नाभि का टलना/हटना

🌻 नाभि का टलना/हटना 🌻

नाभी शरीर का महत्वपूर्ण हिस्सा है। नाभि को शरीर का केंद्र बिंदु भी कहा जाता है। शरीर की अच्छी सेहत के लिए नाभि का अपनी जगह पर बने रहना जरूरी होता है।

नाभि जब अपनी जगह से हट जाती है तब इंसान को कई तरह की परेशानियां जैसे पेट का दर्द, कब्ज, गैस, नाभि के आस-पास भंयकर दर्द होना आदि जैसी समस्याएं होने लगती हैं। नाभि कैसे सरकती है यह भी आपको जानना जरूरी है। नाभि सरकने का मुख्य कारण है किसी झटके के साथ कोई सामान उठाना या कोई भारी सामान उठाना आदि से नाभि अपनी जगह को छोड़ देती है। नाभि का अपनी जगह पर होना बहुत जरूरी होता है।

नाभि या पेट में टुंडी को दबाने से धड़कन सी दबने का अहसास होता है। इसके अलावा ये धड़कने पेट के बांई या दांई ओर होने लगती है। इस को ही नाभि टलना या नाभि का स्थान छोड़ना आदि कहा जाता है।

नाभि ठीक करने के उपाय:
सुबह खाली पेट सरसों के तेल की कुछ बूंदों को नाभि पर टपकाने से नाभि धीरे.धीरे वापस अपनी जगह पर आती है। या आप रूई को सरसों के तेल में भिगों लें और उसे नाभि के उपर रखें।

किसी छोटे कपड़े मे अदरक के रस को डालकर उस कपड़े को नाभि के उपर पंद्रह मिनट के बाद बदलते रहने से नाभि वापस अपने जगह पर बैठ जाती है। साथ इस समस्या से होने वाले दस्त व दर्द में आराम मिलता है।

आप पका हुआ टमाटर लें और उसे बीच में से चीर लें और इसमें भुना हुआ सुहागा की डे़ढ ग्राम की मात्रा को डालकर चूसने से नाभि वापस अपनी जगह पर आ जाती है।

यदि नाभि टल जाए तो चिंता ना करें गुड के साथ पिसी हुई दो चम्मच सौंफ को लगातार पांच दिनों तक खाएं। इस उपचार से नाभि अपनी जगह से खिसकनी बंद हो जाती है। और धीरे-धीरे वापस अपनी असल स्थिति में आ जाती है।

नाभि को सही जगह पर वापस लाने के लिए यदि नाभि दाहिनी तरफ चली गई हो तो र्बांइं ओर की पिंडली को दबाएं। और यदि नाभि बांई ओर चली गई हो तो दांई तरफ दबाने से नाभि वापस अपनी वास्तविक जगह पर आ जाती है।

नाभि बैठाने के बाद ध्यान में रखें ये बातें
एक चम्मच हल्दी के चूर्ण को 250 ग्राम दही के साथ मिलाकर कुछ दिनों तक लगातार खांए। इससे नाभि फिर अपना स्थान दोबारा नहीं छोड़ती है।

नमक को गुड़ के साथ मिलाकर खाने से नाभि अपने स्थान पर बनी रहती है।

नाभि का टलना कोई सामान्य समस्या नहीं है इस वजह से आपको कई तरह के नुकसान हो सकते हैं, इसके हट जाने से बहुत सी बीमारियां घेर लेती हैं, साथ ही कोई दवा काम नही करती।

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तुलसी

धार्मिक शास्त्रों में तुलसी को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। कहते हैं कि ये केवल हमारे लिए पूजनीय ही नहीं है बल्कि इसमें बहुत सारी बीमारियों का रामबाण इलाज भी है। तुलसी की जड़ से लेकर पत्तों में भी बहुत से गुण पाए जाते हैं। इसलिए हम लोग तुलसी की पूजा तो करते ही हैं, लेकिन इसके साथ-साथ पत्तों को औषधी के रूप में भी तोड़ा कर प्रयोग कर सकते हैं। लेकिन पत्ते तोड़ते समय कुछ बातों को ध्यान में रखने की जरूरत होती है। तो ऐसे में अगर आप इनसे जुड़ी कुछ बातों को नहीं जानते हैं, तो आज हम आपको इन्हें तोड़ने से पहले ध्यान में रखने वाली कुछ बातों के बारे में बताएंगे।

🤷🏻‍♀ दरअसल हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार तुलसी को देवी लक्ष्मी के रूप में पूजा जाता है। मान्यता है कि भगवान श्री हरि का पूजन तुलसी के बिना अधूरा माना जाता है। विष्णु से जुड़ी हर पूजा में तुलसी पत्र का प्रयोग अनिवार्य होता है।
📗 शास्त्रों के अनुसार रविवार के दिन तुलसी के पत्ते नहीं तोड़ने चाहिए। ऐसा करने पर आप पाप के भागीदार बनते हैं।
तुलसी जी को नाखूनों से कभी नहीं तोड़ना चाहिए, नाखूनों के तोड़ने से अपराध लगता है।
🌅 जब शाम हो जाए तो तुलसी जी को छूना वर्जित होता है। क्योंकि सायंकाल के बाद तुलसी जी लीला करने जाती है। इसलिए इस अपराध से बचना चाहिए। यदि शाम के समय तुलसी के पत्ते तोड़ना जरूरी हो तो पहले पौधे को हिलाना चाहिए।
अमावस्या, चतुर्दशी और द्वादशी के दिन तुलसी के पत्ते नहीं तोड़ने चाहिए।
📚 शास्त्रों में इस बात का प्रमाण है कि तुलसी जी वृक्ष नहीं है! साक्षात राधा जी का अवतार हैं। इसलिए प्रसाद स्वरूप अगर तुलसी मिल जाए तो उसे चबाकर नहीं खाना चाहिए।
🤴🏻 भगवान शिव ने शंखचूड़ का वध किया था जिस कारण कभी भी शिवलिंग पर तुलसी नहीं चढ़ानी चाहिए।
🌳 अगर घर में तुलसी का पौधा सूख जाता है तो उसे किसी पवित्र नदी, तालाब या कुएं में प्रवाहित कर देना चाहिए। तुलसी का मुरझाया पौधा रखना अशुभ माना जाता है।

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. ⚜❀┈┉☆…श्री हरि …☆┉┈​❀​​⚜

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फोड़ा या बालतोड़

फोड़ा या बालतोड़ तब होता है जब बालों की जड़ (hair follicle) में बैक्टीरिया का इन्फेक्शन हो जाता हैं। यह छोटी लाल रंग की फुंसी की तरह शुरू होता है और धीरे-धीरे बढ़ता चला जाता है। फोड़ा काफी दर्दनाक होते हैं और कभी-कभी इनके कारण बुखार भी हो जाता है।

बालतोड़ होते ही इसके बारे में हमें पता चल जाता है इसलिए इसका शुरुआत में ही इलाज करके इसको बढ़ने से रोका जा सकता है। ऐसे कई प्राकृतिक पदार्थ उपलब्ध हैं जिनके इस्तेमाल से फोड़े के दर्द को कम किया जा सकता है और इसके ठीक होने की प्रक्रिया को बढ़ाया जा सकता है। यह बालतोड़ के आसपास बैक्टीरिया के इन्फेक्शन को कम करके healing process को बढ़ा देते हैं।

फोड़े को जल्दी ठीक करने में 10 सबसे कारगर प्राकृतिक उपाय नीचे दिए गए हैं

1. नीम

नीम में antiseptic, anti-microbial और anti-bacterial properties मौजूद होती हैं जो फोड़ा को ठीक करने के साथ-साथ कई और skin problems से बचाती हैं।

नीम की पत्तियों को पीसकर पेस्ट बना लें इसे बालतोड़ पर लगा लें।

आप नीम की पत्तियों को पानी में उबालकर इस पानी से घाव को धो सकते हैं।

2. कलौंजी

कलौंजी किसी भी प्रकार के skin infection के लिए काफी प्रचलित औषधि है। इसमें मौजूद medical properties दर्द को भी कम करती हैं।

कलौंजी के कुछ बीजों को पीसकर पेस्ट बना लें। इसे affected area में लगा लें।

आप कलौंजी के तेल को भी बालतोड़ पर लगा सकते हैं।

एक चम्मच कलौंजी के तेल को एक कप hot या cold drink में मिलाएं। कुछ दिनों तक इसे रोज दिन में दो बार पियें।

3. Bread Poultice

Bread को दूध में भिगोकर पेस्ट बनाने को bread poultice कहते हैं। इस पेस्ट को बालतोड़ पर लगाकर कुछ समय के बाद धो लें।

यह बालतोड़ को जल्दी पका देगा और सूजन को कम कर देगा। इसमें मौजूद heat फोड़े में खून के प्रभाव को भी बड़ा देगी जिससे गर्मी आएंगे और यह जल्दी ठीक हो जायेगा। इस उपचार को रोज दो बार करें।

4. Tea Tree Oil

Tea tree oil में antibacterial, antifungal, और antiseptic properties होती हैं। इसके नियमित इस्तेमाल से healing process तेज हो जाती है और दर्द कम होता है।

साफ़ रुई को tea tree oil में भिगोकर बालतोड़ पर रख दें और ऊपर से कपड़ा बांध लें।

हर पांच घंटे में इस रुई को बदलते रहें।

Note – कुछ लोगों को tea tree oil से skin में irritation हो सकती है। इसलिए यदि आपको भी यह समस्या हो रही है तो इसका इस्तेमाल न करें। Tea tree oil का सेवन न करें।

5. हल्दी

एक चम्मच हल्दी के पाउडर को एक गिलास दूध में घोलकर उबाल लें। इस हल्दी के दूध को दिन में तीन-चार बाद सेवन करें।

हल्दी और अदरक को सामान मात्रा में मिलाकर पेस्ट तैयार करें। अब इस पेस्ट को अपने फोड़े पर लगा लें और ऊपर से कपड़ा बांध लें।

6. प्याज

प्याज में antiseptic chemicals होते हैं जो बालतोड़ पर एक प्रभावी रोगाणुरोधी के रूप में कार्य करते हैं।

प्याज के एक मोटे टुकड़े को काटकर फोड़े पर रखकर कपड़े से बांध लें।

प्याज को अपने भोजन में भी नियमित इस्तेमाल करते रहें।

7. लहसुन

लहसुन में मौजूद antibacterial, antimicrobial और anti-inflammatory properties बालतोड़ को ठीक करने में काफी फायदेमंद हैं।

लहसुन की तीन-चार कलियों को; पीसकर पेस्ट बना लें और फोड़ा पर लगा लें।

लहसुन की कली को गर्म करके घाव पर लगाने से भी फायदा होता है। रोज तीन-चार बार एक लहसुन की कली को गर्म करके लगायें।

रोज दो-तीन लहसुन की कलियों का सेवन भी करें।

8. दूध

सदियों से फोड़ों के इलाज में दूध का इस्तेमाल होता चा आ रहा है। यह घाव भरने की प्रक्रिया को तेज करता है और दर्द को कम करता है।

एक कप दूध और तीन चम्मच नमक को गर्म करके मिला लें। अब इस मिश्रण को गाड़ा करने के लिए थोड़ा सा आटा मिला लें। अब थोड़ा सा पेस्ट अपने फोड़े पर लगा लें। इसे दिन में चार-पांच बार करें।

आप दूध की क्रीम का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। एक चम्मच दूध की क्रीम को थोड़े से सिरका और हल्दी के साथ मिलाकर पेस्ट तैयार करें और फोड़े पर लगायें।

9. मक्का का आटा

मक्के का आटा फोड़े पर natural absorbent की तरह काम करता है इसलिए यह भी इसके इलाज में फायदेमंद है।

आधे कप पानी को गर्म करलें और फिर मक्के का आटा डालकर पेस्ट बना लें।

पेस्ट को फोड़े पर लगा लें और ऊपर से कपड़ा बांध लें।

इसे दिन में तीन-चार बाद करें।

10. Warm Washcloth Compress

Warm Washcloth Compress दर्द को कम करता है और खून के संचार को बढ़ाकर घाव भरने की प्रक्रिया को तेज करता है।

एक साफ सफेद कपड़े को गर्म पानी में भिगोयें और बालतोड़ पर 10 मिनट के लिए रख दें।

इस प्रक्रिया को दिन में चार-पांच करें।

इन प्राकृतिक उपायों को अपनाकर आपको बालतोड़ के दर्द में बहुत हद तक राहत मिलेगी और जल्दी भर जायेगा। लेकिन इन उपायों को नियमित रूप से अपनाना बेहद जरूरी।

वन्देमातरम !

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साखी – वायदा

🌹साखी 🌹

💐वायदा 💐

एक एयरलाइन में एक गुरसिख
नौजवान फर्स्ट क्लास सेक्शन में सफ़र कर
रहा था !
एयर होस्टेस उसके पास आई और उसने
complimentary ड्रिंक ऑफर किया
लेकिन चूँकि वो एल्केहोल ड्रिंक था
नौजवान सिख ने लेने से मना कर दिया
एयर होस्टेस लौट गयी लेकिन वो वापस
आई नया ड्रिंक लेकर कुछ अलग अंदाज़ से की
ड्रिंक ज्यादा अच्छा नज़र आये

लेकिन
नौजवान सिख ने विनम्रता से मना कर
दिया और बोला की वो एल्कोहोल नही
लेता ..
एयर होस्टेस को बड़ा अजीब लगा और वो
मेनेजर के पास गयी मेनेजर ने एक ड्रिंक
तैयार किया और उसे फूलों से सजा कर
नौजवान सिख के सामने पेश किया और
बोली की हमारी सर्विस में आपको कोई
कमी लगती हे कि जिस वजह से आप ड्रिंक
नही ले रहे ये एक complimentary ऑफर
हे!
नौजवान सिख ने जवाब दिया : मै सतगुरू का
बंदा हूँ तो में एल्कोहोल को छूता भी नही पीना तो बहुत दूर की बात हे …!
मेनेजर ने इसे अपना प्रेस्टीज पॉइंट बना
लिया और ड्रिंक लेने की जिद करने लगा !
तब सरदार नौजवान ने कहा की तुम पहले
पायलट को पिलाओ फिर में पियूँगा
..मेनेजर बोला की पायलट कैसे पी सकता
हे ?
वो On Duty हे और अगर उसने पी लिया
तो पूरे चांसेस हे की प्लेन क्रेश हो
जाएगा…!
नौजवान सिख की आँखे नम हो गयी ,वो
बोला : मैं भी हमेशा ड्यूटी पर हूँ
और मेरी डयूटी है कि मुझे अपने सतगुरु के वचनो की पालना करनी है
जैसे कि
तुम्हारे पायलट को हर हाल में विमान
बचाना है !
उसी तरह से मुझे मेरा ईमान बचाना हें और अपने सतगुरु से किया वायदा हमेशा याद रखना हें े…
और अपनी जिंदगी संवारनी है ….
🙏 …सदा सत्संग’, सेवा, एंव सिमरण की याद में रमे रहना ही सच्ची बन्दगी है
🙏🏻🙏🏻🙏🏻

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नानक दुखिया सब संसार

एक दिन एक छोटी सी लड़की अपने पिता को दुख व्यक्त करते-करते अपने जीवन को कोसते हुए यह बता रही थी कि उसका जीवन बहुत ही मुश्किल दौर से गुज़र रहा है।साथ ही उसके जीवन में एक दुख जाता है तो दूसरा चला आता है और वह इन मुश्किलों से लड़ लड़ कर अब थक चुकी है।वह करे तो क्या करे।उसके पिता प्रोफेशन से एक खानसामे (Chef) थे।अपनी बेटी के इन शब्दों को सुनने के बाद वह अपनी बेटी को रसोईघर ले गये और 3 अलग अलग कढाई में पानी डाल कर तेज आग पर रख दिया।जैसे ही पानी गरम हो कर उबलने लगा,पिता नें एक कढाई में एक आलू डाला,दुसरे में एक अंडा और तीसरी कड़ाई में कुछ कॉफ़ी बीन्स डाल दिए।

वह लड़की बिना कोई प्रश्न किये अपने पिता के इस काम को ध्यान से देख रही थी।कुछ 15-20 मिनट के बाद उन्होंने आग बंद कर दिया और एक कटोरे में आलू को रखा,दुसरे में अंडे को और कॉफ़ी बीन्स वाले पानी को कप में।पिता ने बेटी की तरफ उन तीनों कटोरों को एक साथ दिखाते हुए बेटी से कहा कि पास से देखो इन तीनों चीजों को–बेटी ने आलू को देखा जो उबलने के कारण मुलायम हो गया था।उसके बाद अंडा को देखा जो उबलने के बाद अन्दर से थोड़ा कठोर हो गया था और आखरी में जब कॉफ़ी बीन्स को देखा तो उस पानी से बहुत ही अच्छी खुशबु आ रही थी।पिता ने बेटी से पुछा ?क्या तुमको पता चला इसका मतलब क्या है ?तब उसके पिता ने समझाते हुए कहा इन तीनों चीजों ने जो मुश्किल झेली वह एक समान थी लेकिन तीनों के रिएक्शन अलग अलग हैं।हमारी ज़िन्दगी भी ऐसी ही है कष्ट और मुसीबतें हम सबको आती हैं लेकिन इन दुखों और कष्टों को सहने का रिएक्शन हम सबका अलग अलग होता है।कोई दुःख और तकलीफ देखकर इतना हताश और मायूस होकर इस उबले आलू की तरह नरम हो जाता है और अपने दुःखों और मुसीबतों का ढिंढोरा पीटना शुरू कर देता है।दूसरे वो होते हैं जो दुःख और मुसीबतों को भले ही किसी को नहीं बतायें लेकिन अंदर से इतने टूट जाते है जैसे उबले अंडे का हाल होता है।और तीसरे वो होते हैं जो दुखों और मुसीबतों से ना तो बाहर से घबराते हैं और ना ही अंदर से टूट कर उदास होते हैं। बल्कि ऐसे लोग दुखों और मुसीबतों को मालिक की मौज समझ कर बड़ी ख़ुशी से स्वीकार करते हैं।और ऐसे लोग मालिक से अपने दुःख की शिकायत नहीं करते बल्कि इन्हें सहने की शक्ति मांगते है।और ऐसे लोग ही दुःख और मुसीबतों में मुस्कुरा कर दूसरों के लिए सबक और मिसाल बन कर कॉफी बीन्स की तरह खुशबू फैलाते रहते हैं।इस कहानी से सीख लेते हुए हमें भी दुख और मुसीबत में ईश्वर को कोसना नहीं चाहिए बल्कि उस की रज़ा में राज़ी रह कर दुख की घड़ी में भी मुस्करा कर उस का सामना करना चाहिए और हर पल ईश्वर का शुकराना करना चाहिए !!🙏🙏

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मैं तुम्हारे आने वाले संकट रोक नहीं सकता, लेकिन तुम्हे इतनी शक्ति दे सकता हूँ कि तुम आसानी से उन्हें पार कर सको, तुम्हारी राह आसान कर सकता हूँ।

