एक मनका भी मौजूद रहता है तो सुनिश्चित जानो वह नरक (निम्नतर योनियों ) में नहीं जाएगा, ऐसा हमारे शास्त्र कहते हैं।

पद्मपुराण , गरुण एवं स्कन्दपुराण में तुलसी की महिमा का बखान आया है। मान्यता है तुलसी की माला पहनने के लिए सुपात्र बनना ज़रूरी है। आपका आचरण शुद्ध हो, खानपान शुद्ध हो यानी आप वही खाएं जिसे आप अपने आराध्य देव पर भी अर्पित करसकते हों। है न फायदा आपका खानपान शुद्ध हो जाएगा तो आपका स्वास्थ्य भी ठीक बना रहेगा और मन भी। स्वस्थ चित्त में ही स्वस्थ मन का आवास होता है।तुलसी की माला मानसिक परेशानियों को घटाने तथा स्मरण शक्ति को बढ़ाने की असली औषधि है।संकोच न करें तुलसी माला पहनने में। कई सभ्रांत महिलाएं ऐसा सोचतीं हैं की रज का तिलक और तुलसी की माला सुहागिन स्त्रियों को नहीं पहननी चाहिए। मगर हमारे शास्त्रों में ऐसा कहीं भी नहीं लिखा है कि सुहागिन स्त्रियों को तुलसी माला नहीँ पहनी चाहिए। इसलिए बगैर किसी शंका और संकोच के तुलसी माला को धारण करना चाहिए।

 

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कर्मफल का विधान

भगवान ने नारद जी से कहा आप भ्रमण करते रहते हो कोई ऐसी घटना बताओ जिसने तम्हे असमंजस मे डाल दिया हो…
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नारद जी ने कहा प्रभु अभी मैं एक जंगल से आ रहा हूं, वहां एक गाय दलदल में फंसी हुई थी। कोई उसे बचाने वाला नहीं था।
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तभी एक चोर उधर से गुजरा, गाय को फंसा हुआ देखकर भी नहीं रुका, उलटे उस पर पैर रखकर दलदल लांघकर निकल गया।
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आगे जाकर उसे सोने की मोहरों से भरी एक थैली मिल गई।

थोड़ी देर बाद वहां से एक वृद्ध साधु गुजरा। उसने उस गाय को बचाने की पूरी कोशिश की।
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पूरे शरीर का जोर लगाकर उस गाय को बचा लिया लेकिन मैंने देखा कि गाय को दलदल से निकालने के बाद वह साधु आगे गया तो एक गड्ढे में गिर गया और उसे चोट लग गयी ।
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भगवान बताइए यह कौन सा न्याय है।
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भगवान मुस्कुराए, फिर बोले नारद यह सही ही हुआ।
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जो चोर गाय पर पैर रखकर भाग गया था, उसकी किस्मत में तो एक खजाना था लेकिन उसके इस पाप के कारण उसे केवल कुछ मोहरे ही मिलीं।
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वहीं उस साधु को गड्ढे में इसलिए गिरना पड़ा क्योंकि उसके भाग्य में मृत्यु लिखी थी लेकिन गाय के बचाने के कारण उसके पुण्य बढ़ गए और उसकी मृत्यु एक छोटी सी चोट में बदल गई।
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इंसान के कर्म से उसका भाग्य तय होता है। अब नारद जी संतुष्ट थे |
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सार :- सदा अच्छे कर्म मे ही प्रवत्त रहना चाहिए ।
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((((((( जय जय श्री राधे )))))))

 

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नेक कमाई

महात्मा अबुल अब्बास खुदा में आस्था रखने वाले व्यक्ति थे। वह टोपियां सिलकर जीवन-यापन करते थे। टोपियों की सिलाई से मिलने वाली आय में से आधा हिस्सा वह किसी जरूरतमंद को दे देते थे और आधी से स्वयं गुजर-बसर करते थे। एक दिन उनके एक धनी शिष्य ने उनसे पूछा, ‘महात्मन! मैं कुछ पैसा दान करना चाहता हूं। यह दान मैं किसे दूं’

महात्मा अब्बास ने कहा, ‘जिसे सुपात्र समझो, उसी को दान कर दो।’

