चरणामृत का महत्व

अक्सर जब हम मंदिर जाते है तो पंडित जी हमें भगवान का चरणामृत देते है,क्या कभी हमने ये जानने की कोशिश की कि चरणामृतका क्या महत्व है, शास्त्रों में कहा गया है:

अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णो: पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।।

“अर्थात भगवान विष्णु के चरण का अमृत रूपी जल समस्त पाप -व्याधियों का शमन करने वाला है तथा औषधी के समान है।”

“जो चरणामृत पीता है उसका पुनः जन्म नहीं होता” जल तब तक जल ही रहता है जब तक भगवान के चरणों से नहीं लगता, जैसे ही भगवान के चरणों से लगा तो अमृत रूप हो गया और चरणामृत बन जाता है।

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चरणामृत से सम्बन्धित एक पौराणिक गाथा काफी प्रसिद्ध है जो हमें श्रीकृष्ण एवं राधाजी के अटूट प्रेम की याद दिलाती है। कहते हैं कि एक बार नंदलाल काफी बीमार पड़ गए। कोई दवा या जड़ी-बूटी उन पर बेअसर साबित हो रही थी। तभी श्रीकृष्ण ने स्वयं ही गोपियों से एक ऐसा उपाय करने को कहा जिसे सुन गोपियां दुविधा में पड़ गईं।

श्रीकृष्ण हुए बीमार,,,, दरअसल श्रीकृष्ण ने गोपियों से उन्हें चरणामृत पिलाने को कहा। उनका मानना था कि उनके परम भक्त या फिर जो उनसे अति प्रेम करता है तथा उनकी चिंता करता है यदि उसके पांव को धोने के लिए इस्तेमाल हुए जल को वे ग्रहण कर लें तो वे निश्चित ही ठीक हो जाएंगे।लेकिन दूसरी ओर गोपियां और भी चिंता में पड़ गईं। श्रीकृष्ण उन सभी गोपियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण थे, वे सभी उनकी परम भक्त थीं लेकिन उन्हें इस उपाय के निष्फल होने की चिंता सता रही थी।

उनके मन में बार-बार यह आ रहा था कि यदि उनमें से किसी एक गोपी ने अपने पांव के इस्तेमाल से चरणामृत बना लिया और कृष्णजी को पीने के लिए दिया तो वह परम भक्त का कार्य तो कर देगी। परन्तु किन्हीं कारणों से कान्हा ठीक ना हुए तो उसे नर्क भोगना पड़ेगा।

अब सभी गोपियां व्याकुल होकर श्रीकृष्ण की ओर ताक रहीं थी और किसी अन्य उपाय के बारे में सोच ही रहीं थी कि वहां कृष्ण की प्रिय राधा आ गईं। अपने कृष्ण को इस हालत में देख के राधा के तो जैसे प्राण ही निकल गए हों।जब गोपियों ने कृष्ण द्वारा बताया गया उपाय राधा को बताया तो राधा ने एक क्षण भी व्यर्थ करना उचित ना समझा और जल्द ही स्वयं के पांव धोकर चरणामृत तैयार कर श्रीकृष्ण को पिलाने के लिए आगे बढ़ी।

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राधा जानतीं थी कि वे क्या कर रही हैं। जो बात अन्य गोपियों के लिए भय का कारण थी ठीक वही भय राधा को भी मन में था लेकिन कृष्ण को वापस स्वस्थ करने के लिए वह नर्क में चले जाने को भी तैयार थीं।आखिरकार कान्हा ने चरणामृत ग्रहण किया और देखते ही देखते वे ठीक हो गए। क्योंकि वह राधा ही थीं जिनके प्यार एवं सच्ची निष्ठा से कृष्णजी तुरंत स्वस्थ हो गए। अपने कृष्ण को निरोग देखने के लिए राधाजी ने एक बार भी स्वयं के भविष्य की चिंता ना की और वही किया जो उनका धर्म था।

इतिहास गवाह है इस बात का… राधा-कृष्ण का कभी विवाह ना हुआ लेकिन उनका प्यार इतना पवित्र एवं सच्चा था कि आज भी दोनों का नाम एक साथ लेने में भक्त एक क्षण भी संदेह महसूस नहीं करते। उनके भक्तों के लिए कृष्ण केवल राधा के हैं तथा राधा भी कृष्ण की ही हैं।