🙏🏻

एक औरत रोटी बनाते बनाते “ॐ भगवते वासूदेवाय नम: ” का जाप कर रही थी, अलग से पूजा का समय कहाँ निकाल पाती थी बेचारी, तो बस काम करते करते ही…।

एकाएक धड़ाम से जोरों की आवाज हुई और साथ मे दर्दनाक चीख। कलेजा धक से रह गया जब आंगन में दौड़ कर झांकी तो आठ साल का चुन्नू चित्त पड़ा था, खुन से लथपथ। मन हुआ दहाड़ मार कर रोये। परंतु घर मे उसके अलावा कोई था नही, रोकर भी किसे बुलाती, फिर चुन्नू को संभालना भी तो था। दौड़ कर नीचे गई तो देखा चुन्नू आधी बेहोशी में माँ माँ की रट लगाए हुए है।

अंदर की ममता ने आंखों से निकल कर अपनी मौजूदगी का अहसास करवाया। फिर 10 दिन पहले करवाये अपेंडिक्स के ऑपरेशन के बावजूद ना जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गयी कि चुन्नू को गोद मे उठा कर पड़ोस के नर्सिंग होम की ओर दौड़ी। रास्ते भर भगवान को जी भर कर कोसती रही, बड़बड़ाती रही, हे कन्हैया क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा, जो मेरे ही बच्चे को..।

खैर डॉक्टर सा. मिल गए और समय पर इलाज होने पर चुन्नू बिल्कुल ठीक हो गया। चोटें गहरी नही थी, ऊपरी थीं तो कोई खास परेशानी नही हुई।…

रात को घर पर जब सब टीवी देख रहे थे तब उस औरत का मन बेचैन था। भगवान से विरक्ति होने लगी थी। एक मां की ममता प्रभुसत्ता को चुनौती दे रही थी।

उसके दिमाग मे दिन की सारी घटना चलचित्र की तरह चलने लगी। कैसे चुन्नू आंगन में गिरा की एकाएक उसकी आत्मा सिहर उठी, कल ही तो पुराने चापाकल का पाइप का टुकड़ा आंगन से हटवाया है, ठीक उसी जगह था जहां चिंटू गिरा पड़ा था। अगर कल मिस्त्री न आया होता तो..? उसका हाथ अब अपने पेट की तरफ गया जहां टांके अभी हरे ही थे, ऑपरेशन के। आश्चर्य हुआ कि उसने 20-22 किलो के चुन्नू को उठाया कैसे, कैसे वो आधा किलोमीटर तक दौड़ती चली गयी? फूल सा हल्का लग रहा था चुन्नू। वैसे तो वो कपड़ों की बाल्टी तक छत पर नही ले जा पाती।

फिर उसे ख्याल आया कि डॉक्टर साहब तो 2 बजे तक ही रहते हैं और जब वो पहुंची तो साढ़े 3 बज रहे थे, उसके जाते ही तुरंत इलाज हुआ, मानो किसी ने उन्हें रोक रखा था।

उसका सर प्रभु चरणों मे श्रद्धा से झुक गया। अब वो सारा खेल समझ चुकी थी। मन ही मन प्रभु से अपने शब्दों के लिए क्षमा मांगी।

तभी टीवी पर ध्यान गया तो प्रवचन आ रहा था :— प्रभु कहते हैं, “मैं तुम्हारे आने वाले संकट रोक नहीं सकता, लेकिन तुम्हे इतनी शक्ति दे सकता हूँ कि तुम आसानी से उन्हें पार कर सको, तुम्हारी राह आसान कर सकता हूँ। बस धर्म के मार्ग पर चलते रहो।”

उस औरत ने घर के मंदिर में झांक कर देखा, कन्हैया मुस्कुरा रहे थे।

🙏🏻🙏🏻जय श्री कृष्णा… राधे राधे 🙏🏻🙏🏻

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एक चुप सौ सुख

एक मछलीमार काँटा डालकर तालाब के किनारे बैठा था ! काफी समय बाद भी कोई मछली काँटे में नहीं फँसी, ना ही कोई हलचल हुई , तो वह सोचने लगा… कहीं ऐसा तो नहीं कि मैंने काँटा गलत जगह डाला है, यहाँ कोई मछली ही न हो ! उसने तालाब में झाँका तो देखा कि उसके काँटे के आसपास तो बहुत-सी मछलियाँ थीं ! उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि इतनी मछलियाँ होने के बाद भी कोई मछली फँसी क्यों नहीं ?
एक राहगीर ने जब यह नजारा देखा , तो उससे कहा ~ लगता है भैया ! यहाँ पर मछली मारने बहुत दिनों बाद आए हो ! अब इस तालाब की मछलियाँ काँटे में नहीं फँसतीं मछलीमार ने हैरत से पूछा
क्यों … ऐसा क्या है यहाँ ?

राहगीर बोला ~ पिछले दिनों तालाब के किनारे एक बहुत बड़े संत ठहरे थे ! उन्होने यहाँ मौन की महत्ता पर प्रवचन दिया था ! उनकी वाणी में इतना तेज था कि जब वे प्रवचन देते तो सारी मछलियाँ भी बड़े ध्यान से सुनती !
यह उनके प्रवचनों का ही असर है , कि उसके बाद जब भी कोई इन्हें फँसाने के लिए काँटा डालकर बैठता है , तो ये मौन धारण कर लेती हैं !
जब मछली मुँह खोलेगी ही नहीं , तो काँटे में फँसेगी कैसे ? इसलिए … बेहतर यहीं होगा कि, आप कहीं और जाकर काँटा डालो ।
परमात्मा ने हर इंसान को दो आँख, दो कान, दो नासिका, हर इन्द्रिय दो-दो ही प्रदान करी हैं , लेकिन जिह्वा एक ही दी है !
क्या कारण रहा होगा ?
क्योंकि यह एक ही अनेकों भयंकर परिस्थितियाँ पैदा करने के लिये पर्याप्त है !
संत ने कितनी सही बात कही है , कि,
जब मुँह खोलोगे ही नहीं , तो फँसोगे कैसे ?
ऐसे ही, जो,
अगर इन्द्रिय पर संयम करना चाहते हैं , तो,इस जिह्वा पर नियंत्रण कर लो तो, बाकी सब इन्द्रियाँ स्वयं नियंत्रित रहेंगी !
यह बात हमें भी अपने जीवन में उतार लेनी चाहिए !

एक चुप सौ सुख और लगातार प्रभु मंत्र का जाप।

🌹🌷🌹🌻🌹🌷🌹🌻🌹🌷🌹

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अब यही है कर्म का सिद्धान्त

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आंख ने पेड़ पर फल देखा .. लालसा जगी..
आंख तो फल तोड़ नही सकती इसलिए पैर गए पेड़ के पास फल तोड़ने…🙏🏻..

पैर तो फल तोड़ नही सकते इसलिए हाथों ने फल तोड़े और मुंह ने फल खाएं और वो फल पेट में गए…🙏🏻

अब देखिए जिसने देखा वो गया नही, जो गया उसने तोड़ा नही, जिसने तोड़ा उसने खाया नही, जिसने खाया उसने रक्खा नहीं क्योंकि वो पेट में गया
अब जब माली ने देखा तो डंडे पड़े पीठ पर जिसकी कोई गलती नहीं थी ।..🙏🏻

लेकिन जब डंडे पड़े पीठ पर तो आंसू आये आंख में क्योंकि सबसे पहले फल देखा था आंख ने
अब यही है कर्म का सिद्धान्त
🙏🏻✍🏻🙏🏻

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भगवान् की Exchange offer

एक बार एक दुखी भक्त अपने ईश्वर से शिकायत कर रहा था। “आप मेरा ख्याल नहीं रखते ,मै आपका इतना बड़ा भक्त हूँ। आपकी सेवा करता हूँ।रात-दिन आपका स्मरण करता हूँ।फिर भी मेरी जिंदगी में ही सबसे ज्यादा दुःख क्यों?परेशानियों का अम्बार लगा हुआ है।एक ख़तम होती नहीं कि दूसरी मुसीबत तैयार रहती है।दूसरो कि तो आप सुनते हो।उन्हें तो हर ख़ुशी देते हो।देखो आप ने सभी को सारे सुख दिए हैं, मगर मेरे हिस्से में केवल दुःख ही दिए।

भगवान् उसे समझाते, “नहीं ऐसा नहीं है बेटा सबके अपने-अपने दुःख -परेशानिया है। अपने कर्मो के अनुसार हर एक को उसका फल प्राप्त होता है। यह मात्र तुम्हारी गलतफहमी है।

लेकिन नहीं। भक्त है कि सुनने को राजी ही नहीं।

आखिर अपने इस नादान भक्त को समझा -समझा कर थक चुके भगवान् ने एक उपाय निकाला वे बोले। “चलो ठीक है मै तुम्हे एक अवसर और देता हूँ, अपनी किस्मत बदलने का।

यह देखो यहाँ पर एक बड़ा सा , पुराना पेड़ है।इस पर सभी ने अपने -अपने दुःख-दर्द और तमाम परेशानियों,तकलीफे, दरिद्रता, बीमारियाँ तनाव, चिंता आदि सब एक पोटली में बाँध कर उस पेड़ पर लटका दिए है।

जिसे भी जो कुछ भी दुःख हो , वो वहा जाए और अपनी समस्त परेशानियों की पोटली बना कर उस पेड़ पर टांग देता है। तुम भी ऐसा ही करो , इस से तुम्हारी समस्या का हल हो जाएगा।

“भक्त तो खुशी के मारे उछल पडा।”धन्य है प्रभु जी आप तो। अभी जाता हूँ मै। ”

तभी प्रभु बोले, “लेकिन मेरी एक छोटी सी शर्त है।”

” कैसी शर्त भगवन ?”

“तुम जब अपने सारे दुखो की , परेशानियों की पोटली बना कर उस पर टांग चुके होंगे तब उस पेड़ पर पहले से लटकी हुई किसी भी पोटली को तुम्हे अपने साथ लेकर आना होगा। तुम्हारे लिए ..”

भक्त को थोड़ा अजीब लगा लेकिन उसने सोचा चलो ठीक है। फिर उसने अपनी सारी समस्याओं की एक पोटली बना कर पेड़ पर टांग दी।चलो एक काम तो हो गया अब मुझे जीवन में कोई चिंता नहीं। लेकिन प्रभु जी ने कहा था की एक पोटली जाते समय साथ ले जाना।

ठीक है। कौनसी वाली लू …यह छोटी वाली ठीक रहेगी। दुसरे ही क्षण उसे ख्याल आया मगर पता नहीं इसमे क्या है। चलो वो वाली ले लेता हूँ। अरे बाप रे! मगर इसमे कोई गंभीर बिमारी निकली तो। नहीं नहीं ..अच्छा यह वाली लेता हूँ। मगर पता नहीं यह किसकी है और इसमे क्या क्या दुःख है।”

हे भगवान् इतना कन्फ्यूजन।वो बहुत परेशान हो गया सच में ” बंद मुट्ठी लाख की ..खुल गयी तो ख़ाक की।

जब तक पता नहीं है की दूसरो की पोटलियों में क्या दुःख -परेशानियां ,चिंता मुसीबते है तब तक तो ठीक लग रहा था। मगर यदि इनमे अपने से भी ज्यादा दुःख निकले तो।

हे भगवान् कहाँ हो।

भगवान् तुरंत आ गए ” क्यों क्या हुआ पसंद आये वो उठा लो …” ” नहीं प्रभु क्षमा कर दो .. नादान था जो खुद को सबसे दुखी समझ रहा था ..यहाँ तो मेरे जैसे अनगिनत है , और मुझे यह भी नहीं पता की उनका दुःख -चिंता क्या है ….मुझे खुद की परेशानियों , समस्याए कम से कम मालुम तो है …, नहीं अब मै निराश नहीं होउंगा …सभी के अपने -अपने दुःख है , मै भी अपनी चिंताओं -परेशानियों का साहस से मुकाबला करूंगा , उनका सामना करूंगा न की उनसे भागूंगा .।

धन्यवाद प्रभु आप जब मेरे साथ है तो हर शक्ति मेरे साथ है।

भगवान् ने कहा यह एक्सचेंज ऑफर लौकिक नहीं। सदा के लिए सबके लिए खुली है।

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आत्मज्ञान

एक संत के पास एक याचक आया। याचक को किसी ने बता दिया था कि संत के पास पारसमणि है। पारसमणि, जिसमें लोहे से स्पर्श करते ही सोना बना देने की अद्भुत शक्ति थी।
याचक बोला, ‘‘सुना है, आपके पास लोहे को सोना बना देने वाली पारसमणि है ?’’
‘‘हाँ, तुमने ठीक सुना है।’’
‘‘फिर मुझे वह पारसमणि कुछ दिनों के लिए दे दीजिए। मैं उसका उपयोग करके आपको लौटा दूँगा।’’

‘‘ठीक है, तुम जब तक चाहो तब तक अपने पास उस पारसमणि को रख सकते हो।’’ संत ने कहा।

‘‘क्या मैं उस पारसमणि को सदैव अपने पास रख सकता हूँ ?’’
‘‘हाँ, रख सकते हो।’’

‘‘क्या आपका पारसमणि से कोई मोह नहीं है ?’’
‘‘पारसमणि से कैसा मोह ! मेरे पास संतोषरूपी पारसमणि है। इसके आगे संसार की सभी पारसमणियाँ बेकार हैं।’’
‘‘संतोषरूपी पारसमणि की क्या विशेषता है ?’’

‘‘संतोषरूपी पारसमणि से आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और आत्मज्ञान से बढ़कर संसार में कोई धन नहीं है। सोना बना देने वाली पारसमणि से सोना तो बन जाएगा, किंतु आत्मज्ञान सदा-सदा के लिए लुप्त हो जाएगा। आत्मज्ञान ईश्वर की ओर ले जाने वाला प्रकाश है। अब बताओ, तुम्हें कौन-सी पारसमणि चाहिए ?’’

सुनकर याचक का मन बदल गया। उसने आत्मज्ञानरूपी पारसमणि को चुन लिया। याचक धन्य हो गया और संत ने उसे अपना शिष्य बना लिया।

🌹🙏🏻🚩 जय सियाराम 🚩🙏🏻🌹

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बहुत ही सुंदर प्रसंग है ठाकुर जी का अवश्य पढे कैसे अपने भक्तो की परीक्षा लेते कभी राम बनकर कभी कृष्ण बनकर

एक बार की बात है – वृंदावन का एक साधू अयोध्या की गलियों में राधे कृष्ण – राधे कृष्ण जप रहा था । अयोध्या का एक साधू वहां से गुजरा तो राधे कृष्ण राधे कृष्ण सुनकर उस साधू को बोला – अरे जपना ही है तो सीता राम जपो, क्या उस टेढ़े का नाम जपते हो ?
वृन्दावन का साधू भड़क कर बोला – जरा जबान संभाल कर बात करो, हमारी जबान पान खिलाती हैं तो लात भी खिलाती है । तुमने मेरे इष्ट को टेढ़ा कैसे बोला ?
अयोध्या वाला साधू बोला इसमें गलत क्या है ? तुम्हारे कन्हैया तो हैं ही टेढ़े । कुछ भी लिख कर देख लो-
उनका नाम टेढ़ा – कृष्ण
उनका धाम टेढ़ा – वृन्दावन
 

वृन्दावन वाला साधू बोला चलो मान लिया, पर उनका काम भी टेढ़ा है और वो खुद भी टेढ़ा है, ये तुम कैसे कह रहे हो ?
अयोध्या वाला साधू बोला – अच्छा अब ये भी बताना पडेगा ? तो सुन –
यमुना में नहाती गोपियों के कपड़े चुराना, रास रचाना, माक्खन चुराना – ये कौन से सीधे लोगों के काम हैं ? और बता आज तक किसी ने उसे सीधे खडे देखा है क्या कभी ? ………
वृन्दावन के साधू को बड़ी बेईज्जती महसूस हुई , और सीधे जा पहुंचा बिहारी जी के मंदिर । अपना डंडा डोरिया पटक कर बोला – इतने साल तक खूब उल्लू बनाया लाला तुमने ।
ये लो अपनी लकुटी, कमरिया और पटक कर बोला ये अपनी सोटी भी संभालो । हम तो चले अयोध्या राम जी की शरण में ,और सब पटक कर साधू चल दिया।
अब बिहारी जी मंद मंद मुस्कुराते हुए उसके पीछे पीछे । साधू की बाँह पकड कर बोले अरे ” भई तुझे किसी ने गलत भड़का दिया है ”
पर साधू नही माना तो बोले, अच्छा जाना है तो तेरी मरजी , पर यह तो बता राम जी सीधे और मै टेढ़ा कैसे ? कहते हुए बिहारी जी कुए की तरफ नहाने चल दिये ।
वृन्दावन वाला साधू गुस्से से बोला –
” नाम आपका टेढ़ा- कृष्ण,
धाम आपका टेढ़ा- वृन्दावन,
काम तो सारे टेढ़े- कभी किसी के कपडे चुरा लिए ,कभी गोपियों के वस्त्र चुरा लिए और सीधे तुझे कभी किसी ने खड़े होते नहीं देखा। तेरा सीधा है क्या “।

अयोध्या वाले साधू से हुई सारी झैं झैं और बईज़्जती की सारी भड़ास निकाल दी।
बिहारी जी मुस्कुराते रहे और चुपके से अपनी बाल्टी कूँए में गिरा दी ।
फिर साधू से बोले अच्छा चले जाना पर जरा मदद तो कर जा, तनिक एक डंडी ला दे तो मैं अपनी बाल्टी निकाल लूं ।
साधू डंडी ला देता है और श्री कृष्ण सरिये से बाल्टी निकालने की कोशिश करने लगते हैं ।
साधू बोला इतनी अक्ल नही है क्या कि सीधे सरिये से भला बाल्टी कैसे निकलेगी ?
सरिये को तनिक टेढ़ा कर, फिर देख कैसे एक बार में बाल्टी निकल आएगी !
बिहारी जी मुस्कुराते रहे और बोले – जब सीधेपन से इस छोटे से कूंए से एक छोटी सी बाल्टी नहीं निकाल पा रहा, तो तुम्हें इतने बडे़ भवसागर से कैसे पार लगाउंगा !
अरे आज का इंसान तो इतने गहरे पापों के भवसागर में डूब चुका है कि इस से निकाल पाना मेरे जैसे टेढ़े के ही बस की बात है !
टेढ़े वृन्दावन बिहारी लाल की जय

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कहानी राजा भरथरी (भर्तृहरि) की पत्नी के धोखे से आहत होकर बन गए तपस्वी?