धनी शिष्य ने एक अंधे भिखारी को सोने की एक मोहर दान में दे दी। दूसरे दिन धनी शिष्य फिर उसी रास्ते से गुजरा।

उसने देखा – अंधा भिखारी दूसरे भिखारी से कह रहा था, ‘कल मुझे भीख में सोने की एक मोहर मिली थी। मैंने उससे खूब मौज-मस्ती की और शराब पी।’ यह सुनकर धनी शिष्य को बुरा लगा।

वह महात्मा अब्बास के पास पहुंचा और उन्हें पूरी बात कह सुनाई। महात्मा अब्बास ने उसे अपनी कमाई का एक सिक्का दिया और कहा, ‘इसे किसी याचक को दे देना।’ धनी शिष्य ने वह सिक्का एक याचक को दिया और कौतूहलवश उसके पीछे-पीछे चल दिया। कुछ दूर चलने के बाद याचक एक निर्जन स्थान पर गया और अपने कपड़ों में छिपाए हुए एक पक्षी को निकालकर उड़ा दिया।

धनी शिष्य ने याचक से पूछा, ‘तुमने इस पक्षी को क्यों उड़ा दिया?’

याचक बोला, ‘मैं तीन दिन से भूखा था। आज इस पक्षी का सेवन करता, मगर आपने एक सिक्का दे दिया। तो अब इस मासूम जीव की हत्या करने की कोई जरूरत नहीं रही।’ धनी शिष्य महात्मा अबुल अब्बास के पास गया और पूरा वृत्तांत सुनाया। तब उन्होंने कहा, ‘तुम्हारा धन गलत विधि से कमाया गया था। इसीलिए उसका गलत उपयोग हुआ। मेरा पैसा श्रम से कमाया गया था, सो उसने एक व्यक्ति को गलत काम से बचा लिया।’

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झगडे का मूल

यह कहानी संत के ज्ञान को दर्शाने वाली कथा है क्युकी हमेशा ही ये माना जाता है की संत, गुरु, साधू और मुनि महाराज के पास उन सभी सांसारिक… समस्याओ का तुरंत हल मिल जाता है जिसके बारे में आज लोग और गृहस्ती हमेशा से ही परेशान रहते है |
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समाज में साधू, संत, गुरु और मुनि ही हर समस्या की एक मात्र चाबी माने जाते रहे है और यह सही भी है की इनके पास जाने मात्र से ही हमारे मन को शांति प्राप्त हो जाती है
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इसलिए आज एक ऐसी ही कहानी लेकर आया हुं जिससे आप गुरु की महिमा को समझ ही जायेंगे की क्यों और केसे ये सभी विद्वान जन तुरन्त ही हरेक के मन की समस्या का समाधान कर देते है |
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एक बार गोमल सेठ अपनी दुकान पर बेठे थे दोपहर का समय था इसलिए कोई ग्राहक भी नहीं था तो वो थोडा सुस्ताने लगे

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इतने में ही एक संत भिक्षक भिक्षा लेने के लिए दुकान पर आ पहुचे और सेठ जी को आवाज लगाई कुछ देने के लिए…