राधा-कृष्ण की इस कहानी ने चरणामृत को एक ऐतिहासिक पहलू तो दिया ही लेकिन आज भी चरणामृत को प्रभु का प्रसाद मानकर भक्तों में बांटा जाता है। पीतल के बर्तन में पीतल के ही चम्मच से, थोड़ा मीठा सा यह अमृत भक्तों के कंठ को पवित्र बनाता है।

जब भगवान का वामन अवतार हुआ, और वे राजा बलि की यज्ञ शाला में दान लेने गए तब उन्होंने तीन पग में तीन लोक नाप लिए जब उन्होंने पहले पग में नीचे के लोक नाप लिए और दूसरे में ऊपर के लोक नापने लगे तो जैसे ही ब्रह्म लोक में उनका चरण गया तो ब्रह्मा जी ने अपने कमंडलु में से जल लेकर भगवान के चरण धोए और फिर चरणामृत को वापस अपने कमंडल में रख लिया,वह चरणामृत गंगा जी बन गई, जो आज भी सारी दुनिया के पापों को धोती है, ये शक्ति उनके पास कहाँ से पात्र शक्ति है भगवान के चरणों की जिस पर ब्रह्मा जी ने साधारण जल चढाया था पर चरणों का स्पर्श होते ही बन गई गंगा जी।

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जब हम बाँके बिहारी जी की आरती गाते है तो कहते है – “चरणों से निकली गंगा प्यारी जिसने सारी दुनिया तारी”

धर्म में इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवन किया जाता है। चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना गया है।

कहते हैं भगवान श्री राम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।

चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है। चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है।

आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है। उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते।

इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है। तुलसी के पत्ते पर जल इतने परिमाण में होना चाहिए कि सरसों का दाना उसमें डूब जाए । ऐसा माना जाता है कि तुलसी चरणामृत लेने से मेधा, बुद्धि,स्मरण शक्ति को बढ़ाता है।

इसीलिए यह मान्यता है कि भगवान का चरणामृत औषधी के समान है। यदि उसमें तुलसी पत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधीय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है। कहते हैं सीधे हाथ में तुलसी चरणामृत ग्रहण करने से हर शुभ का या अच्छे काम का जल्द परिणाम मिलता है।

इसीलिए चरणामृत हमेशा सीधे हाथ से लेना चाहिये, लेकिन चरणामृत लेने के बाद अधिकतर लोगों की आदत होती है कि वे अपना हाथ सिर पर फेरते हैं। चरणामृत लेने के बाद सिर पर हाथ रखना सही है या नहीं यह बहुत कम लोग जानते हैं.?

दरअसल शास्त्रों के अनुसार चरणामृत लेकर सिर पर हाथ रखना अच्छा नहीं माना जाता है।कहते हैं इससे विचारों में सकारात्मकता नहीं बल्कि नकारात्मकता बढ़ती है। इसीलिए चरणामृत लेकर कभी भी सिर पर हाथ नहीं फेरना चाहिए।

कृपया इस जानकारी को मित्र गण एवं अपने निकटतम परिजनों, और परिवार से साझा व वार्तालाप या परामर्श करें।

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गैलरी

पिता जिद कर रहा था कि उसकी चारपाई गैलरी में डाल दी जाये।
बेटा परेशान था।

बहू बड़बड़ा रही थी….. कोई बुजुर्गों को अलग कमरा नही देता। हमने दूसरी मंजिल पर कमरा दिया…. सब सुविधाएं हैं, नौकरानी भी दे रखी है। पता नहीं, सत्तर की उम्र में सठिया गए हैं?

पिता कमजोर और बीमार हैं….
जिद कर रहे हैं, तो उनकी चारपाई गैलरी में डलवा ही देता हूँ। निकित ने सोचा। पिता की इच्छा की पू्री करना उसका स्वभाव था।

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अब पिता की चारपाई गैलरी में आ गई थी।
हर समय चारपाई पर पडे रहने वाले पिता
अब टहलते टहलते गेट तक पहुंच जाते ।
कुछ देर लान में टहलते । लान में खेलते
नाती – पोतों से बातें करते ,
हंसते , बोलते और मुस्कुराते ।
कभी-कभी बेटे से मनपसंद खाने की चीजें
लाने की फरमाईश भी करते ।
खुद खाते , बहू – बटे और बच्चों को भी खिलाते ….
धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य अच्छा होने लगा था।