उज्जैन में भरथरी की गुफा स्थित है। इसके संबंध में यह माना जाता है कि यहां भरथरी ने तपस्या की थी। यह गुफा शहर से बाहर एक सुनसान इलाके में है। गुफा के पास ही शिप्रा नदी बह रही है।

गुफा के अंदर जाने का रास्ता काफी छोटा है। जब हम इस गुफा के अंदर जाते हैं तो सांस लेने में भी कठिनाई महसूस होती है। गुफा की ऊंचाई भी काफी कम है, अत: अंदर जाते समय काफी सावधानी रखनी होती है। यहाँ पर एक गुफा और है जो कि पहली गुफा से छोटी है। यह गोपीचन्द कि गुफा है जो कि भरथरी का भतीजा था।

यहां प्रकाश भी काफी कम है, अंदर रोशनी के लिए बल्ब लगे हुए हैं। इसके बावजूद गुफा में अंधेरा दिखाई देता है। यदि किसी व्यक्ति को डर लगता है तो उसे गुफा के अंदर अकेले जाने में भी डर लगेगा।

यहां की छत बड़े-बड़े पत्थरों के सहारे टिकी हुई है। गुफा के अंत में राजा भर्तृहरि की प्रतिमा है और उस प्रतिमा के पास ही एक और गुफा का रास्ता है। इस दूसरी गुफा के विषय में ऐसा माना जाता है कि यहां से चारों धामों का रास्ता है। गुफा में भर्तृहरि की प्रतिमा के सामने एक धुनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है।

गौर से देखने पर आपको गुफा के अंत में एक गुप्त रास्ता दिखाई देगा जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ से चारो धामों को रास्ता जाता है।

पत्नी के धोखे से आहत राजा भरथरी के साधू बनने कि कहानी :-

उज्जैन को उज्जयिनी के नाम से भी जाना जाता था। उज्जयिनी शहर के परम प्रतापी राजा हुए थे विक्रमादित्य। विक्रमादित्य के पिता महाराज गंधर्वसेन थे और उनकी दो पत्नियां थीं। एक पत्नी के पुत्र विक्रमादित्य और दूसरी पत्नी के पुत्र थे भर्तृहरि।

गंधर्वसेन के बाद उज्जैन का राजपाठ भर्तृहरि को प्राप्त हुआ, क्योंकि भरथरी विक्रमादित्य से बड़े थे। राजा भर्तृहरि धर्म और नीतिशास्त्र के ज्ञाता थे। प्रचलित कथाओं के अनुसार भरथरी की दो पत्नियां थीं, लेकिन फिर भी उन्होंने तीसरा विवाह किया पिंगला से। पिंगला बहुत सुंदर थीं और इसी वजह से भरथरी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित हो गए थे।

कथाओं के अनुसार भरथरी अपनी तीसरी पत्नी पिंगला पर काफी मोहित थे और वे उस पर अंधा विश्वास करते थे। राजा पत्नी मोह में अपने कर्तव्यों को भी भूल गए थे। उस समय उज्जैन में एक तपस्वी गुरु गोरखनाथ का आगमन हुआ।

गोरखनाथ राजा के दरबार में पहुंचे। भरथरी ने गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया। इससे तपस्वी गुरु अति प्रसन्न हुए। प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा एक फल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी।

यह चमत्कारी फल देकर गोरखनाथ वहां से चले गए। राजा ने फल लेकर सोचा कि उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या आवश्यकता है। चूंकि राजा अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे, अत: उन्होंने सोचा कि यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी।

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यह सोचकर राजा ने पिंगला को वह फल दे दिया। रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। यह बात राजा नहीं जानते थे। जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा।

रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया। वह कोतवाल एक वैश्या से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया। ताकि वैश्या सदैव जवान और सुंदर बनी रहे।

वैश्या ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी। इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेगा तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देता रहेगा। यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया। राजा वह फल देखकर हतप्रभ रह गए।

राजा ने वैश्या से पूछा कि यह फल उसे कहा से प्राप्त हुआ। वैश्या ने बताया कि यह फल उसे कोतवाल ने दिया है। भरथरी ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया है।

जब भरथरी को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गया कि पिंगला उसे धोखा दे रही है। पत्नी के धोखे से भरथरी के मन में वैराग्य जाग गया और वे अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में आ गए। इसी गुफा में भरथरी ने 12 वर्षों तक तपस्या की थी।

राजा भरथरी की कठोर तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए। इंद्र ने सोचा की भरथरी वरदान पाकर स्वर्ग पर आक्रमण करेंगे। यह सोचकर इंद्र ने भरथरी पर एक विशाल पत्थर गिरा दिया। तपस्या में बैठे भरथरी ने उस पत्थर को एक हाथ से रोक लिया और तपस्या में बैठे रहे।

इसी प्रकार कई वर्षों तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भरथरी के पंजे का निशान बन गया। यह निशान आज भी भरथरी की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है। यह पंजे का निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजा भरथरी की कद-काठी कितनी विशालकाय रही होगी।

भरथरी ने वैराग्य पर वैराग्य शतक की रचना की, जो कि काफी प्रसिद्ध है। इसके साथ ही भरथरी ने श्रृंगार शतक और नीति शतक की भी रचना की। यह तीनों ही शतक आज भी उपलब्ध हैं और पढ़ने योग्य है।

उज्जैन के राजा भरथरी के पास 365 पाकशास्त्री यानि रसोइए थे, जो राजा और उसके परिवार और अतिथियों के लिए भोजन बनाने के लिए। एक रसोइए को वर्ष में केवल एक ही बार भोजन बनाने का मोका मिलता था। लेकिन इस दौरान भरथरी जब गुरु गोरखनाथ जी के चरणों में चले गये तो भिक्षा मांगकर खाने लगे थे।

एक बार गुरु गोरखनाथजी ने अपने शिष्यों से कहा, ‘देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है।‘ शिष्यों ने कहा, ‘गुरुजी ! ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहां 365 तो बावर्ची रहते थे।

ऐसे भोग विलास के वातावरण में से आए हुए राजा और कैसे काम, क्रोध, लोभ रहित हो गए?’

गुरु गोरखनाथ जी ने राजा भरथरी से कहा, ‘भरथरी! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियां ले आओ।’ राजा भरथरी नंगे पैर गए, जंगल से लकड़ियां एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे।

गोरखनाथ जी ने दूसरे शिष्यों से कहा, ‘जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझ गिर जाए।‘ चेले गए और ऐसा धक्का मारा कि बोझ गिर गया और भरथरी गिर गए। भरथरी ने बोझ उठाया, लेकिन न चेहरे पर शिकन, न आंखों में आग के गोले, न होंठ फड़के। गुरु जी ने चेलों से क, ‘देखा! भरथरी ने क्रोध को जीत लिया है।’

शिष्य बोले, ‘गुरुजी! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए।’ थोड़ा सा आगे जाते ही गुरुजी ने योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ जी भरथरी को महल दिखा रहे थे। युवतियां नाना प्रकार के व्यंजन आदि से सेवक उनका आदर सत्कार करने लगे। भरथरी युवतियों को देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गए।

गोरखनाथजी ने शिष्यों को कहा, अब तो तुम लोगों को विश्वास हो ही गया है कि भरथरी े काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है।

शिष्यों ने कहा, गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिए। गोरखनाथजी ने कहा, अच्छा भरथरी हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना पड़ता है। जाओ, तुमको एक महीना मरुभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी।’

भरथरी अपने निर्दिष्ट मार्ग पर चल पड़े। पहाड़ी इलाका लांघते-लांघते राजस्थान की मरुभूमि में पहुंचे। धधकती बालू, कड़ाके की धूप मरुभूमि में पैर रखो तो बस जल जाए। एक दिन, दो दिन यात्रा करते-करते छः दिन बीत गए।

सातवें दिन गुरु गोरखनाथजी अदृश्य शक्ति से अपने प्रिय चेलों को भी साथ लेकर वहां पहुंचे। गोरखनाथ जी बोले, ‘देखो, यह भरथरी जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूं। वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा।’ अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते-चलते भरथरी का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े, मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो।

‘मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया? छायावाले वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया? गुरु जी की आज्ञा थी मरुभूमि में यात्रा करने की।’ कूदकर दूर हट गए। गुरु जी प्रसन्न हो गए कि देखो! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।’

गोरखनाथ जी दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए, लेकिन और शिष्यों के मन में ईर्ष्या थी। शिष्य बोले, ‘गुरुजी! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।’ गोरखनाथ जी (रूप बदल कर) भर्तृहरि से मिले और बोले, ‘जरा छाया का उपयोग कर लो।’ भरथरी बोले, ‘नहीं, मेरे गुरुजी की आज्ञा है कि नंगे पैर मरुभूमि में चलूं।’

गोरखनाथ जी ने सोचा, ‘अच्छा! कितना चलते हो देखते हैं।’ थोड़ा आगे गए तो गोरखनाथ जी ने योगबल से कांटे पैदा कर दिए। ऐसी कंटीली झाड़ी कि कंथा (फटे-पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र) फट गया। पैरों में शूल चुभने लगे, फिर भी भरथरी ने ‘आह’ तक नहीं की।

भरथरी तो और अंतर्मुख हो गए, ’यह सब सपना है, गुरु जी ने जो आदेश दिया है, वही तपस्या है। यह भी गुरुजी की कृपा है’।

अंतिम परीक्षा के लिए गुरु गोरखनाथ जी ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया। प्यास के मारे भरथरी के प्राण कंठ तक आ गये। तभी गोरखनाथ जी ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी।

एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरु आज्ञा भंग तो नहीं हो रही है। उनका इतना सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिए।

भरथरी ने दंडवत प्रणाम किया। गुरुजी बोले, ”शाबाश भरथरी, वर मांग लो। अष्टसिद्धि दे दूं, नवनिधि दे दूं। तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा दिए, युवतियां तुम्हारे चरण पखारने के लिए तैयार थीं, लेकिन तुम उनके चक्कर में नहीं आए। तुम्हें जो मांगना है, वो मांग लो।

भर्तृहरि बोले, ‘गुरुजी! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है। आप मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गए।’ गोरखनाथ बोले, ‘नहीं भरथरी! अनादर मत करो। तुम्हें कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ मांगना ही पड़ेगा।’ इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सूई दिखाई दी। उसे उठाकर भरथरी बोले, ‘गुरुजी! कंठा फट गया है, सूई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंठा सी लूं।’

गोरखनाथ जी और खुश हुए कि ’हद हो गई! कितना निरपेक्ष है, अष्टसिद्धि-नवनिधियां कुछ नहीं चाहिए। मैंने कहा कुछ मांगो, तो बोलता है कि सूई में जरा धागा डाल दो। गुरु का वचन रख लिया। कोई अपेक्षा नहीं? भर्तृहरि तुम धन्य हो गए! कहां उज्जयिनी का सम्राट नंगे पैर मरुभूमि में। एक महीना भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गए।’

‼जय सियाराम‼

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विक्रमादित्‍य और उनकी निडरता की कहानिया

उज्‍जैनी नगरी में एक निडर व साहसी युवक रहा करता था। उसे ज्ञात हुआ कि राज्‍य के राजा के नि:संतान मर जाने के कारण नए राजा की तलाश हो रही थी। उस युवक ने इस हेतु स्‍वयं का नाम प्रस्‍तावित करने की सोची। राज्‍य के मंत्रियों ने उसे बताया कि तुमसे पहले भी अनेक लोग इस हेतु आए हैं, परंतु किसी शापवश उनमें से प्रत्‍येक का निधन राज्‍याभिषेक की रात्रि में ही हो गया। जीवन सुरक्षित चाहते हो तो ऐसा न करो, युवक निडर था।

उसने बिना किसी भय के चुनौती स्‍वीकार कर ली। राज्‍याभिषेक होने के उपरांत उसने विचार किया कि अवश्‍य किसी देव या दानव का रोष इस राज्‍य पर रहा होगा, उसको संतुष्‍ट कर लेने से आगत समस्‍या से बचा जा सकता है। उसने रात्रि में अपने कक्ष में अनेक व्‍यंजन बनवाकर रखे और स्‍वयं एक कोने में तलवार लेकर बैठ गया। रात को देवराज इन्‍द्र का द्वारपाल, अग्निवेताल वहाँ आया और उन व्‍यंजनों को देखकर प्रसन्‍न हो गया। उन्‍हें ग्रहण करके वह बोला – ‘’राजन। यदि तुम नित्‍य ऎसे व्‍यंजनों का प्रबंध करो तो मैं तुम्‍हें अभयदान दूँगा।‘’

राजा ने उसका प्रस्‍ताव स्‍वीकार कर लिया और उससे कहा- ‘’तुम देवराज इन्‍द्र से यहपूछकर के बताओ कि मेरी उम्र कितनी है?’’

अगले दिन अग्निवेताल ने उसे बताया – ‘’उसकी उम्र सौ वर्ष है।‘’

यह सुनते ही राजा ने तलवार अग्निवेताल की गर्दन पर रख दी और कहा-‘’इसका अर्थ है कि तुम मेरा अंत सौ वर्ष के पहले नहीं कर सकते।‘’ अग्निवेताल रााजा की बुद्धिमत्‍ता व निडरता से अत्‍यंत प्रसन्‍न हुआ और उन्‍हे अक्षुण्‍ण राज्‍य का वरदान दिया। वह राजा ही आगे चलकर महाराज विक्रमादित्‍य के नाम से जाने गए।

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हर दिन इसी इस मंदिर में आता हूँ, कभी किसी ने नहीं पूछा

एक पाँच छ: साल का मासूम सा बच्चा अपनी छोटी बहन को लेकर मंदिर के एक तरफ कोने में बैठा हाथ जोडकर भगवान से न जाने क्या मांग रहा था ।

कपड़े में मैल लगा हुआ था मगर निहायत साफ, उसके नन्हे नन्हे से गाल आँसूओं से भीग चुके थे ।

बहुत लोग उसकी तरफ आकर्षित थे और वह बिल्कुल अनजान अपने भगवान से बातों में लगा हुआ था ।

जैसे ही वह उठा एक अजनबी ने बढ़ के उसका नन्हा सा हाथ पकड़ा और पूछा : –
“क्या मांगा भगवान से”
उसने कहा : –
“मेरे पापा मर गए हैं उनके लिए स्वर्ग,
मेरी माँ रोती रहती है उनके लिए सब्र,
मेरी बहन माँ से कपडे सामान मांगती है उसके लिए पैसे”..

“तुम स्कूल जाते हो”..?
अजनबी का सवाल स्वाभाविक सा सवाल था ।

हां जाता हूं, उसने कहा ।

किस क्लास में पढ़ते हो ? अजनबी ने पूछा

नहीं अंकल पढ़ने नहीं जाता, मां चने बना देती है वह स्कूल के बच्चों को बेचता हूँ ।
बहुत सारे बच्चे मुझसे चने खरीदते हैं, हमारा यही काम धंधा है ।
बच्चे का एक एक शब्द मेरी रूह में उतर रहा था ।

“तुम्हारा कोई रिश्तेदार”
न चाहते हुए भी अजनबी बच्चे से पूछ बैठा ।

पता नहीं, माँ कहती है गरीब का कोई रिश्तेदार नहीं होता,
माँ झूठ नहीं बोलती,
पर अंकल,
मुझे लगता है मेरी माँ कभी कभी झूठ बोलती है,
जब हम खाना खाते हैं हमें देखती रहती है ।
जब कहता हूँ
माँ तुम भी खाओ, तो कहती है मैने खा लिया था, उस समय लगता है झूठ बोलती है ।

बेटा अगर तुम्हारे घर का खर्च मिल जाय तो पढाई करोगे ?
“बिल्कुलु नहीं”

“क्यों”
पढ़ाई करने वाले, गरीबों से नफरत करते हैं अंकल,
हमें किसी पढ़े हुए ने कभी नहीं पूछा – पास से गुजर जाते हैं ।

अजनबी हैरान भी था और शर्मिंदा भी ।

फिर उसने कहा
“हर दिन इसी इस मंदिर में आता हूँ,
कभी किसी ने नहीं पूछा – यहाँ सब आने वाले मेरे पिताजी को जानते थे – मगर हमें कोई नहीं जानता ।

“बच्चा जोर-जोर से रोने लगा”

अंकल जब बाप मर जाता है तो सब अजनबी क्यों हो जाते हैं ?

मेरे पास इसका कोई जवाब नही था…

ऐसे कितने मासूम होंगे जो हसरतों से घायल हैं ।
बस एक कोशिश कीजिये और अपने आसपास ऐसे ज़रूरतमंद यतीमों, बेसहाराओ को ढूंढिये और उनकी मदद किजिए …………………….

मंदिर मे सीमेंट या अन्न की बोरी देने से पहले अपने आस – पास किसी गरीब को देख लेना शायद उसको आटे की बोरी की ज्यादा जरुरत हो ।

आपको पसंद आऐ तो सब काम छोडके ये मेसेज कम से कम एक या दो गुरुप मे जरुर डाले ।
कहीं गुरुप मे ऐसा देवता ईन्सान मिल जाऐ ।
कहीं एसे बच्चो को अपना भगवान मील जाए ।
कुछ समय के लिए एक गरीब बेसहारा की आँख मे आँख डालकर देखे, आपको क्या महसूस होता है ।

फोटो या विडीयो भेजने कि जगह ये मेसेज कम से कम एक गुरुप मे जरुर डाले ।

स्वयं में व समाज में बदलाव लाने के प्रयास जारी रखें ।😢😢😢

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एक संत को सुबह-सुबह सपना आया। सपने में सब तीर्थों में चर्चा चल रही थी की कि इस कुंभ के मेले में सबसे अधिक किसने पुण्य अर्जित किया।

🌹 कहानी बहुत ही अच्छी है 🌹

एक संत को सुबह-सुबह सपना आया। सपने में सब तीर्थों में चर्चा चल रही थी की कि इस कुंभ के मेले में सबसे अधिक किसने पुण्य अर्जित किया।

श्री प्रयागराज ने कहा कि ” सबसे अधिक पुण्य तो रामू मोची को ही मिला हैं।”

गंगा मैया ने कहाः ” लेकिन रामू मोची तो गंगा में स्नान करने ही नहीं आया था।”
देवप्रयाग जी ने कहाः ” हाँ वो यहाँ भी नहीं आया था।”
रूद्रप्रयाग ने भी बोला “हाँ इधर भी नहीं आया था।”

फिर प्रयागराज ने कहाः ” लेकिन फिर भी इस कुंभ के मेले में जो कुंभ का स्नान हैं उसमे सबसे अधिक पुण्य रामू मोची को मिला हैं।

सब तीर्थों ने प्रयागराज से पूछा
“रामू मोची किधर रहता हैं और वो क्या करता हैं?

श्री प्रयागराजजी ने कहाः “वह रामू मोची जूता की सिलाई करता हैं और केरल प्रदेश के दीवा गाँव में रहता हैं।”

इतना स्वप्न देखकर वो संत नींद से जाग गए। और मन ही मन सोचने लगे कि क्या ये भ्रांति है या फिर सत्य हैं!

सुबह प्रभात में सपना अधिकतर सच्चे ही होते हैं। इसलिए उन्ह संत ने इसकी खोजबीन करनी की सोची।
जो जीवन्मुक्त संत महापुरूष होते हैं वो निश्चय के बड़े ही पक्के होते है,

और फिर वो संत चल पड़े केरल दिशा की ओर। स्वंप्न को याद करते और किसी किसी को पूछते – पूछते वो दीवा गाँव में पहुँच ही गये। जब गावं में उन्होंने रामू मोची के बारे में पूछा तो, उनको रामू मोची मिल ही गया। संत के सपने की बात सत्य निकली।

वो संत उस रामू मोची से मिलने गए। वह रामू मोची संत को देखकर बहुत ही भावविभोर हो गया और कहा

“महाराज! आप मेरे घर पर? मै जाति तो से चमार हूँ, हमसे तो लोग दूर दूर रहते हैं, और आप संत होकर मेरे घर आये। मेरा काम तो चमड़े का धन्धा हैं।

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मै वर्ण से शूद्र हूँ। अब तो उम्र से भी लाचार हो गया हूँ। बुद्धि और विद्धा से अनपढ़ हूँ मेरा सौभाग्य हैं की आप मेरे घर पधारे.”