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सेठ जी ने देखा की इस समय कौन आया है ? जब उठकर देखा तो एक संत याचना कर रहा था
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सेठ बड़ा ही दयालु था वह तुरंत उठा और दान देने के लिए कटोरी चावल बोरी में से निकला और संत के पास आकर उनको चावल दे दिया
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संत ने सेठ जी को बहुत बहुत आशीर्वाद और दुवाएं दी, तब सेठ जी ने संत से हाथ जोड़कर बड़े ही विनम्र भाव से कहा की..
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हे गुरुजन आपको मेरे प्रणाम में आपसे अपने मन में उठी शंका का समाधान पूछना चाहता हु |
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संत याचक ने कहा की जरुर पूछो
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तब सेठ जी ने कहा की लोग आपस में लड़ते क्यों है ?
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संत ने सेठ जी के इतना पूछते ही शांत स्वभाव और वाणी में कहा की… सेठ मैं तुम्हारे पास भिक्षा लेने के लिए आया हुं तुम्हारे इस प्रकार के मुर्खता पूर्वक सवालो के जवाब देने नहीं आया हु |
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इतना संत के मुख से सुनते ही सेठ जी को क्रोध आ गया और मन में सोचने लगे की यह कैसा घमंडी और असभ्य संत है ?
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ये तो बड़ा ही कृतघ्न है एक तरफ मैंने इनको दान दिया और ये मेरे को ही इस प्रकार की बात बोल रहे है इनकी इतनी हिम्मत
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और ये सोच कर सेठ जी को बहुत ही गुसा आ गया और वो काफी देर तक उस संत को खरी खोटी सुनते रहे
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और जब अपने मनकी पूरी भड़ास निकल चुके तब कुछ शांत हुए .
तब संत ने बड़े ही शांत और स्थिर भाव से कहा की – जैसे ही मैंने कुछ बोला आपको गुस्सा आ गया और आप गुस्से से भर गए और लगे जोर जोर से बोलने और चिलाने
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वास्तव में केवल गुस्सा ही सभी झगडे का मूल होता है यदि सभी लोग अपने गुस्से पर काबू रख सके तो या सीख जाये तो दुनिया में झगडे ही कभी न होंगे !!!

जय श्री राम

 

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कर्मो के अनुसार सुख-दुःख की प्राप्ति

महाराजा चित्रकेतु पुत्र हीन थे । महर्षि अंगिरा का उनके यहाँ आना जाना होता था । जब भी आते राजा उनसे निवेदन करते, महर्षि पुत्र हीन हूँ , इतना राज्य कौन सम्भालेगा। कृपा करो एक पुत्र मिल जाए, एक पुत्र हो जाए । ऋषि बहुत देर तक टालते रहे । कहते – राजन् ! पुत्र वाले भी उतने ही दुखी हैं जितने पुत्रहीन । किंतु पुत्र मोह बहुत प्रबल है । बहुत आग्रह किया , कहा – ठीक है, परमेश्वर कृपा करेंगे तेरे ऊपर , पुत्र पैदा होगा। समय के बाद, एक पुत्र पैदा हुआ । थोडा ही बडा हुआ होगा, राज़ा की दूसरी रानी ने उसे ज़हर दे कर मरवा दिया ।

राजा चित्रकेतु शोक में डूबे हुए हैं । बाहर नहीं निकल रहे। महर्षि को याद कर रहा है। उनकी बातों को याद कर रहा है। महर्षि बहुत देर तक इस होनी को टालते रहे । लेकिन होनी भी उतनी प्रबल । संत महात्मा भी होनी को कब तक टालते।आखर जो प्रारब्ध में होना है वह होकर रहता है। संत ही है जो टाल सकता है। कि आज का दिन इसको न देखना पड़े तो टालता रहा। आज पुन: आए हैं लेकिन देवऋषि नारद को साथ लेकर आए है । राजा बहुत परेशान है ।

देवऋषि राज़ा को समझाते हैं कि तेरा पुत्र जहाँ चला गया है वहाँ से लौट कर नहीं आ सकता। शोक रहित हो जा। तेरे शोक करने से तेरी सुनवाई नहीं होने वाली। बहुत समझा रहे हैं राजा को, लेकिन राजा फूट फूट कर रो रहा है। ऐसे समय में एक ही शकायत होती है कि यदि लेना ही था तो दिया क्यों ? यह तो आदमी भूल जाता है कि किस प्रकार से आदमी माँग कर लेता है। मन्नतें माँग कर, इधर जा उधर जा, मन्नतें माँग माँग कर लिया है पुत्र को लेकिन आज उन्हें ही उलाहना दे रहा है।