दादा ! मेरी बाल फेंको… गेट में प्रवेश करते हुए निकित ने अपने पाँच वर्षीय बेटे की आवाज सुनी,
तो बेटा अपने बेटे को डांटने लगा…:
अंशुल बाबा बुजुर्ग हैं, उन्हें ऐसे कामों के लिए मत बोला करो।

पापा ! दादा रोज हमारी बॉल उठाकर फेंकते हैं….
अंशुल भोलेपन से बोला।

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क्या… “निकित ने आश्चर्य से पिता की तरफ देखा?
पिता ! हां बेटा तुमने ऊपर वाले कमरे में सुविधाएं तो बहुत दी थीं। लेकिन अपनों का साथ नहीं था। तुम लोगों से बातें नहीं हो पाती थी। जब से गैलरी मे चारपाई पड़ी है, निकलते बैठते तुम लोगों से बातें हो जाती है। शाम को अंशुल -पाशी का साथ मिल जाता है।

पिता कहे जा रहे थे और निकित सोच रहा था…..

बुजुर्गों को शायद भौतिक सुख सुविधाऔं से ज्यादा अपनों के साथ की जरूरत होती है

बुज़ुर्गों का सम्मान करें ।
यह हमारी धरोहर है …!

यह वो पेड़ हैं, जो थोड़े कड़वे है, लेकिन इनके फल बहुत मीठे है, और इनकी छांव का कोई मुक़ाबला नहीं !

लेख को पढ़ने के उपरांत अन्य समूहों में साझा अवश्य करें…!!

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स्वर्ग – नरक

एक बुजुर्ग औरत मर गई, यमराज लेने आये।

औरत ने यमराज से पूछा, आप मुझे स्वर्ग ले जायेगें या नरक।

यमराज बोले दोनों में से कहीं नहीं।

तुमनें इस जन्म में बहुत ही अच्छे कर्म किये हैं, इसलिये मैं तुम्हें सिधे प्रभु के धाम ले जा रहा हूं।

बुजुर्ग औरत खुश हो गई, बोली धन्यवाद, पर मेरी आपसे एक विनती है।

मैनें यहां धरती पर सबसे बहुत स्वर्ग – नरक के बारे में सुना है मैं एक बार इन दोनों जगाहो को देखना चाहती हूं।

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यमराज बोले तुम्हारे कर्म अच्छे हैं, इसलिये मैं तुम्हारी ये इच्छा पूरी करता हूं।

चलो हम स्वर्ग और नरक के रसते से होते हुए प्रभु के धाम चलेगें।

दोनों चल पडें, सबसे पहले नरक आया।

नरक में बुजुर्ग औरत ने जो़र जो़र से लोगो के रोने कि आवाज़ सुनी।

वहां नरक में सभी लोग दुबले पतले और बीमार दिखाई दे रहे थे।

औरत ने एक आदमी से पूछा यहां आप सब लोगों कि ऐसी हालत क्यों है।

आदमी बोला तो और कैसी हालत होगी, मरने के बाद जबसे यहां आये हैं, हमने एक दिन भी खाना नहीं खाया।

भूख से हमारी आतमायें तड़प रही हैं

बुजुर्ग औरत कि नज़र एक वीशाल पतिले पर पडी़, जो कि लोगों के कद से करीब 300 फूट ऊंचा होगा, उस पतिले के ऊपर एक वीशाल चम्मच लटका हुआ था।

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उस पतिले में से बहुत ही शानदार खुशबु आ रही थी।

बुजुर्ग औरत ने उस आदमी से पूछा इस पतिले में कया है।

आदमी मायूस होकर बोला ये पतिला बहुत ही स्वादीशट खीर से हर समय भरा रहता है।

बुजुर्ग औरत ने हैरानी से पूछा, इसमें खीर है

तो आप लोग पेट भरके ये खीर खाते क्यों नहीं, भूख से क्यों तड़प रहें हैं।

आदमी रो रो कर बोलने लगा, कैसे खायें

ये पतिला 300 फीट ऊंचा है हममें से कोई भी उस पतिले तक नहीं पहुँच पाता।

बुजुर्ग औरत को उन पर तरस आ गया
सोचने लगी बेचारे, खीर का पतिला होते हुए भी भूख से बेहाल हैं।