संत ने कहा “हाँ” मुझे एक स्वप्न आया था उसी कारण मै यहाँ आया और संत तो सबमे उसी प्रभु को देखते हैं इसलिए हमें किसी भी प्रकार की कोई परेशानी नहीं हैं किसी की घर जाने में और मिलने में।

संत ने कहा आपसे से एक प्रश्न था की “आप कभी कुम्भ मेले में गए हो”? और इतना सारा पुण्य आपको कैसे मिला?

वह रामू मोची बोला ” नहीं महाराज! मै कभी भी कुंभ के मेले में नहीं गया, पर जाने की बहुत लालसा थी इसलिए मै अपनी आमदनी से रोज कुछ बचत कर रहा था।

इस प्रकार महीने में करीब कुछ रूपया इकट्ठा हो जाता था और बारह महीने में कुम्भ जाने लायक और उधर रहने खाने पीने लायक रूपये हो गए थे।

जैसे ही मेरे पास कुम्भ जाने लायक पैसे हुए मुझे कुम्भ मेले का शुरू होने का इंतज़ार होने लगा और मै बहुत ही प्रसन्न था की मै कुंभ के मेले में गंगाजी स्नान करूँगा.

लेकिन उस समय मेरी पत्नी माँ बनने वाली थी। अभी कुछ ही समय पहले की बात हैं।

एक दिन मेरी पत्नी को पड़ोस के किसी घर से मेथी की सब्जी की सुगन्ध आ गयी। और उसने वह सब्जी खाने की इच्छा प्रकट की। मैंने बड़े लोगो से सुना था कि गर्भवती स्त्री की इच्छा को पूरा कर देना चाहिए। मै सब्जी मांगने उनके घर चला गया और उनसे कहा

“बहनजी, क्या आप थोड़ी सी सब्जी मुझको दे सकते हो। मेरी पत्नी गर्भवती हैं और उसको खाने की इच्छा हो रही हैं।
“हाँ रामू भैया! हमने मेथी की सब्जी तो बना रखी हैं”

वह बहन हिचकिचाने लग गई। और फिर उसने जो कहा उसको सुनकर मै हैरान रह गया ” मै आपको ये सब्जी नहीं दे सकती क्योंकि आपको देने लायक नहीं हैं।”

“क्यों बहन जी?”
“आपको तो पता हैं हम बहुत ही गरीब हैं और हमने पिछले दो दिन से कुछ भी नहीं खाया। भोजन की कोई व्यवस्था नही हो पा रही थी। आपके जो ये भैया वो काफी परेशान हो गए थे।
मसबसे कर्जा भी ले लिया था। उनको जब कोई उपाय नहीं मिला तो भोजन के लिए घूमते – घूमते शमशान की ओर चले गए। उधर किसी ने मृत्य की बाद अपने पितरों के निमित्त ये सब्जी रखी हुई थी।

ये वहां से छिप – छिपाकर गए और उधर से ये सब्जी लेकर आ गए। अब आप ही कहो मै किसी प्रकार ये अशुद्ध और अपवित्र सब्जी दे दूं?”

उस रामू मोची ने फिर बड़े ही भावबिभोर होकर कहा “यह सब सुनकर मुझको बहुत ही दुःख हुआ कि इस संसार में केवल मै ही गरीब नहीं हूँ, जो टका-टका जोड़कर कुम्भ मेले में जाने को कठिन समझ रहा था।

जो लोग अच्छे कपडे में दिखते है वो भी अपनी मुसीबत से जूझ रहे हैं और किसी से कह भी नहीं सकते, और इस प्रकार के दिन भी देखने को मिलता हैं

और खुद और बीबी बच्चो को इतने दिन भूख से तड़फते रहते हैं! मुझे बहुत ही दुःख हुआ की हमारे पड़ोस में ऐसे लोग भी रहते हैं, और मै टका-टका बचाकर गंगा स्नान करने जा रहा हूँ ?

उनकी सेवा करना ही मेरा कुम्भ मेले जाना हैं। मैंने जो कुम्भ मेले में जाने के लिए रूपये इकट्ठे किये हुए थे वो घर से निकाल कर ले आया। और सारे पैसे उस बहन के हाथ में रख दिए।
उस दिन मेरा जो ये हृदय है बहुत ही सन्तुष्ट हो गया।
प्रभु जी! उस दिन से मेरे हृदय में आनंद और शांति आने लगी।”
वो संत बोलेः ” हाँ इसलिए जो मैने सपना देखा, उसमें सभी तीर्थ मिलकर आपकी प्रशंसा कर रहे थे।”

इसलिए संतो ने सही कहा
“वैष्णव जन तो तेने रे कहीए जे पीड़ पराई जाणे रे।
पर दुःखे उपकार करे तोये मन अभिमान न आणे रे 🌹🙏

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पापी मौज में, पुण्यात्मा कष्ट में, ये कैसा न्याय! ईश्वर हैं भी या नहीं!

आपके मन में कभी भी ऐसे प्रश्न आते हैं क्या- मैं तो इतनी पूजा-पाठ, भक्ति भाव में लीन हूं फिर भी मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है? भगवान सारी परेशानियां मुझे ही क्यों देते हैं? दुष्ट लोग इतने सुखी हैं और धर्मात्मा ही सारे कष्ट भोग रहे हैं. ये क्या हो रहा है, क्यो हो रहा है?

यदि ऐसा ही ईश्वर का सिस्टम तो मैं क्यों मानूं उन्हें, क्यों भजूं, क्यों जपूं, क्यों करूं पूजा? ईश्वर के पास तो न्याय है ही नहीं, ईश्वर तो निष्ठुर हैं. पत्थर की मूर्तियों में बसके पत्थर हो गए हैं…. आदि, आदि…

ऐसे प्रश्न अक्सर लोगों के मन में आते हैं खासकर तब जब वे बहुत परेशान होते हैं और दूसरों को सुखी देखते हैं. मनुष्य अपने सुख से ही संसार को सुखी मानता है, अपने दुख से ही संसार को व्यर्थ. यह सब स्वाभाविक है. तो आपके मन में जो प्रश्न आते हैं आज उनके निदान का कुछ प्रयास किया जाए. ध्यान से पढ़िएगा.

बहूदक नामक का एक तीर्थ था. यहां नन्दभद्र वैश्य रहते थे. धर्माचारी, सदाचारी पुरूष. उनकी साध्वी पत्नी का नाम कनका था. नंदभद्र चंद्रमौलि भगवान् शंकर के बड़े भक्त थे.

बहुदक में कपिलेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध शिवलिंग था. नंदभद्र तीनों समय कपिलेश्वर की पूजा किया करते थे. नंदभद्र कम से कम लाभ लेकर माल बेचा करते थे और ग्राहकों के साथ बराबरी और ईमानदारी का व्यवहार रखते.

गलत माल और बुरा सामान नहीं बेचते और जो कुछ मिल जाता उसी में संतुष्ट रहते थे. नंदभद्र का जीवन संन्यासियों जैसा था, सब नंदभद्र का सदाचारी, सम्पन्न, सुखमय जीवन की प्रशंसा करते.

नंदभद्र के पड़ोस में रहने वाला सत्यव्रत जो बड़ा ही नास्तिक एवं दुराचारी था, उनसे जलता था. सत्यव्रत चाहता था कि किसी प्रकार नंदभद्र का कोई दोष दिख जाए तो उसे धर्म के मार्ग से गिरा दूं.

नंदभद्र पर झूठे आरोप लगाना और सदा उनके दोष ही ढ़ूंढते रहना उसका स्वभाव बन गया था. दुर्भाग्यवश अचानक नंदभद्र का इकलौता पुत्र गम्भीर रूप से बीमार हो गया. नंदभद्र ने दुर्भाग्य मान शोक नहीं किया.

पुत्र के बाद उनकी पत्नी कनका भी गंभीर रूप से बीमार हो गयी. नंदभद्र पर विपतियां आयी देखकर उनके पड़ोसी सत्यव्रत को बड़ी खुशी हुई. उसने सोचा कि शायद नंदभद्र को धर्म से भटकाने का यही अवसर है.

उसने नन्दभद्र को सांत्वना देने का ढोंग करते हुए कहा- तुम्हारे जैसे धर्मात्मा को यह दु:ख उठाना पड़ रहा है. लगता है कि धर्म कर्म सब ढकोसला है. कई बार सोचा कि मैं तुमसे कहूं पर संकोचवश कहा नहीं.

दिन में तीन बार पूजा, स्तुति सब व्यर्थ है. भैया नंदभद्र! धर्म के नाम पर क्यों इतना कष्ट उठाते हो? जब से तुम इस पत्थर-पूजन में लगे हो, तब से कोई अच्छा फल तो मिला नहीं इकलौता पुत्र और पत्नी दोनों बीमार हैं. भगवान् होते तो क्या ऐसा फल देते?

पुण्य और पाप सब कुछ कल्पना है. नंदभद्र! तुम्हें तो मेरी यही सलाह होगी की झूठे धर्म को छोड़ आनंदपूर्वक खाओ, पीओ और भोगो, यही सत्य है.

सत्यव्रत की बातों का नंददभद्र पर कोई प्रभाव न पड़ा.

वह बोले-सत्यव्रतजी! आप अपने आप को ही धोखा दे रहे हैं. क्या पापियों पर दु:ख नहीं आते? क्या उनके पुत्र, स्त्री बीमार नहीं होते? जब सज्जन दु:खी होता है, तो लोग सहानुभूति जताते हैं. पर दुराचारी के दुःख पर कोई सहानुभूति नहीं दिखाता. अत: धर्म पालन करने वाला ही ठीक है. अंधा सूर्य को नहीं जानता, पर सूर्य तो है. ईश्वर के बिना संसार का संचालन नहीं हो सकता.

सत्यव्रत ने उसे टोक कर पूछा- देवता हैं तो दिखायी क्यों नहीं देते?

नंदभद्र ने कहा- देवता आपके पास आकर याचना नहीं करेंगे कि हमें आप मानिए. बातचीत बहस में बदलने लगी.

नंदभद्र अधिक विवाद नहीं चाहते थे, उठकर चले गये. पर उनके मन में यह विचार आया कि भगवान् सदाशिव का साक्षात् दर्शन करके पूछूं- आप आपके बनाये संसार सुख-दु:ख, जन्म-मरण आदि क्लेश क्यों है? यह दोषरहित क्यों नहीं है.

नंदभद्र शिवमंदिर आये. कपिलेश्वर लिंग की पूजा भगवान के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे. सोच लिया कि जब तक भोलेनाथ दर्शन नहीं देंगे, तब तक मैं ऐसे ही खड़ा रहूँगा. लगातार तीन दिन और तीन रात नंदभद्र वैसे ही खड़े रहे.

चौथे दिन एक बालक उस मंदिर में आया. वह गलितकुष्ठ का रोगी भयानक पीड़ा से कराह रहा था.

उसने नंदभद्र से पूछा- आप इतने सुंदर एवं स्वस्थ हैं, फिर भी आप दुःखी क्यों लग रहे है?

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नंदभद्र ने अपना संकल्प उसे बताया.

बालक ने कहा- अनचाहे का मिलना और मनचाहे का बिछुड़ना, इससे मानसिक कष्ट होता है. रोग और परिश्रम से शरीर को कष्ट होता है. मानसिक कष्ट से शारीरिक कष्ट की शुरूआत होती है. यदि शरीर में कष्ट हो तो मानसिक कष्ट होना स्वाभाविक ही है. दोनों एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं.

फिर क्या किया जाए?- नंदभद्र ने पूछा

बंधुवर औषधि से शारीरिक कष्ट दूर होते हैं पर मानसिक कष्ट तो ज्ञान से ही दूर होता है. मस्तिष्क को यदि ज्ञान की सही खुराक दी जाए तो वह कष्ट मुक्त हो जाता है.

बालक से ज्ञान भरी बात सुनकर नंदभद्र ने फिर पूछा- ज्ञानी बालक! आपकी बात से सहमत हूं, पर एक प्रश्न है. इस लोक में पापी मनुष्य भी इतने धनी और सुखी क्यों होते हैं? जबकि उन्हें तो उनके कर्मों के कारण कष्ट में होना चाहिए था, भगवान के विधान में यह दोष क्यों?

बालक ने कहा- सुख और दुख किसे कहते हैं यह समझ का फेर है. मैं आपको थोड़ा विस्तार से बताता हूं.

संसार में चार प्रकार के लोग हैं. पहले वे जिनके लिए इस लोक में तो सारे सुख सुलभ हैं, धन-दौलत, सत्ता, प्रभाव, बाहुबल सब कुछ परंतु परलोक में उन्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होता. उनके पूर्वजन्मों के जो पुण्य शेष हैं, उसे वह इस लोक में भोग रहे हैं लेकिन वे नए पुण्य नहीं कमाते. ऐसे लोगों का सुखभोग केवल इसी लोक तक है. अगले जन्म के लिए वे कुछ शेष छोड़कर नहीं जा रहे तो उनका अगला जन्म बिल्कुल उसी रूप में होगा जिसे देखकर आज वे कांपने लगें.

दूसरे, वे लोग हैं जिनके लिए परलोक में सुख का भोग सुलभ है परंतु इस लोक में नहीं क्योंकि उनके पिछले जन्म के संचित पुण्य हैं ही नहीं. वे तपस्या करके नए पुण्य कमाते हैं. उससे परलोक में सुख का भोग प्राप्त होगा. तपस्या से अर्थ केवल देव साधना ही नहीं होता, कर्म साधना भी तप है. उचित कर्म किसी भी तप से कम नहीं क्योंकि इस संसार में रहते हुए सही मार्ग पर चलना कठोर साधना से ज्यादा कठिन है.

तीसरे, वे लोग हैं जिनके लिए इस लोक में भी और परलोक में भी सुख भोग मिलता है क्योंकि उसका पहले का किया हुआ पुण्य भी विद्यमान है और इस लोक में आकर भी वे उत्तम मार्ग का अनुसरण करते हुए कर्मतप से नये पुण्य बनाते रहते हैं. ऐसे लोग कोई-कोई ही होते हैं.

चौथे, वे जिनके लिए न तो इहलोक में सुख है और न परलोक में ही क्योंकि उनके पास पहले का कोई पुण्य संचित तो है नहीं और इस लोक में भी वे पुण्य कमा नहीं रहे. ऐसे नीच जनों को धिक्कार है. वे सर्वदा त्याग के योग्य हैं और इस लोक में अपमानित होते हुए ही जीवन बिताते हैं और न जाने कितने जीवन ऐसे ही बीतेंगे तब तक जब तक कि मेरी तरह उन्हें किसी तपस्वी का मार्गदर्शन न प्राप्त हो जाए.

इसलिए हे वैश्यवर! आप अपने पड़ोसियों, मित्रों द्वारा कही बात को मन में रखो ही नहीं. उन्हें तो अपने कान में भी प्रवेश न करने दो. आप इस जन्म में भगवान सदाशिव के भजन में लग जाएं जिससे आप जन्म के बंधन से ही मुक्त हो सकते हैं.

एक छोटे बालक के मुख से ऐसी ज्ञानमयी और रहस्यपूर्ण बातें सुनकर नंदभद्र बड़े प्रसन्न हुए. उनका सारा भ्रम सारी शंका का निवारण हो चुका था.

उन्होंने चकित होकर पूछा – आप कौन हैं, अपना परिचय दें. आप यहां कैसे पधारे है? आपने मेरे सब संदेहों को दूर कर दिया. इतनी कम आयु में इतना ज्ञान आपको कैसे सुलभ हुआ?

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बालक ने कहा- पूर्वजन्म में मैं अहंकारी, पाखण्ड़ी, व्याभिचारी था. जिसके चलते मैं वर्षो से नीच योनियों में भटका. भगवान व्यासदेव की ऐसी कृपा कि वे हर योनि में मुझे मुक्तिमार्ग बता देते हैं. उन्होंने ही मुझे आपके पास भेजा है. अब मैं सात दिन के बाद इसी तीर्थ में मरुंगा. आप मेरा अन्तिम संस्कार कर दीजिएगा.

वैश्यवर! ज्ञान का आयु से कोई संबंध नहीं है. ईश्वर को जिसे ज्ञान प्रदान करना होता है, जिसे माध्यम बनाकर उसे अपने भक्तों को जाग्रत करना होता है उसे चुन लेते हैं. वह कोई भी हो सकता है. मेरे जैसा कुष्ठ पीड़ित जीव भी. अतः सहज भाव से स्वीकार करना चाहिए और ज्ञान जिससे भी मिले उसके प्रति विनीत रहना चाहिए. ऐसा करने से ईश्वर सदा आपको ज्ञानवान बनाए रखते हैं, किसी न किसी को भेजते रहते हैं.

इतना बताकर उस बालक ने सूर्य मंत्र का जप करना आरंभ किया. कुष्ठ के निवारण के लिए सूर्यमंत्र का जप ही किया जाता है. भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र सांब ने भी सूर्य की उपासना से कोढ़ से मुक्ति पाई थी.

सातवें दिन उस बालक ने अपने प्राण त्याग दिए. नंदभद्र ने विधिपूर्वक उसका अन्तिम संस्कार किया.

नंदभद्र को जीवन की सचाई और सार्थकता का बोध हो गया था. शेष जीवन उन्होने भगवान् शिव और सूर्य की उपासना में लगा दिया तथा अन्त में जीवन मरण से मुक्ति पाकर भगवान शिव का साक्षात प्राप्त किया. (स्कन्दपुराण की कथा)

स्कंद पुराण की इस कथा से आपके मन के बहुत से भ्रम दूर हुए होंगे ऐसी ही आशा है. आपको जीवन में क्या मार्ग अपनाए रखना है इसका भी संकेत मिला होगा. पुराणों की कथाओं में जीवन के अनमोल रहस्य सांकेतिक रूप से दिए गए हैं. प्रभु शरणम् के माध्यम से मैं वहीं प्रयास करता हूं कि कथा से ज्यादा कथ्य यानी

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जैसी करनी – वैसा फल,आज नहीं तो – निश्चय कल

भले बनो और भला ही करो; पीछे जो हुआ सो हुआ अब आगे का ध्यान रखो ! हमारा एक पुण्य कर्म हमारे अनंत जन्मों के पापों को मिटा सकता है, तो एक दुष्कर्म न जाने कितने ही दुःखमय जन्म लेने का कारण बन सकता है !

एक गाँव के एक जमींदार ठाकुर बहुत वर्षों से बीमार थे । कोई डॉक्टर कोई वैद्य नहीं छोड़ा कोई टोने-टोटके करने वाला नहीं छोड़ा लेकिन कहीं से भी आराम नहीं आया !