देवर्षि नारद राजा को समझाते हैं कि पुत्र चार प्रकार के होते हैं । पिछले जन्म का वैरी, अपना वैर चुकाने के लिए पैदा होता है, उसे शत्रु पुत्र कहा जाता है। पिछले जन्म का ऋण दाता। अपना ऋण वसूल करने आया है। हिसाब किताब पूरा होता है , जीवनभर का दुख दे कर चला जाता है। यह दूसरी तरह का पुत्र। तीसरे तरह के पुत्र उदासीन पुत्र । विवाह से पहले माँ बाप के । विवाह होते ही माँ बाप से अलग हो जाते हैं । अब मेरी और आपकी निभ नहीं सकती। पशुवत पुत्र बन जाते हैं। चौथे प्रकार के पुत्र सेवक पुत्र होते हैं। माता पिता में परमात्मा को देखने वाले, सेवक पुत्र। सेवा करने वाले। उनके लिए , माता पिता की सेवा, परमात्मा की सेवा। माता पिता की सेवा हर एक की क़िस्मत में नहीं है। कोई कोई भाग्यवान है जिसको यह सेवा मिलती है। उसकी साधना की यात्रा बहुत तेज गति से आगे चलती है। घर बैठे भगवान की उपासना करता है।

राजन तेरा पुत्र शत्रु पुत्र था । शत्रुता निभाने आया था, चला गया। यह महर्षि अंगीरा इसी को टाल रहे थे। पर तू न माना । समझाने के बावजूद भी राजा रोए जा रहा है। माने शोक से बाहर नहीं निकल पा रहा। देवर्षि नारद कहते हैं राजन मैं तुझे तेरे पुत्र के दर्शन करवाता हूँ ।

सारी विधि विधान तोड के तो देवर्षि उसके मरे हुए पुत्र को ले कर आए हैं । शुभ्र श्वेत कपड़ों में लिपटा हुआ है। राजा के सामने आ कर खडा हो गया। देवर्षि कहते हैं क्या देख रहे हो। तुम्हारे पिता हैं प्रणाम करो। पुत्र / आत्मा पहचानने से इन्कार कर रहा है। कौन पिता किसका पिता? देवर्षि क्या कह रहे हो आप ? न जाने मेरे कितने जन्म हो चुके हैं । कितने पिता ! मैं नहीं पहचानता यह कौन है! किस किस के पहचानूँ ? मेरे आज तक कितने माई बाप हो चुके हुए हैं । किसको किसकी पहचान रहती है? मैं इस समय विशुद्ध आत्मा हूँ । मेरा माई बाप कोई नहीं । मेरा माई बाप परमात्मा है। तो शरीर के सम्बंध टूट गए । कितनी लाख योनियाँ आदमी भुगत चुका है, उतने ही माँ बाप । कभी चिड़िया में मा बाप , कभी कौआ में मा बाप , कभी हिरण में कभी पेड़ पौधों में इत्यादि इत्यादि ।

सुन लिया राजन । यह अपने आप बोल रहा है। जिसके लिए मैं रो रहा हूँ , जिसके लिए मैं बिलख रहा हूँ वह मुझे पहचानने से इंकार कर रहा है। जो पहला आघात था, उससे बाहर निकला। जिस शोक सागर में पहले डूबा हुआ था तो परमात्मा ने उसे दूसरे शोक सागर में डाल कर पहले से बाहर निकाला । समझा कि पुत्र मोह केवल मन का भ्रम है। सत्य सनातन तो केवल परमात्मा है।

संत महात्मा कहते हैं जो माता पिता अपने पुत्र को पुत्री को इस जन्म में सुसंस्कारी नहीं बनाते, उन्हें मानव जन्म का महत्व नहीं समझाते, उनको संसारी बना कर उनके शत्रु समान व्यवहार करते हैं, तो अगले जन्म में उनके बच्चे शत्रु व वैरी पुत्र पैदा होते हैं उनके घर । अत: संतान का सुख भी अपने ही कर्मों के अनुसार मिलता है, ज़बरदस्ती मन्नत इत्यादि से नही और मिल भी जाये तो कब तक रहे इसका कोई भरोसा नहीं।

🌺🍃 हरि ॐ तत् सत् 🍃🌺
🌺 जय भवानी-शंकर 🌺
🌹 हर हर महादेव 🌹
☘☘☘☘🍀🍀🍀🍀

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रुद्राष्टकम

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम

हे भगवन ईशान को मेरा प्रणाम ऐसे भगवान जो कि निर्वाण रूप हैं जो कि महान ॐ के दाता हैं जो सम्पूर्ण ब्रह्माण में व्यापत हैं जो अपने आपको धारण किये हुए हैं जिनके सामने गुण अवगुण का कोई महत्व नहीं, जिनका कोई विकल्प नहीं, जो निष्पक्ष हैं जिनका आकर आकाश के सामान हैं जिसे मापा नहीं जा सकता उनकी मैं उपासना करता हूँ |