शायद ईश्वर नें इन्हें ये ही दंड दिया होगा

यमराज बुजुर्ग औरत से बोले चलो हमें देर हो रही है।

दोनों चल पडे़, कुछ दूर चलने पर स्वरग आया।

वहां पर बुजुर्ग औरत को सबकी हंसने,खिलखिलाने कि आवाज़ सुनाई दी।

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सब लोग बहुत खुश दिखाई दे रहे थे।
उनको खुश देखकर बुजुर्ग औरत भी बहुत खुश हो गई।

पर वहां स्वरग में भी बुजुर्ग औरत कि नज़र वैसे ही 300 फूट उचें पतिले पर पडी़ जैसा नरक में था, उसके ऊपर भी वैसा ही चम्मच लटका हुआ था।

बुजुर्ग औरत ने वहां लोगो से पूछा इस पतिले में कया है।

स्वर्ग के लोग बोले के इसमें बहुत टेस्टी खीर है।

बुजुर्ग औरत हैरान हो गई

उनसे बोली पर ये पतिला तो 300 फीट ऊंचा है

आप लोग तो इस तक पहुँच ही नहीं पाते होगें

उस हिसाब से तो आप लोगों को खाना मिलता ही नहीं होगा, आप लोग भूख से बेहाल होगें

पर मुझे तो आप सभी इतने खुश लग रहे हो, ऐसे कैसे

लोग बोले हम तो सभी लोग इस पतिले में से पेट भर के खीर खाते हैं

औरत बोली पर कैसे,पतिला तो बहुत ऊंचा है।

लोग बोले तो क्या हो गया पतिला ऊंचा है तो

यहां पर कितने सारे पेड़ हैं, ईश्वर ने ये पेड़ पौधे, नदी, झरने हम मनुष्यों के उपयोग के लिये तो बनाईं हैं

हमनें इन पेडो़ कि लकडी़ ली, उसको काटा, फिर लकड़ीयों के तुकडो़ को जोड़ के वीशाल सिढी़ का निर्माण किया

उस लकडी़ की सिढी़ के सहारे हम पतिले तक पहुंचते हैं

और सब मिलकर खीर का आंनद लेते हैं

बुजुर्ग औरत यमराज कि तरफ देखने लगी

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यमराज मुसकाये बोले

ईशवर ने स्वर्ग और नरक मनुष्यों के हाथों में ही सौंप रखा है,चाहें तो अपने लिये नरक बना लें, चाहे तो अपने लिये स्वरग, ईशवर ने सबको एक समान हालातो में डाला हैं

उसके लिए उसके सभी बच्चें एक समान हैं, वो किसी से भेदभाव नहीं करता

वहां नरक में भी पेेड़ पौधे सब थे, पर वो लोग खुद ही आलसी हैं, उन्हें खीर हाथ में चाहीये,वो कोई कर्म नहीं करना चाहते, कोई मेहनत नहीं करना चाहते, इसलिये भूख से बेहाल हैं

कयोकिं ये ही तो ईश्वर कि बनाई इस दुनिया का नियम है,जो कर्म करेगा, मेहनत करेगा, उसी को मीठा फल खाने को मिलेगा

दोस्तों ये ही आज का सुविचार है, स्वरग और नरक आपके हाथ में है
मेहनत करें, अच्छे कर्म करें और अपने जीवन को स्वरग बनाएं।

आप सबका दिन शुभ हो।

🙏🙏 जयश्री राधे कृष्णा🙏🙏

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पौष्टिक तत्वों से भरपूर टमाटर

पौष्टिक तत्वों से भरपूर टमाटर हर मौसम में सेवनीय है| इसमें सेव व संतरा दोनों के गुण पाए जाते हैं| आप चाहे इसे सब्जी में डालें ,सलाद के रूप में खाएं या किसी अन्य तरीके से सेवन करें इसमें भरपूर मात्रा में केल्शियम,फास्फोरस व विटामिन सी पाए जाते हैं |इसमें कार्बोहाईड्रेट की मात्रा बहुत कम होती है|इससे कई रोगों का निदान होता है| टमाटर इतने पौष्टिक होते हैं कि सुबह नाश्ते में सिर्फ दो टमाटर सम्पूर्ण भोजन के बराबर होते हैं|