एक दिन एक संत गाँव में आये उनके दर्शनार्थ ठाकुर भी वहाँ गये प्रणाम किया, कहा – बाबा मै जमींदार हूँ.. गाँव का इतने बीघे जमीन है.. इतना सब कुछ होने के बावजूद मुझे असाध्य रोग है, जो कहीं से भी ठीक नहीं होता ! बाबा ने पूछा – क्या रोग है आपको ? कहता है – बाबा मुझे पेट मे असहनीय दर्द होता है, खाना पचता नहीं है, दिल में इतना दर्द होता है, जो कि बर्दाश्त नहीं होता । ऐसी अवस्था में ऐसा लगता है, जैसे मेरे प्राण ही निकल जायेंगे !

बाबा ने आँख बंद कर ली शांत बैठ गये। थोड़ी देर बाद बोले – बुरा तो नहीं मानोगे एक बात पूछूँ ?

ठाकुर – नहीं महाराज, पूछिये !

बाबा- किसी का इतना दिल तो नहीं दुखाया जिसका भोग आज तुम भोग रहे हो ? आपके दुःख देने से वो इतना दुखी हुआ हो जिसके कारण आप इतनी पीड़ा झेल रहे हो ?

ठाकुर – नहीं बाबा !

बाबा – याद करो तनिक सोचो किसी का अधिकार तो नहीं छीना हुआ? किसी की पीठ में छुरा तो नहीं मारा हुआ? किसी के पेट से रोटी तो नहीं छीनी हुई? किसी का हिस्सा खुद तो नहीं संभाला हुआ ?

उसने बाबा की बात पूरी होने पर कहा – मेरी एक विधवा भाभी है, जो कि मायके में रहती है.. हिस्सा मांगती थी.. नहीं दिया । यह सोचकर कि कल को सब कुछ अपने भाईयों को दे देगी, इसका क्या पता ?

बाबा ने कहा – आज से उसे हर महीने सौ रूपए भेजने शुरू करो !

यह उस समय की बात है, जब सौ रूपए में पूरा परिवार पल जाता था ! उसने कुछ रूपए भेजना शुरू कर दिया !

दो-तीन हफ़्तों के बाद उसने बाबा से आकर कहा – मैं पचहत्तर प्रतिशत तक ठीक हूँ !

बाबा ने मन ही मन सोचा कि यह पूरा ठीक होना चाहिये था.. ऐसा क्यों नहीं हुआ ? पूछा – कितने रूपए भेजते थे ?

ठाकुर – पचीस रूपए !

बाबा – क्यों ? इसी कारण आपका रोग पूरा ठीक नहीं हुआ ! बाबा ने आगे कहा – उसका पूरा अधिकार उसे लौटाओ । वो अपने पैसे को जैसे मर्जी खर्च करे, जिसे मर्ज़ी दे, यह उसका विषय है.. यह तुम्हारा विषय नहीं है !जानते हो वो कितना दुखी होती रही । तभी आपको इतनी जलन हो रही है, सोचा है ?

ठाकुर ने अब सौ रूपए महीना भेजना शुरू किया साथ ही रोग भी ठीक हो गया !

साधकजनो ऐसे असाध्य रोग हैं, तो सोचना इस बारे में कि किसी का हमने हक तो नहीं छीना हुआ ? किसी की पीठ में छुरा तो नहीं घोंपा हुआ ? किसी का इतना दिल तो नहीं दुखाया हुआ, जो बेचारा इतना बेबस होगा? और कुछ कह भी न सकता होगा ? उस बेचारे के अन्दर से आह निकल रही है, जो आपके अंदर रोग पैदा कर रही है, जलन पैदा कर रही है !

जमींदार ने बाबा की बात मानी और सुखी हो गया और जो अपनी मनवाता है वह दुखी रहता है ।

धन्यवाद 🙏

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इस देहः में जो श्रीकृष्ण नाम वाली टिकट लेके जीवन जीता है वो खुशी-खुशी जी लेता है

प्रभुकृपा का अर्थ यह नहीं, कि जीवन में कभी दुःख ही न आए।

दुःख में भी आप दुखी न हों, वो घड़ी कब बीत जाए, आप को पता ही न चले…
यही है “प्रभुकृपा”।

जिसके हरी हैं सारथि, निश्चय उसकी जीत, जिस मन हरी बसें, उस मन प्रीत ही प्रीत.

संत, महापुरुष, भगवत भक्तगण बताते हैं;

कि जब आप बस या ट्रेन में बिना टिकट सफर करते हो तो कितना डर, भय, चिंता, घबराहट होती है ।

कहीं कोई टिकट चेक करने वाला ना आ जाये।

सारा सफ़र चिंता और बेचैनी में जाता है ।

और जो टिकट ले के सफ़र करता है ।

वो खुशी-खुशी सफर करता है, उसे कोई चिंता, घबराहट या परेशानी नही होती। उसका सफर खुशी-खुशी कट जाता है।

आखिर यह टिकट क्या है?

टिकट है;
श्रीकृष्ण: शरणं मम

इस देहः में जो श्रीकृष्ण नाम वाली टिकट लेके जीवन जीता है वो खुशी-खुशी जी लेता है ।

जो बिना हरिनाम के जीवन व्यतीत करता है उस व्यक्ति का सारा जीवन चिंता, घबराहट, बेचैनी और परेशानीयों से ही कटता है ।

इसीलिए संत महापुरुष कहते हैं-:
जप लो, यही मौका है.

निरंतर जपते रहें, भजते रहें…

श्रीकृष्ण: शरणं मम

श्रीकृष्ण: शरणं मम

श्रीकृष्ण: शरणं मम

श्रीकृष्ण: शरणं मम

श्रीकृष्ण: शरणं मम

श्रीकृष्ण: शरणं मम

श्रीकृष्ण: शरणं मम

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सिमरन और ध्यान कैसे करना चाहिए

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🧘‍♀कभी रात को नींद खुल जाए तो,
बिस्तर पर पड़े हुए नींद न आने के लिए परेशान मत होओ, इस सुनहरे
मौके को मत गँवाओ, यह तो बड़ी शुभ घड़ी है

🧘‍♀सारा जगत सोया है,
सब सोए हैं, मालिक ने एक मौका दिया है।

🧘‍♀आराम से चुपचाप बैठ जाओ
अपने बिस्तर में ही, रात के सन्नाटे में प्यार से पहले सिमरन करो फिर धुन को सुनो; ये बोलते हुए झींगुर, यह रात की ख़ामोशी, सारा सँसार सोया हुआ,
पूरी शांति से बैठ जाओ

🧘‍♀यही शाँति तुम्हारे अन्दर भी भर जायेगी ।

🧘‍♀तुम्हारे शान्त मन में भी संगीत पैदा कर देगी

🧘‍♀जब सारा घर और
सारी दुनिया बेहोशी में सोयी पड़ी हो तो
आधी रात चुपचाप सिमरन में बैठ जाना ही भजन के लिए सबसे शुभ घड़ी के लिए है।

🧘‍♀ध्यान हमारी मर्जी से नहीं लगता।

🧘‍♀ध्यान तो इतना नाजुक
है। एक पल में कहीं का कहीं पहुँच जाता है

🧘‍♀ध्यान एकाग्र करने के लिए जोर जबर्दस्ती की नहीं, प्रेम और भरोसे की ज़रूरत है, धीरज रखो

🧘‍♀बहुत धीरे-धीरे, आराम से और प्यार से सिमरन करना चाहिए ।

🧘‍♀ध्यान बहुत धीरे धीरे एकाग्र होता है।

यदि एक बार हो जाए तो फिर

फिर चौबीस घंटे में
कभी भी हो सकता है ।

🍥नहीं तो लोग हैं कि रोज पाँच बजे सुबह उठते हैं और बैठ गए ध्यान करने। मग़र काम नहीं बनता

🍥कभी भी
मशीन की तरह जल्दी जल्दी सिमरन नहीं, करना चाहिए
ऐसै ध्यान एकाग्र नहीं होता।..
सिमरन शुरू करने से पहले, सतगुरू की हाज़़िरी महसूस करो
फिर उनके दरबार में अपनी हाज़़िरी लगाओ

🇲🇰सतगुरू के चरणों में यह अरदास करो, सच्चे पातशाह मेरी मदद करो दाता🇲🇰 ।

🧘‍♀प्रेम से, भक्ति भाव से, सहज भाव से सिमरन शुरू करो, और अपने मन से सिमरन करव़ाओ
हमारी सुरत इसे प्रेम से सुने, तभी तो अन्दर का रूख करेगी, तन और मन सुन्न होंगे.

🧘‍♂🍥🍁🧘‍♂🍥🍁🧘‍♂🍥🍁🧘‍♂🍥🍁

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नमक की डली जो मुँह में पड़ी है

दो चींटियों का दृष्टान्त दिया है संतों ने..

एक नमक के ढेले पर रहने वाली चींटी की..एक मिश्री के ढेलेपर रहने वाली चींटी से मित्रता हो गयी..मित्रता के नाते वह उसे अपने नमक के ढेले पर ले गयी..और..कहा :: खाओ..वह बोली..क्या खायें..यह भी कोई मीठा पदार्थ है क्या..नमक के ढेले पर रहने वाली ने उससे पूछा..कि..मीठा क्या होता है..इससे भी मीठा कोई पदार्थ है क्या..
तब मिश्री पर रहनेवाली चींटी ने कहा :: यह तो मीठा है ही नहीं..मीठा तो इससे भिन्न ही जाति का होता है..परीक्षा कराने के लिये मिश्री पर रहने वाली चींटी..दूसरी चींटी को अपने साथ ले गयी..नमक पर रहने वाली चींटी ने यह सोचकर..कि..मैं कहीं भूखी न रह जाऊँ..छोटी-सी नमक की डली अपने मुँह में पकड़ ली..मिश्री पर पहुँचकर मिश्री मुँह में डालने पर भी उसे मीठी नहीं लगी..

मिश्री पर रहनेवाली चींटी ने पूछा..मीठा लग रहा है न..वह बोली..हाँ-में-हाँ तो कैसे मिला दूँ..बुरा तो नहीं मानोगी..मुझे तो कोई अन्तर नहीं प्रतीत होता है..वैसा ही स्वाद आ रहा है..उस मिश्री पर रहने वाली चींटी ने विचार किया..बात क्या है..

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इसे वैसा ही..नमक का स्वाद कैसे आ रहा है..उसने मिश्री स्वयं चखकर देखी..मीठी थी..वह सोचने लगी..बात क्या है..उसने पूछा..आते समय तुमने कुछ मुँह में रख तो नहीं लिया था..इस पर वह बोली..भूखी न रह जाऊँ..इसलिये छोटा-सा नमक का टुकड़ा मुँह में डाल लिया था..उसने कहा..निकालो उसे..जब उसने नमक की डली मुँह में से निकाल दी..तब दूसरी ने कहा :: अब चखो इसे..अबकी बार उसने चखा तो वह चिपट गयी..पूछा..कैसा लगता है..तो वह इशारे से बोली..बोलो मत..बस खाने दो..

इसी प्रकार सत्संगी भाई-बहन सत्संग की बातें तो सुनते हैं..पर धन..मान-बड़ाई..आदर-सत्कार..आदि को पकड़े-पकड़े सुनते हैं..साधन करने वाला..उसमें रस लेने वाला..उनसे पूछता है..क्यों..!! कैसा आनन्द है..तब हाँ-में-हाँ तो मिला देते हैं..पर उन्हें रस कैसे आये..नमक की डली जो मुँह में पड़ी है..मन में उद्देश्य तो है धन आदि पदार्थों के संग्रह का..भोगों का..और..मान-पद आदि का..अत: इनका उद्देश्य न रखकर केवल परमात्मा की प्राप्ति का उद्देश्य बनाना चाहिये..
🙏🏻🙏🏻

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अनुराग

मीराबाई कृष्णप्रेम में डूबी पद गा रही थी। एक संगीतज्ञ को लगा कि वह सही राग में नहीं गा रही है
वह टोकते हुये बोले: “मीरा, तुम राग में नहीं गा रही हो।
मीरा ने बहुत सुन्दर उत्तर दिया: “मैं राग में नहीं, अनुराग में गा रही हूँ।
राग में गाउंगी तो दुनियां मेरे को सुनेगी
अनुराग में गाउंगी तो मेरा कान्हा मेरे को सुनेगा।
मैं दुनियां को नही, अपने श्याम को रिझाने के लिये गाती हूँ।
रिश्ता होने से रिश्ता नहीं बनता,
रिश्ता निभाने से रिश्ता बनता है।
“दिमाग” से बनाये हुए “रिश्ते”
बाजार तक चलते है,,,!
“और “दिल” से बनाये “रिश्ते”
आखरी सांस तक चलते है,…
*🌹🌹जय श्री श्याम *🌹🌹

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एक दर्पण खुद के लिये

दोस्तो ,

पुराने समय की बात है एक गुरुकुल के आचार्य अपने शिष्य की सेवा भावना से बहुत प्रभावित हुए। शिक्षा पूरी होने के बाद शिष्य को विदा करने का समय आया, तब गुरु ने शिष्य को आशीर्वाद के रूप में एक ऐसा दर्पण दिया, जिसमें व्यक्ति के मन के छिपे हुए भाव दिखाई देते थे।शिष्य उस दर्पण को पाकर बहुत प्रसन्न हुआ। शिष्य ने परीक्षा लेने के लिए दर्पण का मुंह सबसे पहले गुरुजी की ओर ही कर दिया। शिष्य ने दर्पण में देखा कि उसके गुरुजी के मन में मोह, अहंकार, क्रोध आदि बुरी बातें हैं। यह देखकर शिष्य को दुख हुआ, क्योंकि वह अपने गुरुजी को सभी बुराइयों से रहित समझता था।

शिष्य दर्पण लेकर गुरुकुल से रवाना हुआ। उसने अपने मित्रों और परिचितों के सामने दर्पण रखकर परीक्षा ली। शिष्य को सभी के मन में कोई न कोई बुराई दिखाई दी। उसने अपने माता-पिता की भी दर्पण से ली। माता-पिता के मन में भीउसे कुछ बुराइयां दिखाई दीं। यह देखकर शिष्य को बहुत दुख हुआ और इसके बाद वह एक बार फिर गुरुकुल पहुंचा। गुरुकुल में शिष्य ने गुरुजी से कहा कि गुरुदेव मैंने इस दर्पण की मदद से देखा कि सभी के मन में कुछ न कुछ बुराई जरूर है। तब गुरुजी ने दर्पण का रुख शिष्य की ओर कर दिया। शिष्य ने दर्पण में देखा कि उसके मन में भी अहंकार, क्रोध जैसी बुराइयां है। गुरुजी ने शिष्य को समझाते हुए कहा कि यह दर्पण मैंने तुम्हें अपनी बुराइयां देखकर खुद में सुधार करने के लिए दिया था, दूसरों की बुराइयां देखने के लिए नहीं। जितना समय दूसरों की बुराइयों देखने में लगाया, उतना समय खुद को सुधारने में लगाया होता तो अब तक तुम्हारा व्यक्तित्व बदल चुका होता।

हमारी सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि हम दूसरों की बुराइयां जानने में ज्यादा रुचि दिखाते हैं। जबकि खुद को सुधारने के बारे में नहीं सोचते हैं। हमें दूसरों की बुराइयों को नहीं, बल्कि खुद की बुराइयों को खोजकर सुधारना चाहिए। तभी जीवन सुखी हो सकता है।

 

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मूढ़ से महाकवि

द्वार के सामने निकलती पशुओं की कतार को देखकर वह चिल्लाया –
उट् उट्।

⏺भीतर से पति की वाणी सुनकर गृहिणी निकली।
उसके कानों मे ये शब्द बरबस प्रवेश पा गए।
व्याकरण की महापण्डिता,
दर्शन की मर्मज्ञा नागरी और देवभाषा की यह विचित्र खिचड़ी देखकर सन्न रह गयी।
आज विवाह हुए आठवाँ दिन था।
यद्यपि इस एक सप्ताह मे बहुत कुछ उजागर हो चुका था,मालूम पड़ने लगा था कि जिसे परम विद्वान बताकर दाम्पत्य बन्धन मे बाँधा गया था,
वह परम मूर्ख है।
आज ऊंट को संस्कृत मे बोलने के दाम्भिक प्रयास ने अनुमान पर प्रामाणिकता की मुहर लगा दी।

उफ !
इतना बड़ा छल !
ऐसा धोखा !

⏺वह व्यथित हो गयी,
व्यथा को पीने के प्रयास मे उसने निचले होंठ के दाहिने सिरे को दाँतों से दबाया।
ओह !
नारी कितना सहेगी तू ?
कितनी घुटन है तेरे भाग्य मे?
कब तक गीला होता रहेगा तेरा आँचल आंसुओं की निर्झरिणी से।
सोचते सोचते उसे ख्याल आया कि वह उन्हें भोजन हेतु बुलाने आयी थी।

⏺चिन्तन को एक ओर झटककर उसने पति के कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा,
“आर्य भोजन तैयार है।”

“अच्छा।”
कहकर वह चल पड़ा।
भोजन करते समय तक दोनों निःशब्द रहे।
हाथ धुलवाने के पश्चात् गृहिणी ने ही पहल की –
“स्वामी”।

“कहो” स्वर मे अधिकार था।
“यदि आप आज्ञा दे तो मैं आपकी ज्ञानवृद्धि मे सहायक बन सकती हूँ।”
“तुम ज्ञान वृद्धि में “ ?
आश्चर्य से पुरुष ने आंखें उसकी ओर उठाई।”

⏺स्वर को अत्यधिक विनम्र बनाते हुए उसने कहा,
“अज्ञान अपने सहज रूप मे उतना अधिक खतरनाक नहीं होता,
जितना कि तब, जब कि वह ज्ञान का छद्म आवरण ओढ़ लेता है।”

“तो …….. तो मैं अज्ञानी हूँ।”
अटकते हुए शब्दों मे भेद खुल जाने की सकपकाहट झलक रही थी।

“नहीं नहीं आप अज्ञानी नहीं हैं।”
स्वर को सम्मानसूचक बनाते हुए वह बोली,
“पर ज्ञान अनन्त है और मैं चाहती हूँ कि आप मे ज्ञान के प्रति अभीप्सा जगे।
फिर आयु से इसका कोई बन्धन भी नहीं।
अपने यहाँ आर्य परम्परा मे तो वानप्रस्थ और संन्यास मे भी विद्या प्राप्ति का विधान है।
कितने ही ऋषियों ने, आप्त पुरुषों ने जीवन का एक दीर्घ खण्ड बीत जाने के बाद पारंगतता प्राप्त की।

“सो तो ठीक है पर ………….।”

⏺पति की मानसिकता मे परिवर्तन को लक्ष्य कर उसका उल्लासपूर्ण स्वर फूटा –
“मैं आपकी सहायिका बनूँगी।”

“तुम मेरी शिक्षिका बनोगी?
पत्नी और गुरु।”
कहकर वह अट्टहास करके हंस पड़ा।
हंसी मे मूर्खता और दम्भ के सिवा और क्या था ?