निराकारमोङ्करमूल तुरीयं
गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकालकालं कृपालं
गुणागारसंसारपारं नतोहम

जिनका कोई आकार नहीं, जो ॐ के मूल हैं, जिनका कोई राज्य नहीं, जो गिरी के वासी हैं, जो कि सभी ज्ञान, शब्द से परे हैं, जो कि कैलाश के स्वामी हैं, जिनका रूप भयावह हैं, जो कि काल के स्वामी हैं, जो उदार एवम् दयालु हैं, जो गुणों का खजाना हैं, जो पुरे संसार के परे हैं उनके सामने मैं नत मस्तक हूँ।

तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभिरं
मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा
लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा

जो कि बर्फ के समान शील हैं, जिनका मुख सुंदर हैं, जो गौर रंग के हैं जो गहन चिंतन में हैं, जो सभी प्राणियों के मन में हैं, जिनका वैभव अपार हैं, जिनकी देह सुंदर हैं, जिनके मस्तक पर तेज हैं जिनकी जटाओ में लहलहारती गंगा हैं, जिनके चमकते हुए मस्तक पर चाँद हैं, और जिनके कंठ पर सर्प का वास हैं |

चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं
प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं
प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि

जिनके कानों में बालियाँ हैं, जिनकी सुन्दर भोहे और बड़ी-बड़ी आँखे हैं जिनके चेहरे पर सुख का भाव हैं जिनके कंठ में विष का वास हैं जो दयालु हैं, जिनके वस्त्र शेर की खाल हैं, जिनके गले में मुंड की माला हैं ऐसे प्रिय शंकर पुरे संसार के नाथ हैं उनको मैं पूजता हूँ |

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं
अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशं ।
त्र्यःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिं
भजेहं भवानीपतिं भावगम्यम

जो भयंकर हैं, जो परिपक्व साहसी हैं, जो श्रेष्ठ हैं अखंड है जो अजन्मे हैं जो सहस्त्र सूर्य के सामान प्रकाशवान हैं जिनके पास त्रिशूल हैं जिनका कोई मूल नहीं हैं जिनमे किसी भी मूल का नाश करने की शक्ति हैं ऐसे त्रिशूल धारी माँ भगवती के पति जो प्रेम से जीते जा सकते हैं उन्हें मैं वन्दन करता हूँ |

कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी
सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।
चिदानन्दसंदोह मोहापहारी
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी

जो काल के बंधे नहीं हैं, जो कल्याणकारी हैं, जो विनाशक भी हैं,जो हमेशा आशीर्वाद देते है और धर्म का साथ देते हैं , जो अधर्मी का नाश करते हैं, जो चित्त का आनंद हैं, जो जूनून हैं जो मुझसे खुश रहे ऐसे भगवान जो कामदेव नाशी हैं उन्हें मेरा प्रणाम |

न यावद् उमानाथपादारविन्दं
भजन्तीह लोके परे वा नराणाम।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं

जो यथावत नहीं हैं, ऐसे उमा पति के चरणों में कमल वन्दन करता हैं ऐसे भगवान को पूरे लोक के नर नारी पूजते हैं, जो सुख हैं, शांति हैं, जो सारे दुखो का नाश करते हैं जो सभी जगह वास करते हैं |

न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्।
जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो

मैं कुछ नहीं जानता, ना योग , ना ध्यान हैं देव के सामने मेरा मस्तक झुकता हैं, सभी संसारिक कष्टों, दुःख दर्द से मेरी रक्षा करे. मेरी बुढ़ापे के कष्टों से से रक्षा करें | मैं सदा ऐसे शिव शम्भु को प्रणाम करता हूँ |

जय जय महादेव 🌹🙏
जय महमाई की 🌹🙏

 

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