पति के इस कथन को सुनकर उसके मन मे उत्साह का ज्वार जैसे चन्द्र पर लगते ग्रहण को देख थम गया।
वह सोचने लगी आह !
पुरुष का दम्भ।
नारी नीची है,
जो जन्म देती है वह नीची है,
जो पालती है वह नीची हैं, जिसने पुरुष को बोलना चलना, तौर तरीके सिखाए वह नीची है, और पुरुष क्यों ऊंचा है ?
क्यों करता है, सृष्टि के इस आदि गुरु की अवहेलना?
क्योंकि उसे भोगी होने का अहंकार है।
नारी की सृजन शक्ति की मान्यता और गरिमा से अनभिज्ञ है।

क्या सोचने लगी ?
पति ने पूछा।

अपने को सम्हालते हुए उसने कहा,
“कुछ खास नहीं।
फिर कहने से लाभ भी क्या ? “

“नहीं कहो तो ?”
स्वर मे आग्रह था।

⏺सुनकर एक बार फिर समझाने का प्रयास करते हुए कहा –
“हम लोग विवाहित है।
दाम्पत्य की गरिमा परस्पर के दुःख सुख, हानि लाभ, वैभव-सुविधाएं, धन यश को मिल जुलकर उपयोग करने मे है।
पति पत्नी मे से कोई अकेला सुख लूटे,
दूसरा व्यथा की धारा मे पड़ा सिसकता रहे,
क्या यह उचित है ?”

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“नहीं तो।”
पति कुछ समझने का प्रयास करते हुए बोला।

⏺“तो आप इससे सहमत है कि दाम्पत्य की सफलता का रहस्य स्नेह की उस संवहन प्रक्रिया मे है जिसके द्वारा एक के गुणों की उर्जस्विता दूसरे को प्राप्त होती है।
दूसरे का विवेक पहले के दोषों का निष्कासन, परिमार्जन करता है।”

⏺“ठीक कहती हो।”
नारी की उन्नत गरिमा के सामने पुरुष का दम्भ घुटने टेक रहा था।

🌷“तो फिर विद्या भी धन है,
शक्ति है,
ऊर्जा है,
जीवन का सौंदर्य है।
क्यों न हम इसका मिल बाँट कर उपयोग करें ?”

“हाँ यह सही है।”

“तब आपको मेरे सहायिका बनने में क्या आपत्ति है ?”

“कुछ नहीं।”
स्वर ढीला था।
शायद नारी की सृजन शक्ति के सामने पुरुष का अहं पराजित हो चुका था।

⏺“तो शुभस्य शीध्रं।”
और वह पढ़ाने लगी अपने पति को।

पहला पाठ अक्षर ज्ञान से शुरू हुआ।
प्रारंभ मे कुछ अरुचि थी,
पर प्रेम के माधुर्य के सामने इसकी कड़वाहट नहीं ठहरी।

क्रमशः व्याकरण, छन्द शास्त्र, निरुक्त, ज्योतिष आदि छहों वेदाँग, षड्दर्शन, ज्ञान की सरिता उमड़ती जा रही थी।
दूसरे के अन्तर की अभीप्सा का महासागर उसे निःसंकोच धारण कर रहा था।

🌷वर्षों के अनवरत प्रयास के पश्चात् पति अब विद्वान हो गया था।
ज्ञान की गरिमा के साथ वह नतमस्तक था,
उस सृजनशिल्पी के सामने, जो नारी के रूप मे उसके सामने खड़ी थी।

सरस्वती की अनवरत उपासना उसके अन्तर मे कवित्व की अनुपमेय शक्ति के रूप मे प्रस्फुटित हो उठी थी।

🌷वह कभी का मूढ़ अब महाकवि हो गया।
देश देशान्तर सभी उसे आश्चर्य से देखते, सराहते और शिक्षण लेने का प्रयास करते। वह सभी से एक ही स्वानुभूत तथ्य कहता,
“पहचानो, नारी की गरिमा, उस कुशल शिल्पी की सृजनशक्ति, जो आदि से अब तक मनुष्य को पशुता से मुक्त कर सुसंस्कारों की निधि सौंपती आयी है।”

⏺महाराज विक्रमादित्य ने उन्हें अपने दरबार मे रखा।
अब वे विद्वत कुलरत्न थे।
दाम्पत्य का रहस्य सूत्र उन्हें वह सब कुछ दे रहा था,
जो एक सच्चे इनसान को प्राप्त होना चाहिए।
स्वयं के जीवन से लोकजीवन को दिशा देने वाले ये दंपत्ति थे “महाविदुषी विद्योत्तमा और कविकुल चूड़ामणि कालिदास।”

🌷जिनका जीवन दीप अभी भी हमारे अधूरे पड़े परिवार निर्माण के कार्य को पूरा करने के लिए मार्गदर्शन कर रहा है।

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धर्म क्या है..?:- एक राजा के तीन पुत्र थे। राजा उन तीनों युवराज में से किसी एक को राजा बनाना चाहते थे। एक दिन राजा ने तीनों पुत्रों को बुलाया और कहा… “किसी धर्मात्मा को खोज कर लाओ?”

एक राजा के तीन पुत्र थे। राजा उन तीनों युवराज में से किसी एक को राजा बनाना चाहते थे।

एक दिन राजा ने तीनों पुत्रों को बुलाया और कहा… “किसी धर्मात्मा को खोज कर लाओ?”

तीनों राजकुमार धर्मात्मा को खोजने निकल पड़े। कुछ समय बाद बड़ा राजकुमार एक मोटे आदमी को लाया।

उसने राजा से कहा.., “ये सेठजी बहुत ही दान-पुण्य करते हैं। इन्होने कई मंदिर, तालाबों का निर्माण कराया है।”

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यह सुनकर राजा ने सेठ का स्वागत किया और धन देकर उन्हें सम्मान पूर्वक विदा कर दिया।

दूसरा राजकुमार एक गरीब ब्राह्मण को लेकर लौटा।

उसने राजा से कहा.., “इन पंडिजी को चारों वेद और पुराणों का पूरा ज्ञान है। इन्होंने चारों धामों की यात्रा पैदल ही की है। ये तप भी करते हैं और सात-सात दिनों तक निर्जल भी रहते हैं इसलिए ये धर्मात्मा हैं।”

राजा ने ठीक उस सेठ की तरह ही ब्राह्मण को भी धन का दान देकर सम्मान पूर्वक विदा किया।

आखिर में छोटा राजकुमार आया, वह अपने साथ एक आदमी को लाया।

राजकुमार ने कहा.., “पिताश्री! यह आदमी सड़क पर घायल पड़े एक श्वान के जख्मों को धो रहा था। जब मैनें इससे पूछा ऐसा करने पर तुम्हें क्या मिलेगा। तो इसने उत्तर दिया, मुझे तो कुछ नहीं मिलेगा हां ये जरूर है कि इस श्वान को आराम मिल जाएगा।”

राजा ने उस व्यक्ति से पूछा.., “क्या तुम धर्म-कर्म करते हो?”

आदमी ने कहा.., “मैं अनपढ़ हूं। धर्म-कर्म के बारे में कुछ भी नहीं जानता। कोई मांगे तो अन्न दे देता हूं। कोई बीमार हो तो सेवा कर देता हूं।”

यह सुनकर राजा ने कहा.., “कुछ पाने की आस रखे बिना दूसरों की सेवा करना ही तो धर्म है। छोटे राजकुमार ने बिल्कुल सही व्यक्ति की तलाश की है।”

अतः राजा ने अपने तीसरे बेटे को राजा के पद के लिए चुन लिया। इस तरह युवराज कुछ समय बाद राजा बन गया।

सुप्रभात। आज का दिन आपके लिए शुभ एवं मंगलमय हो।

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ये 5 काम करने से देवी लक्ष्मी मनुष्य तो क्या स्वयं भगवान विष्णु का भी त्याग कर देती हैं, इसलिए इन 5 कामों से बचना चाहिए

आज का दिन आप सभी के लिए शुभ हो।

🌷वर्तमान समय मे हर व्यक्ति चाहता है कि देवी लक्ष्मी की कृपा उस पर बनी रहे
क्योंकि जिस पर भी देवी लक्ष्मी की कृपा होती है उसके पास जीवन की हर सुख-सुविधाएं उपलब्ध रहती हैं।
जीवन का हर सुख उसे प्राप्त होता है।
यही कारण है कि लोग देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए नित नए उपाय करते हैं।

“गरुड़ पुराण” के अनुसार 5 काम करने से देवी लक्ष्मी मनुष्य तो क्या स्वयं भगवान विष्णु का भी त्याग कर देती हैं।
इसलिए इन 5 कामों से बचना चाहिए।

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🌷ये काम इस प्रकार हैं-

श्लोक –
” कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणं ब्रह्वाशिनं निष्ठुरवाक्यभाषिणम्
सूर्योदये ह्यस्तमयेपि शायिनं विमुञ्चति श्रीरपि चक्रपाणिम् !! “

अर्थात्-
⏺1. मैले वस्त्र पहनने वाले,
⏺2. दांत गंदे रखने वाले,
⏺3. अधिक खाने वाले,
⏺4. निष्ठुर (कठोर) बोलने वाले,
⏺5. सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सोने वाले स्वयं विष्णु भगवान हों तो उन्हें भी देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं।

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🌷1. मैले कपड़े पहनना –
गरुड़ पुराण के अनुसार मैले वस्त्र यानी गंदे कपड़े पहनने वालों को देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं।
यदि आप साफ-स्वच्छ रहेंगे तो लोग आपसे मिलने-जुलने में संकोच नहीं करेंगे।
आपकी जान-पहचान बढ़ेगी।
यदि आप कोई व्यापार करते हैं तो जान पहचान बढ़ने से आपके व्यापार मे भी बढ़ोतरी होगी।
यदि आप नौकरी करते हैं तो आपकी स्वच्छता देखकर मालिक भी खुश रहेगा।
इसके विपरीत यदि आप गंदे कपड़े पहनेंगे तो लोग आपसे दूरी बनाए रखेंगे।
कोई आपसे बात करना पसंद नहीं करेगा।
ऐसी स्थिति मे आपका व्यापार ठप्प हो सकता है और यदि आप नौकरी करते हैं तो मालिक आपको इस अवस्था मे देखकर नौकरी से भी निकाल सकता है।
अतः गंदे कपड़े नहीं पहनना चाहिए।

🌷2. दांत गंदे रखने वाले –
जिन लोगों के दांत गंदे रहते हैं, देवी लक्ष्मी उन्हें भी छोड़ देती हैं।
यहां दांत गंदे रहने का सीधा अर्थ आपके स्वभाव व स्वास्थ्य से है।
जो लोग अपने दांत ठीक से साफ नहीं करते, वे कोई भी काम पूर्ण निष्ठा व ईमानदारी से नहीं कर पाते।
इससे उनके आलसी स्वभाव के बारे मे पता चलता है।
अपने आलसी स्वभाव के कारण ऐसे लोग अपनी जिम्मेदारी भी ठीक से नहीं निभा पाते।
स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से यदि देखें तो जिसके दांत गंदे होते हैं, उसका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता क्योंकि गंदे दांतों के कारण उन्हें पेट से संबंधित अनेक रोग हो सकते हैं।
अतः गंदे दांत होने से व्यक्ति के आलसी व रोगी होने की संभावना सबसे अधिक रहती है।
इसलिए देवी लक्ष्मी गंदे दांत वाले लोगों का त्याग कर देती हैं।

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🌷3. अधिक खाने वाले –
जो लोग अपनी जरूरत से अधिक भोजन करते हैं वो निश्चित तौर पर अधिक मोटे होते हैं।
मोटा शरीर उन्हें परिश्रम करने से रोकता है,
वहीं ऐसे शरीर के कारण उन्हें अनेक प्रकार की बीमारियां भी घेर लेती हैं।
ऐसे लोग परिश्रम से अधिक भाग्य पर भरोसा करते हैं।
जबकि देवी लक्ष्मी ऐसे लोगों के पास रहना पसंद करती हैं जो अपने परिश्रम के बल पर ही आगे बढ़ने की दक्षता रखते हैं।
मोटा शरीर लोगों को अधिक आलसी बना देता है।
इसलिए ज्यादा खाने वाले लोगों को देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं।
अतः आवश्यकता से अधिक नहीं खाना चाहिए।

🌷4. निष्ठुर (कठोर) बोलने वाले –
जो लोग बिना किसी बात या छोटी-छोटी बातों पर दूसरों पर चीखते-चिल्लाते हैं,
उन्हें अपशब्द कहते हैं ,ऐसे लोगों को भी देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं।
जो लोग इस प्रकार का व्यवहार अपने जान पहचान वाले, नौकर या अपने अधीन काम करने वालों के साथ करते हैं उनका स्वभाव बहुत ही क्रूर होता है।
इनके मन मे किसी के प्रति प्रेम या दया नहीं होती।
जिन लोगों के मन मे प्रेम या दया का भाव न हो वो कभी दूसरों की मदद नहीं करते और जो लोग दूसरों की मदद नहीं करते,
देवी लक्ष्मी उन्हें पसंद नहीं करती।
मन मे प्रेम व दया हो तो ही भगवान का आशीर्वाद बना रहता है।
इसलिए निष्ठुर यानी कठोर बोलने वालों लोगों को देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं।

🌷5. सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सोने वाले –
सूर्योदय व सूर्यास्त का समय भगवान का स्मरण करने तथा शारीरिक व्यायाम के लिए निश्चित किया गया है।
सूर्योदय के समय योग, प्राणायाम व अन्य कसरत करने से शरीर स्वस्थ रहता है।
इस समय वातावरण मे शुद्ध आक्सीजन रहती है, जो फेफड़ों को स्वस्थ रखती हैं।
इसके अतिरिक्त सूर्योदय के समय मंत्र जाप कर भगवान का स्मरण करने से भी अनेक लाभ मिलते हैं।
अतः सूर्योदय होने से पहले ही उठ जाना चाहिए।
सूर्यास्त के समय भी हल्का फुल्का व्यायाम किया जा सकता है।
ये समय भगवान के पूजन के लिए नियत हैं।
जो लोग सूर्योदय व सूर्यास्त के समय सोते हैं, वे निश्चित तौर पर आलसी होते हैं।
अपने आलसी स्वभाव के कारण ही ऐसे लोग जीवन मे कोई सफलता अर्जित नहीं कर पाते।
यही कारण है कि सूर्योदय व सूर्यास्त के समय सोने वाले लोगों को देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं।

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रघु बड़े ही प्रतापी राजा हुए … उनका वंश , रघुवंश कहलाया। साक्षात् भगवान् श्री विष्णु यद्यपि उनके कुल मे उत्पन्न हुए , किन्तु फिर भी वह रामवंश नही कहा गया

सनातन धर्म मे दानवीरों की सूची बनाई जाये तो संभव है कि हर दूसरा पात्र दानवीर निकलेगा,
दान के साथ , कर्ण तथा राजा बलि का नाम विशेष रूप से लिया जाता है …
किन्तु राजा रघु भी बहुत बड़े दानवीर थे।

🌷आदिकाल मे रघु बड़े ही प्रतापी राजा हुए …
वे इतने प्रतापी थे कि उन्ही के नाम से उनका वंश , रघुवंश कहलाया।
साक्षात् भगवान् श्री विष्णु यद्यपि उनके कुल मे उत्पन्न हुए ,
किन्तु फिर भी वह रामवंश नही कहा गया , बल्कि राम का ही नाम रघु से पड़ा ,
रघु से उत्पन्न राघव ,
रघुकुलोद्भव ,
रघुनाथ ,
राघवेन्द्र ,
रघुवंशी आदि नाम पड़े ।

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इसी से ‘ रघु ‘ की महत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है।

🌷रघु बहुत ही दानी और प्रजा का कल्याण करने वाले राजा थे,
जनकल्याण का अर्थ उन्होने जनता से राजा का कल्याण नही समझ रखा था।
जनता का कल्याण हो , उसे वे जन कल्याण मानते थे।

उनका दृष्टिकोण था कि हम अधिक से अधिक जनता का कल्याण करें…
इसलिये वे बीच – बीच मे ” सर्वमेध यज्ञ ” करते थे ,
जिसमे वे अपनी स्वयं की जितनी भी सम्पत्ति होती थी, सब दान कर देते थे।

दूसरे राज्यों पर चढ़ाई करके वहाँ से धन लाते थे ,
यही राजा का उस समय कार्य था।
उसी धन के द्वारा ” सर्वमेध यज्ञ ” करके उसमे वह सम्पत्ति सबको बाँट देते थे।
दान के समय वे अपने पूजा के बर्तन और अपने सारे वस्त्र भी दान कर दिये थे ।
यह कोई अतिशयोक्ति नही है।

श्री राजा रघु की बात जाने दें,
आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व राजा ” हर्ष ” के बारे मे फाहियान और इत्सिंग लिखते हैं कि वह हर “कुम्म के मेले मे” जाकर अपना सारा खजाना दान कर देता था और अपने वस्त्र तक दान कर के अपनी बहन से वस्त्र का एक खण्ड मांगकर उसे पहन कर वापिस जाता था।

जिस किसी को भी राजा हर्ष के बारे मे ज्ञात है , वह राजा रघु के दान पर आश्चर्य नही करेगा।

🌷एक बार राजा रघु ने इसी प्रकार का यज्ञ किया जिसमे रघु ने भी अपना सर्वस्व , बर्तन और वस्त्र तक दान कर दिये।
संध्या – वन्दन करने के लिये एक मिट्टी का कुल्हड़ लेकर बैठे थे।

उसी समय एक कोत्स नामक ब्राह्मण स्नातक वहाँ आया ।
विद्या अध्यन करने के बाद , विवाह करने के पूर्व व्यक्ति को “स्नातक” कहा जाता था।

उसने आकर राजा को आर्शीवाद दिया,
राजा की दशा देखी और उदास मन से चलने को उद्धत हुआ।
उसे वापिस जाते देख रघु ने आग्रह पूर्वक पूछा –
कोत्स !
किस कारण से आये थे ?

कोत्स ने कहा कि वो जिस प्रयोजन से यहाँ आया था वो अब पूरा नहीं हो सकता,
सो लौट रहा है।

राजा रघु के बार बार आग्रह करने पर कोत्स ने कहा –

– मेरे पिता बड़े गरीब ब्राह्मण हैं, मुझे गुरुकुल मे पढ़ने के लिये भेज दिया था।
अध्ययन समाप्त हो गया …
गुरु जी ने कहा तू पढ़ – लिख गया,
अब तेरा “स्नातक संस्कार” करते हैं।

अध्ययन के बाद जिसकी जो सामर्थ्य हो,
जिसकी जो इच्छा हो , वह गुरु को देता था।
किसी ने बहुत धन दिया , किसी ने थोड़ा दिया , गुरु सामर्थ्य के अनुसार लेते गये।

मैने गुरु जी से कहा कि मै क्या लाऊँ ?
तो उन्हे पता था कि मैं गरीब ब्राह्मण का पुत्र हूँ,
कहने लगे जाने दे।
तूने मेरी इतनी सेवा की है,
यह क्या कोई कम है।
फिर तू ब्राह्मण है,
तुझसे क्या लूंगा ?

गुरु जी से बार बार कहा कि कुछ तो ले लें भगवन् ….

जब मैने इस तरह चार पाँच बार कहा तो उन्हेँ क्रोध आ गया और कहा –
‘ बड़ी दक्षिणा की बात करता है !
मैने तुझे चौदह विद्याओं का ज्ञान दिया है …
जा , चौदह करोड़ सोने की मुद्रायें ले आ।’

राजन् , मेरा सामर्थ्य तो चौदह तांबे की मुद्रा देने का भी नहीं , सोचा कि आपसे ले कर आऊँगा और गुरु जी को देकर उऋण हो जाऊँगा।
किन्तु यहाँ आकर देखा कि आप सर्वस्व दान कर चुके हो …

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– स्नातक मेरे द्वार पर आया और लौट जाये , यह नही हो सकता ,
स्वर्ण मुद्रायेँ दूँगा किन्तु मुझे दो – चार दिन का समय दीजिये ब्राह्मण कुमार,
और तब तक आप अतिथिशाला मे ठहरें,
खाने पीने की सारी व्यवस्था वहाँ है।

🌷कौत्स के मन मे बड़ा संकोच हुआ,
फिर भी वहीँ ठहर गया।

रघु विचार करने लगे कि क्या किया जाये,
क्यूंकि सर्वस्व दान हो चुका है।
वह सर्वस्व दान नकली नही हुआ करता था,
जितना भी धन कोष मे हुआ करता था और जितना भी धन दूसरे लोगों से लेना होता था,
वह पहले ही ले लिया जाता था अतः प्रजा से भी अब कुछ नहीँ लिया जा सकता।
इस प्रकार विचार करते निर्णय लिया गया कि इस पृथ्वी मे तो अब कही से सम्भावना नहीँ है सो देवलोक पर चढ़ाई करके कुबेर को जीतकर कुछ धन लाया जाये।

आज्ञा हो गई कि प्रातः शस्त्र और रथ तैयार रखा जाये,
देवलोक पर चढ़ाई करके वहीं से कुछ धन लाया जायेगा।

🌷उस समय उनके रथ सूर्यलोक , स्वर्गलोक तक जाया करते थे।
” रघुवंश ” मे लिखा है “आनाकरथवत्मानां ” उनके रथ इतने प्रतापी थे।

यक्षराज धनाध्यक्ष कुवेर को जब पता लगा तो उन्हे बहुत ही ग्लानि हुई कि जिसकी ऐसी वृति है कि अपना सर्वस्व दान कर दिया है,
वह ब्राह्मण स्नातक के लिये मेरे पास आकार युद्ध करे …
यह शोभा नही देता।

इसलिये कुवेर ने उसी समय वहाँ स्वर्ण – वृष्टि कर दी क्योंकि श्री रघु अपने लिये नहीं बल्कि ब्राह्मण स्नातक गुरुजी को दक्षिणा दे सके इस प्रयोजन से धन चाहते थे।

🌷राजा रघु प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त मे उठकर स्नान , ध्यान करके बाहर आये तो देखा कि सारा आंगन स्वर्ण से भरा है।

यह देख कर श्री रघु देवताओं की प्रार्थना करने लगे।
जैसे ही प्रातःकाल का प्रकाश हुआ,
ब्राह्मण स्नातक कौत्स को बुलाया और उन स्वर्ण मुद्राओं को दिखा कर कहा कि ले जाओ।

ब्राह्मण स्नातक ने कहा –
मुझे तो चौदह करोड़ ही चाहिये,
बाकी नही लूँगा।

जब उन स्वर्ण मुद्राओँ को गिना गया तो चौदह करोड़ से कई गुना अधिक स्वर्ण था …
ब्राह्मण स्नातक कोत्स ने उनमे से चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्रायें ले लीं।

🌷राजा श्री रघु ने ब्राह्मण स्नातक कौत्स से कहा-
तुम्हारे निमित्त आया धन मैं रख लूँ,
यह नही हो सकता ।
ये स्वर्ण मुद्राये तुम्हारे निमित्त आई है सो तुम ले जाओ।

बची हुई स्वर्ण मुद्राएं न रघु रखने को को तैयार हो रहे थे और न कौत्स।
विवाद बढ़ गया।

ऋषियों ने कहा कि इस धन को ले जा कर हिमालय मे गाड़ दो।
ब्राह्मण के निमित्त का धन राजा रखे,यह ठीक नही और बिना मतलब धन एकत्र करके ब्राह्मण बुद्धि भ्रष्ट करे,
यह भी ठीक नहीं।

चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्रायें कौत्स ने लाकर गुरुजी को दे दीं।

🌷जिसको अपने आत्माराम की प्राप्ति हो गई है उसे इस विषयों की मृगतृष्णा लोभ मे नही ड़ाल सकती।

दे वही सकता है जो अपने भोग के लिये नही रखना चाहता,
जिसे अपने भोग के लिये चाहिये …
उसकी समस्या है कि “क्या बतायें, महँगाई के जमाने मे अपना ही खर्चा पूरा नही पड़ता।
चाहे दस लाख कमा लें
वह बेचारा कहाँ से देगा,
जो खुद ही विषय – मृगतृष्णा मे फँसा है।”

🌷जो जीव अपने गुरु को अर्पण करने के लिये चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राये चाहता है , वह ईश्वर के पास पहुँचता है।

इन चौदह वस्तुओं की ही अनंत वृतियाँ हैं –

🌷पाँच कर्मेन्द्रिया ,
🌷पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ,और
🌷अन्तःकरण – चतुष्टय ( मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार )।

इन चौदह की अनंत वृतियाँ है,
वे अनंत वृतियाँ सारी स्वर्ण हों, स्वर्ण वाली हो अर्थात शुभ ही हों।

🌷हम सब नित्य प्रार्थना करते हैँ –
” भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवाः !
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ! ”

कान की वृति भद्र हो,
आंख की वृति भद्र हो, कल्याण करने वाली हो।
ये सभी वृतियाँ स्वर्णवत् शुद्ध हो,
जिसने सारी भद्रवृतियों को ईश्वर से माँग लिया,
उसका जीवन धन्य है ।

🌷ऋषि वेदव्यास को पता था कि इस प्रकार सारा धन कहाँ गाड़ दिया गया था,
वही धन द्वापर ओर कलियुग की संघि मे युद्धिष्ठिर वहाँ से निकालकर लाये थे,
जिसे प्रजा की सुख समृद्धि मे लगाया गया।

!! ॐ सुरभ्यै नमः !!

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पत्नी वामांगी क्यों कहलाती है?

शास्त्रों में पत्नी को वामंगी कहा गया है, जिसका अर्थ होता है बाएं अंग का अधिकारी। इसलिए पुरुष के शरीर का बायां हिस्सा स्त्री का माना जाता है।

इसका कारण यह है कि भगवान शिव के बाएं अंग से स्त्री की उत्पत्ति हुई है जिसका प्रतीक है शिव का अर्धनारीश्वर शरीर। यही कारण है कि हस्तरेखा विज्ञान की कुछ पुस्तकों में पुरुष के दाएं हाथ से पुरुष की और बाएं हाथ से स्त्री की स्थिति देखने की बात कही गयी है।

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शास्त्रों में कहा गया है कि स्त्री पुरुष की वामांगी होती है इसलिए सोते समय और सभा में, सिंदूरदान, द्विरागमन, आशीर्वाद ग्रहण करते समय और भोजन के समय स्त्री पति के बायीं ओर रहना चाहिए। इससे शुभ फल की प्राप्ति होती।

वामांगी होने के बावजूद भी कुछ कामों में स्त्री को दायीं ओर रहने के बात शास्त्र कहता है। शास्त्रों में बताया गया है कि कन्यादान, विवाह, यज्ञकर्म, जातकर्म, नामकरण और अन्न प्राशन के समय पत्नी को पति के दायीं ओर बैठना चाहिए।

पत्नी के पति के दाएं या बाएं बैठने संबंधी इस मान्यता के पीछे तर्क यह है कि जो कर्म संसारिक होते हैं उसमें पत्नी पति के बायीं ओर बैठती है। क्योंकि यह कर्म स्त्री प्रधान कर्म माने जाते हैं।

यज्ञ, कन्यादान, विवाह यह सभी काम पारलौकिक माने जाते हैं और इन्हें पुरुष प्रधान माना गया है। इसलिए इन कर्मों में पत्नी के दायीं ओर बैठने के नियम हैं।

क्या आप जानते हैं?????

सनातन धर्म में पत्नी को पति की वामांगी कहा गया है, यानी कि पति के शरीर का बांया हिस्सा, इसके अलावा पत्नी को पति की अर्द्धांगिनी भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है पत्नी, पति के शरीर का आधा अंग होती है, दोनों शब्दों का सार एक ही है, जिसके अनुसार पत्नी के बिना पति अधूरा है।

पत्नी ही पति के जीवन को पूरा करती है, उसे खुशहाली प्रदान करती है, उसके परिवार का ख्याल रखती है, और उसे वह सभी सुख प्रदान करती है जिसके वह योग्य है, पति-पत्नी का रिश्ता दुनिया भर में बेहद महत्वपूर्ण बताया गया है, चाहे सोसाइटी कैसी भी हो, लोग कितने ही मॉर्डर्न क्यों ना हो जायें, लेकिन पति-पत्नी के रिश्ते का रूप वही रहता है, प्यार और आपसी समझ से बना हुआ।

हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ महाभारत में भी पति-पत्नी के महत्वपूर्ण रिश्ते के बारे में काफी कुछ कहा गया है, भीष्म पितामह ने कहा था कि पत्नी को सदैव प्रसन्न रखना चाहिये, क्योंकि, उसी से वंश की वृद्धि होती है, वह घर की लक्ष्मी है और यदि लक्ष्मी प्रसन्न होगी तभी घर में खुशियां आयेगी, इसके अलावा भी अनेक धार्मिक ग्रंथों में पत्नी के गुणों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है।

आज हम आपको गरूड पुराण, जिसे लोक प्रचलित भाषा में गृहस्थों के कल्याण की पुराण भी कहा गया है, उसमें उल्लिखित पत्नी के कुछ गुणों की संक्षिप्त व्याख्या करेंगे, गरुण पुराण में पत्नी के जिन गुणों के बारे में बताया गया है, उसके अनुसार जिस व्यक्ति की पत्नी में ये गुण हों, उसे स्वयं को भाग्यशाली समझना चाहिये, कहते हैं पत्नी के सुख के मामले में देवराज इंद्र अति भाग्यशाली थे, इसलिये गरुण पुराण के तथ्य यही कहते हैं।

सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रियंवदा।
सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता।।

गरुण पुराण में पत्नी के गुणों को समझने वाला एक श्लोक मिलता है, यानी जो पत्नी गृहकार्य में दक्ष है, जो प्रियवादिनी है, जिसके पति ही प्राण हैं और जो पतिपरायणा है, वास्तव में वही पत्नी है, गृह कार्य में दक्ष से तात्पर्य है वह पत्नी जो घर के काम काज संभालने वाली हो, घर के सदस्यों का आदर-सम्मान करती हो, बड़े से लेकर छोटों का भी ख्याल रखती हो।

जो पत्नी घर के सभी कार्य जैसे- भोजन बनाना, साफ-सफाई करना, घर को सजाना, कपड़े-बर्तन आदि साफ करना, यह कार्य करती हो वह एक गुणी पत्नी कहलाती है, इसके अलावा बच्चों की जिम्मेदारी ठीक से निभाना, घर आये अतिथियों का मान-सम्मान करना, कम संसाधनों में भी गृहस्थी को अच्छे से चलाने वाली पत्नी गरुण पुराण के अनुसार गुणी कहलाती है, ऐसी पत्नी हमेशा ही अपने पति की प्रिय होती है।

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प्रियवादिनी से तात्पर्य है मीठा बोलने वाली पत्नी, आज के जमाने में जहां स्वतंत्र स्वभाव और तेज-तरार बोलने वाली पत्नियां भी है, जो नहीं जानती कि किस समय किस से कैसे बात करनी चाहियें, इसलिए गरुण पुराण में दिए गए निर्देशों के अनुसार अपने पति से सदैव संयमित भाषा में बात करने वाली, धीरे-धीरे व प्रेमपूर्वक बोलने वाली पत्नी ही गुणी पत्नी होती है।

पत्नी द्वारा इस प्रकार से बात करने पर पति भी उसकी बात को ध्यान से सुनता है, व उसके इच्छाओं को पूरा करने की कोशिश करता है, परंतु केवल पति ही नहीं, घर के अन्य सभी सदस्यों या फिर परिवार से जुड़े सभी लोगों से भी संयम से बात करने वाली स्त्री एक गुणी पत्नी कहलाती है, ऐसी स्त्री जिस घर में हो वहां कलह और दुर्भाग्य कबीनहीं आता।

पतिपरायणा यानी पति की हर बात मानने वाली पत्नी भी गरुण पुराण के अनुसार एक गुणी पत्नी होती है, जो पत्नी अपने पति को ही सब कुछ मानती हो, उसे देवता के समान मानती हो तथा कभी भी अपने पति के बारे में बुरा ना सोचती हो वह पत्नी गुणी है, विवाह के बाद एक स्त्री ना केवल एक पुरुष की पत्नी बनकर नये घर में प्रवेश करती है, वरन् वह उस नये घर की बहु भी कहलाती है, उस घर के लोगों और संस्कारों से उसका एक गहरा रिश्ता बन जाता है।

इसलिए शादी के बाद नए लोगों से जुड़े रीति-रिवाज को स्वीकारना ही स्त्री की जिम्मेदारी है, इसके अलावा एक पत्नी को एक विशेष प्रकार के धर्म का भी पालन करना होता है, विवाह के पश्चात उसका सबसे पहला धर्म होता है कि वह अपने पति व परिवार के हित में सोचे, व ऐसा कोई काम न करे जिससे पति या परिवार का अहित हो।

गरुण पुराण के अनुसार जो पत्नी प्रतिदिन स्नान कर पति के लिए सजती-संवरती है, कम बोलती है, तथा सभी मंगल चिह्नों से युक्त है, जो निरंतर अपने धर्म का पालन करती है तथा अपने पति का ही हीत सोचती है, उसे ही सच्चे अर्थों में पत्नी मानना चाहियें, जिसकी पत्नी में यह सभी गुण हों, उसे स्वयं को देवराज इंद्र ही समझना चाहियें।

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गुरू की बात को गिरिधारी भी नही टाल सकते

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वृंदावन मे एक संत के पास कुछ शिष्य रहते थे उनमे से एक शिष्य मंद बुद्धि का था। एक बार गुरु देव ने सभी शिष्यों को अपने करीब बुलाया और सब को एक मास के लिए ब्रज मे अलग-अलग स्थान पर रहने की आज्ञा दी और उस मंद बुद्धि को बरसाने जाकर रहने को कहा।

मंद बुद्धि ने बाबा से पुछा बाबा मेरे रहने खाने की व्यवस्था वहा कौन करेगा। बाबा ने हंस कर कह दिया राधा रानी, कुछ दिनों बाद एक एक करके सब बालक लौट आए पर वो मंद बुद्धि बालक नही आया। बाबा को चिंता हुई के दो मास हो गए मंद बुद्धि बालक नही आया जाकर देखना चाहिए, बाबा अपने शिष्य की सुध लेने बरसाने आ गए।

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बाबा ने देखा एक सुन्दर कुटिया के बाहर एक सुन्दर बालक बहुत सुन्दर भजन कर रहा है,बाबा ने सोचा क्यों ना इन्ही से पुछा जाए।बाबा जैसे ही उनके करिब गए वो उठ कर बाबा के चरणों में गिर गया और बोला आप आ गए गुरु देव!बाबा ने पुछा ये सब कैसे तु ठीक कैसे हो गया शिष्य बोला बाबा आपके ही कहने से किशोरी जी ने मेरे रहने खाने पीने की व्यवस्था की और मुझे ठीक कर भजन करना भी सिखाया।

बाबा अपने शिष्य पर बरसती किशोरी जी की कृपा को देख खुब प्रसन्न हुए और मन ही मन सोचने लगे मेरे कारण मेरी किशोरी जी को कितना कष्ट हुआ। उन्होंने मेरे शब्दो का मान रखते हुए मेरे शिष्य पर अपनी सारी कृपा उडेल दी। इसलिए कहते है गुरू की बात को गिरिधारी भी नही टाल सकते।
राधे राधे🙏🙏🏻💐😊

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युगल स्वरुप

बहुत समय पहले की बात है वृन्दावन में एक महात्मा जी का निवास था जो युगल स्वरुप की उपासना किया करते थे….. एक बार वे महात्मा जी संध्या वन्दन के उपरान्त कुँजवन की राह पर जा रहे थे, मार्ग में महात्मा जी जब एक वटवृक्ष के निचे होकर निकले तो उनकी जटा उस वट-वृक्ष की जटाओं में उलझ गईं, बहुत प्रयास किया सुलझाने का परन्तु जब जटा नहीं सुलझी तो महात्मा भी तो महात्मा हैं वे आसन जमा कर बैठ गए की जिसने जटा उलझाई है वो सुलझाने आएगा तो ठीक है नही तो मैं ऐसे ही बैठा रहूँगा और बैठे-बैठे ही प्राण त्याग दूँगा……

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तीन दिन बीत गए महात्मा जी को बैठे हुए…एक सांवला सलोना ग्वालिया आया जो पाँच-सात वर्ष का रहा होगा…वो बालक ब्रजभाषा में बड़े दुलार से बोला “बाबा तुम्हारी तो जटा उलझ गईं, अरे मैं सुलझा दऊँ का”…..और जैसे ही वो बालक जटा सुलझाने आगे बढ़ा महात्मा जी ने कहा “हाथ मत लगाना…पीछे हटो….कौन हो तुम” ग्वालिया : अरे हमारो जे ही गाम है महाराज गैया चरा रह्यो तो मैंने देखि महात्मा जी की जटा उलझ गईं है मैंने सोची ऐसो करूँ मैं जाए के सुलझा दऊँ….. महात्मा जी : न न न दूर हट जा ग्वालिया : चौं काह भयो..? महात्मा जी : जिसने जटा उलझाई है वो आएगा तो ठीक नहीं तो इधर ही बस गोविन्दाय नमो नमः ग्वालिया : अरे महाराज तो जाने उलझाई है वाको नाम बताए देयो वाहे बुला लाऊँगो….. महात्मा जी : बोला न जिसने उलझाई है वो अपने आप आ जायेगा..तू जा नाम नहीं बताते हम…… कुछ देर तक वो बालक महात्मा जी को समझाता रहा

परन्तु जब महात्मा जी नहीं माने तो उसी क्षण ग्वालिया के भेष को छुपा कर ग्वालिया में से साक्षात् मुरली बजाते हुए मुस्कुराते हुए भगवान बाँकेबिहारी प्रकट हो गए…….सांवरिया सरकार बोले “महात्मन मैंने जटा उलझाई है ? तो लो आ गया मैं”…और जैसे ही सांवरिया जी जटा सुलझाने आगे बढे..महात्मा जी ने कहा “हाथ मत लगाना….पीछे हटो….पहले बताओ तुम कौन से कृष्ण हो ? महात्मा जी के वचन सुनकर सांवरिया जी सोच में पड़ गए, अरे कृष्ण भी दस-पाँच होते हैं क्या ?महात्मा जी फिर बोले “बताओ भी तुम कौन से कृष्ण हो….?” सांवरिया जी : कौन से कृष्ण हो मतलब ? महात्मा जी : देखो कृष्ण भी कई प्रकार के होते हैं, एक होते हैं देवकीनंदन कृष्ण, एक होते हैं यशोदानंदन कृष्ण, एक होते हैं द्वारकाधीश कृष्ण, एक होते हैं नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण…. सांवरिया जी : आपको कौन सा चाहिए….? महात्मा जी : मैं तो नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण का परमोपासक हूँ…… सांवरिया जी : वही तो मैं हूँ…….अब सुलझा दूँ….?

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और जैसे ही जटा सुलझाने सांवरिया सरकार आगे बढे तो महात्मा जी बोल उठे “हाथ मत लगाना…पीछे हटो….बड़े आये नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण….अरे नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण तो किशोरी जी के बिना मेरी स्वामिनी श्री राधारानी के बिना एक पल भी नहीं रहते और तुम तो अकेले सोटा से खड़े हो……..” महात्मा जी के इतना कहते ही सांवरिया जी के कंधे पर श्रीजी का मुख दिखाई दिया, आकाश में बिजली सी चमकी औरसाक्षात् वृषभानु नंदिनी, वृन्दावनेश्वरी, रासेश्वरी श्री हरिदासेश्वरी स्वामिनी श्री राधिका जी अपने प्रीतम को गल-बहियाँ दिए महात्मा जी के समक्ष प्रकट हो गईं…..और बोलीं ” बाबा मैं अलग हूँ क्या अरे मैं ही तो ये कृष्ण हूँ और ये कृष्ण ही तो राधा हैं, हम दोनों अलग थोड़े न है… हम दोनों एक हैं “……….अब तो युगल स्वरुप का दर्शन पाकर महात्मा जी आनंदविभोर हो उठे…उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी…..

अब जैसे ही किशोरी राधा-कृष्ण जटा सुलझाने आगे बढे…महात्मा जी चरणों में गिर पड़े और बोले ” अब जटा क्या सुलझाते हो युगल जी अब तो जीवन ही सुलझा दो…..मुझे नित्य लीला में प्रवेश देकर इस संसार से मुक्त करो दो”………महात्मा जी ने ऐसी प्रार्थना करी और प्रणाम करते-करते उनका शरीर शांत हो गया….स्वामिनी जी ने उनको नित्य लीला में स्थान प्रदान किया…….. ये भाव राज्य की लीला है, भगवान श्रीराधा-माधव में कोई भेद नहीं है…..दोनों एक प्राण दो देह हैं…..जो मनुष्य अपनी अल्पज्ञतावश मूढ़तावश या अहंकारवश किशोरी राधा-कृष्ण दोनों में भेद समझते हैं वे संसार के घोर मायाजाल में गिर जाते हैं उनका पतन होना निश्चित है, वे भक्ति के परमपद को कभी प्राप्त नहीं करते……..युगल चरणों में प्रेमभाव रखते हुए किशोरी राधा-कृष्ण एवं समस्त भक्तवृंद को दास का दंडवत प्रणाम….भगवान श्रीराधा-कृष्ण की कृपा सदैव हम सभी पर बरसती रहे.

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गुरूवार को भगवान विष्‍णु और बृहस्‍पति गुरू की पूजा और व्रत को करने से धन संपत्ति तो होता ही इसके साथ ही कर्ज से भी मुक्ति मिलती है

👉🏼 जानें लाभ

बुधवार का अक्षय तृतीया को भी भगवान विष्णु की पूजा का महत्व है। इसदिन भगवान विष्णु को पीले वस्त्र धारण करा कर स्‍थापित किए जाते हैं और हल्दी, चावल से विधि पूर्वक पूजन किया जाता है। शेष समय में गुरुवार को भगवान बृहस्पति की पूजा का विधान है। इस दिन गुरू भगवान और विष्‍णु जी की पूजा और व्रत करने से ऋण मुक्ति, शीघ्र विवाह और संपत्ति प्राप्‍ति होती है। बृहस्पति देव को बुद्धि का कारक भी माना गया है अत: इस पूजा से ज्ञान में भी वृद्धि होती है। इसके अलावा ऐसा भी कहा जाता है कि विष्‍णु जी की पूजा से मनाकामनायें पूर्ण होती हैं और अच्‍छा स्‍वास्‍थ भी प्राप्‍त होता है।

👉🏼 ऐसे करें पूजा

इस दिन केले के पेड़ की पूजा करना अच्छा माना जाता है। गुरुवार के दिन पूजा और व्रत रखने वालों को पीले वस्त्र धारण कर के सुबह उठकर बृहस्पति देव का पूजन करना चाहिए। पूजा में पीली वस्तुएं जैसे पीले फूल, चने की दाल, मुनक्का, पीली मिठाई, पीले चावल और हल्दी चढ़ा का प्रयोग किया जाता है। इस व्रत में केले के पेड़ की पूजा की पूजा का सर्वाधिक महत्‍व होता है। पूजा के बाद बृहस्‍पतिवार की कथा का श्रद्धा पूर्वक पाठ करना चाहिए। इससे मनोकामना की पूर्ति होती है। इसके लिए कन्याओं को भोजन कराएं, पीली चुनरी या पीला रुमाल भेंट करें। अच्‍छे स्वास्थ्य और पारिवारिक सुख शांति के लिए विष्‍णु जी को चने की दाल चढ़ाई जाती है। यदि विवाह में किसी भी प्रकार की समस्या आ रही हो तो गुरुवार का व्रत करना चाहिए और विष्‍णु जी को जुड़े हुए फल चढ़ायें, साथ ही कर्ज से मुक्‍त होने के लिए आम लगे हुए आम के बौर से पूजा करें।

👉🏼 गुरू गृह करें मजबूत

गुरु ग्रह के सुदृढ़ होने से जीवन में सुख शांति आती है और धन लाभ होता है। इसके लिए नीचे दिए आसान उपायों का पालन करें।

1. सबसे पहले गुरुवार का व्रत रखें। इस दिन पीले वस्त्र पहनें और बिना नमक का पीला ही भोजन करें जैसे बेसन के लड्डू, आम बेसन की रोटी आदि।

2. गुरु बृहस्पति की पंचोपचार से पूजा करें। इसमें केसरिया चंदन, पीले चावल, पीले फूल व भोग में पीले पकवान या फल अर्पित करें। अंत में वृहस्‍पति भगवान की आरती करें।

3. गुरु मंत्र ‘ॐ बृं बृहस्पते नम’ का जाप कम से कम 108 बार करें।

4. पीली वस्तुओं का दान करें।

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वृन्दावन के सात ठाकुर जो स्वयं प्राकट्य है …

किसी मूर्तिकार के द्वारा बनाये हुए नही…

1. गोविंददेव जी
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कहाँ से मिली : वृंदावन के गौमा टीला से
यहाँ है स्थापित :जयपुर के राजकीय महल में
रूप गोस्वामी को श्री कृष्ण की यह मूर्ति वृंदावन के गौमा टीला नामक स्थान से वि.सं.1535 में मिली थी। उन्होंने उसी स्थान पर छोटी सी कुटिया में इस मूर्ति को स्थापित किया। इसके बाद रघुनाथ भट्ट गोस्वामी ने गोविंददेव जी की सेवा पूजा संभाली। उन्ही के समय में आमेर नरेश मानसिंह ने गोविंददेव जी का भव्य मंदिर बनवाया और इस मंदिर में गोविंददेव जी 80 साल विराजे। औरंगजेब के शासन काल में बृज पर हुए हमले के समय गोविंद जी को उनके भक्त जयपुर ले गए। तबसे गोविंदजी जयपुर के राजकीय महल मंदिर में विराजमान हैं।

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2. मदन मोहन जी
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कहाँ से मिली : वृंदावन के कालीदह के पास द्वादशादित्य टीले से
यहाँ है स्थापित : करौली (राजस्थान ) में
यह मूर्ति अद्वैत प्रभु को वृंदावन के द्वादशादित्य टीले से प्राप्त हुई थी। उन्होंने सेवा पूजा के लिए यह मूर्ति मथुरा के एक चतुर्वेदी परिवार को सौंप दी और चतुर्वेदी परिवार से मांग कर सनातन गोस्वामी ने वि.सं 1590 (सन् 1533) में फिर से वृंदावन के उसी टीले पर स्थापित किया। बाद मे क्रमश: मुलतान के नामी व्यापारी रामदास कपूर और उड़ीसा के राजा ने यहाँ मदन मोहन जी का विशाल मंदिर बनवाया। मुगलिया आक्रमण के समय भक्त इन्हे जयपुर ले गए पर कालांतर मे करौली के राजा गोपाल सिंह ने अपने राजमहल के पास बड़ा सा मंदिर बनवाकर मदनमोहन जी की मूर्ति को स्थापित किया। तब से मदनमोहन जी करौली में दर्शन दे रहे हैं।

3. गोपीनाथ जी
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कहाँ से मिली : यमुना किनारे वंशीवट से
यहैं है स्थापित : पुरानी बस्ती, जयपुर
श्री कृष्ण की यह मूर्ति संत परमानंद भट्ट को यमुना किनारे वंशीवट पर मिली और उन्होंने इस प्रतिमा को निधिवन के पास स्थापित कर मधु गोस्वामी को इनकी सेवा पूजा सौंपी। बाद में रायसल राजपूतों ने यहाँ मंदिर बनवाया पर औरंगजेब के आक्रमण के दौरान इस प्रतिमा को भी जयपुर ले जाया गया। तबसे गोपीनाथ जी वहाँ पुरानी बस्ती स्थित गोपीनाथ मंदिर में विराजमान हैं।

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4. जुगलकिशोर जी
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कहाँ से मिली : वृंदावन के किशोरवन से
यहाँ है स्थापित : पुराना जुगलकिशोर मंदिर, पन्ना (म .प्र)
भगवान जुगलकिशोर की यह मुर्ति हरिराम व्यास को वि. सं 1620 की माघ शुक्ल एकादशी को वृंदावन के किशोरवन नामक स्थान पर मिली। व्यास जी ने उस प्रतिमा को वही प्रतिष्ठित किया।बाद मे ओरछा के राजा मधुकर शाह ने किशोरवन के पास मंदिर बनवाया। यहाँ भगवान जुगलकिशोर अनेक वर्षो तक विराजे पर मुगलिया हमले के समय उनके भक्त उन्हें ओरछा के पास पन्ना ले गए। ठाकुर आज भी पन्ना के पुराने जुगलकिशोर मंदिर मे दर्शन दे रहे है।

5. राधारमण जी
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कहाँ से मिली : नेपाल की गंडकी नदी से
यहाँ है स्थापित : वृंदावन
गोपाल भट्ट गोस्वामी को नेपाल की गंडक नदी मे एक शालिग्राम मिला। वे उसे वृंदावन ले आए और केसीघाट के पास मंदिर मे प्रतिष्ठित कर दिया। एक दिन किसी दर्शनार्थी ने कटाक्ष कर दिया कि चंदन लगाए शालिग्राम जी तो एसे लगते है मानो कढ़ी में बैंगन पड़े हों। यह सुनकर गोस्वामी जी बहुत दुःखी हुए पर सुबह होते ही शालिग्राम से राधारमण जी की दिव्य प्रतिमा प्रकट हो गई। यह दिन वि. सं 1599 (सन् 1542) की वैशाख पूर्णिमा का था। वर्तमान मंदिर मे इनकी प्रतिष्ठापना सन् 1884 मे कि गई।

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6. राधावल्लभ जी
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कहाँ से मिली : यह प्रतिमा हित हरिवंश जी को दहेज में मिली थी
यहाँ है स्थापित : वृंदावन
भगवान श्रीकृष्ण की यह सुदंर प्रतिशत प्रतिमा हित हरिवंश जी को दहेज मे मिली थी। उनका विवाह देवबंद से वृंदावन आते समय चटथावल गाव में आत्मदेव नामक एक ब्राह्मण की बेटी से हुआ था। पहले वृंदावन के सेवाकुंज में (वि. सं 1591)और बाद में सुंदरलाल भटनागर द्वारा बनवाया गया (कुछ लोग इसका श्रेय रहीम को देते है ) लाल पत्थर वाले पुराने मंदिर में प्रतिष्ठित हुए।
मुगलिया हमले के समय भक्त इन्हे कामा (राजस्थान ) ले गए थे। वि. सं 1842 में एक बार फिर भक्त इस प्रतिमा को वृंदावन ले आये और यहा नवनिर्मित मंदिर में प्रतिष्ठित किया। तब से राधावल्लभ जी की प्रतिमा यहीं विराजमान है।

7. बांकेबिहारी जी
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कहाँ से मिली : वृंदावन के निधिवन से
यहैं है स्थापित : वृंदावन
मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी को स्वामी हरिदासजी की आराधना को साकार रूप देने के लिए बांकेबिहारी जी की प्रतिमा निधिवन मे प्रकट हुई। स्वामी जी ने उस प्रतिमा को वहीं प्रतिष्ठित कर दिया। मुगलिया आक्रमण के समय भक्त इन्हें भरतपुर (राजस्थान ) ले गए। वृंदावन में ‘भरतपुर वाला बगीचा’ नाम के स्थान पर वि. सं 1921 में मंदिर निर्माण होने पर बांकेबिहारी जी एक बार फिर वृंदावन मे प्रतिष्ठित हुए। तब से बिहारीजी यहीं दर्शन दे रहे है।
बिहारी जी की प्रमुख विषेश बात यह है कि इन की साल में केवल एक दिन (जन्माष्टमी के बाद भोर में) मंगला आरती होती है, जबकि अन्य वैष्णव मंदिरों में नित्य सुबह मंगला आरती होने की परंपरा है।
🙏 राधे राधे 🙏

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भगवान शिव कृष्ण मिलन

जब भगवान श्रीकृष्ण जी का जन्म हुआ तब उस समय भोले बाबा समाधि में थे। जब वह समाधि से जागृत हुए तब उन्हें मालूम हुआ कि भगवान श्रीकृष्ण ब्रज में बाल रूप में प्राक्टय हो गया है, इससे बाबा भोलेनाथ ने बालकृष्ण के दर्शन के लिए विचार किये। भगवान शिवजी ने जोगी (साधु) का स्वाँग सजा और अपने दो गण श्रृंगी व भृंगी को भी अपना शिष्य बनाकर साथ चल दिए। भगवान शंकर अलख जगाते हुए गोकुल पहुचे. शिव जी नंदभवन के द्वार पर आकर खड़े हो गए. तभी नन्द भवन से एक दासी जोगी के रूप मे आये शिवजी के पास आई और कहने लगी कि यशोदाजी ने ये भिक्षा भेजी है, इसे स्वीकार करें और लाला को आशीर्वाद दे दें. शिव बोले मैं भिक्षा नहीं लूंगा, गोकुल में यशोदाजी के घर बालक का जन्म हुआ हैं। मैं उनके दर्शन के लिए आया हूँ। मुझे लाला का दर्शन करना हैं।


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दासी भीतर जाकर यशोदामाता को सब बात बताई। यशोदाजी को यह सुन बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने बाहर झाँककर देखा कि एक साधु खड़े हैं। जिन्होंने बाघाम्बर पहना है, गले में सर्प हैं, भव्य जटा हैं, हाथ में त्रिशूल है। यशोदामाता ने साधु (शिवाजी) को प्रणाम करते हुए कहा कि, मै लाला को बाहर नहीं लाऊंगी, आपके गले में सर्प है, जिसे देखकर मेरा लाला डर जाएगा. शिवजी बोले कि माता तेरा लाला तो काल का काल है, ब्रह्म का ब्रह्म है. वह किसी से नहीं डर सकता, उसे किसी की भी कुदृष्टि नहीं लग सकती और वह तो मुझे पहचानता है.वह मुझे देखकर प्रसन्न होगा। माँ, मैं लाला के दर्शन के बिना ना ही पानी पीऊँगा और ना ही यहा से जाऊँगा । और यही आपके आँगन में ही समाधि लगाकर बैठ जाऊँगा।

आज भी नन्दगाँव में नन्दभवन के बाहर आशेश्वर महादेव का मंदिर है जहां शिवजी श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये बैठे थे । शिवजी ध्यान करते हुए तन्मय हुए तब बाल कृष्ण लाला उनके हृदय में पधारे। और बाल कृष्ण ने अपनी लीला करना शुरु की । बालकृष्ण ने जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया । माता यशोदा ने उन्हें दूध, झुला झुलाया, खिलौने आदि देकर चुप कराने की बहुत कोशिश की परन्तु लीला चुप हुए । एक दासी ने कहा माता मुझे लगता है, आँगन में जो साधु बैठे हैं उन्होंने ही लाला पर कोई मन्त्र फेर रहे है। तब माता यशोदा ने शांडिल्य ऋषि को लाला की नजर उतारने के लिए बुलाया।


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शांडिल्य ऋषि समझ गए कि भगवान शंकर ही कृष्णजी के बाल स्वरूप के दर्शन के लिए आए हैं। तब उन्होंने माता यशोदा से कहा, माता आँगन में जो साधु बैठे हैं, उनका लाला से जन्म-जन्म का सम्बन्ध है। उन्हें लाला का दर्शन करवाइये। तब माता यशोदा ने लाला का सुन्दर श्रृंगार कर बालकृष्ण को पीताम्बर पहना लाला को गले में बाघ के सुवर्ण जड़ित नाखून को पहनाया। फिर माता यशोदा ने शिवजी को भीतर बुलाया। नन्दगाँव में नन्दभवन के अन्दर आज भी नंदीश्वर महादेव हैं। श्रीकृष्ण का बाल स्वरूप अति दिव्य है। श्रीकृष्ण और शिवजी की आँखें जब मिली तब शिवजी अति आनंद हो उठे । शिवजी की दृष्टि पड़ी तब लाला हँसने लगे। यह देख माता यशोदा को आश्चर्य हुआ कि अभी तो लाला इतना रो रहा था, अब हँसने लगा। माता ने शिवजी का प्रणाम किया और लाला को शिवजी की गोद में दे दिया। माता यशोदा ने शिवजी (जोगी) से लाला को नजर न लगने का मन्त्र देने को कहा। जोगी रूपी शिवजी ने लाला की नजर उतारी और बालकृष्ण को गोद में लेकर नन्दभवन के आँगन में नाचने लगे । पूरा नन्दगाँव शिवमय बन गया । आज भी ऐसा प्रतीत लगता है जैसे नन्दगाँव पहाड़ पर है और नीचे से दर्शन करने पर भगवान शंकर बैठे हैं। शिवजी योगीश्वर हैं और श्रीकृष्ण योगेश्वर हैं। शिवजी ने श्रीकृष्ण की स्तुति की । भगवान श्रीकृष्ण भी भगवान श्रीशिव से कहते हैं मुझे आपसे बढ़कर कोई प्रिय नहीं है, आप मुझे अपनी आत्मा से भी अधिक प्रिय हैं।


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