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केंसर रोधी- टमाटर प्राकृतिक तौर पर केंसर से लड़ने का काम करता है इसका नियमित सेवन तमाम तरह के केंसर से बचाव में मदद करता है| जैसे गर्भाशय का केंसर,मुख का केंसर,खाने की नली,गला पेट,कोलन,रेक्टल,प्रोस्टेट,ओवेरियन आदि के केंसर| टमाटर में पाया जाने वाला लायकोपिन तत्त्व केंसर विरोधी गुण युक्त होता है| टमाटर में मौजूद एंटीआक्सीडेंट उन फ्री रेडिकल्स से लड़ने में मददगार होता है जो हमारी कोशिकाओं को नष्ट करते हैं

हड्डियों की मजबूती- टमाटर के सेवन से हड्डियां मजबूत बनती हैं| इसमें पाया जाने वाला विटामिन के और केल्शियम हड्डियों की मजबूती और रिपेयर दोनों काम करता है| इसमें मौजूद लायकोपिन से अस्थियों का घनत्व बढ़ता है|

ब्लड शूगर नियंत्रण में उपयोगी- टमाटर में पाया जाने वाला क्रोमियम ब्लड शूगर को नियंत्रित और नियमित रखने सहायक है डायबीटीज और दिल के रोगों में भी टमाटर की अहम उपयोगिता है सुबह उठते ही बिना कुल्ला किये एक पका टमाटर खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अच्छा है

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आँखों की रोशनी बढाता है- इसमें पाया जाने वाला विटामिन ऐ नेत्रों की ज्योति बढाने के अलावा रतौंधी रोग की रोकथाम करता है| एक रिसर्च के अनुसार टमाटर के उपयोग से आँखों में होने वाले गंभीर रोग मेक्युलर डिजनरेशन की रिस्क काफी कम हो जाती है

दमा रोग में सेवनीय -श्वास रोगियों को नियमित रूप से टमाटर खाना चाहिए| इससे श्वास नली की सूजन और संक्रमण कम हो जाता है | प्राकृतिक चिकित्सकों का मत है कि टमाटर खाने से फेफड़ों का अति संकुचन दूर होता है और खांसी तथा बलगम से भी राहत मिल जाती है|

वजन घटाने में सहायक- जो लोग अपना वजन घटाना चाहते हैं उनके लिए टमाटर बेहद लाभप्रद है टमाटर में बहुत कम केलोरी होती है|

झुर्रिया कम करता है- टमाटर के गूदे में नींबू का रस मिलाकर चेहरे पर लगाने से चेहरे की चमक बढ़ती है और झुर्रिया मिटती हैं| टमाटर और शहद के मिश्रण वाला फेस पेक भी बहुत उपयोगी है|

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रावण की शिक्षा

श्रीराम को जैसे ही विभीषण ने बताया कि रावण कि नाभि में अम्रत है और उसी के कारण रावण अपराजेय है। तो प्रभु राम ने एक बाण छोडकर रावण की नाभि का अम्रत सुखा दिया और अगले ही बाण में रावण धराशायी होकर रणभूमि में गिर पडा। यह देखते ही सम्पूर्ण वानर दल में खुशी की लहर दौड पडी रावण के गिरने के साथ ही युद्ध समाप्त हो गया था स्वर्ग से देवता भी पुष्प वर्षा करने लगे और पूरा वातावरण हर्ष से भर गया था।

इसी प्रसन्नता के वातावरण के बीच भगवान राम ने लक्ष्मण से बोले, भ्राता लक्ष्मण! सम्पूर्ण विश्व का शासक, परम शक्तिशाली, रावण आज रणभूमि में पडा अपनी म्रत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। रावण एक प्रराक्रमी योद्धा ही नहीं अपितु एक परम विद्वान भी था।

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ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर उसने वेदों, नीति-शास्त्र और राजनीति का गहन अध्ययन किया है। इस बहुमुखी प्रतिभा और वीरता से ही तो उसने अपना राज्य प्रथ्वी से इन्द्रलोक तक विस्तार कर लिया था।

वास्तव में रावण का जीवन अनुभवों का भंडार है। अत: मैं चाहता हुं कि तुम उसके देहावसान (म्रत्यु) होने से पहले ही शीघ्र ही उसके पास जाओ और उससे कुछ सीख/ज्ञान(टिप्स) लेकर आओ, जो भविष्य में तुम्हारे बहुत काम आयेगी। कहीं ऐसा ना हो कि उसके अनुभवों का भंडार भी उसी के साथ हमेशा के लिये विलुप्त हो जाय।

प्रसन्नता के इस अवसर पर राम के मुंह से यह बातें सुनकर लक्ष्मण को आश्चर्य हुआ कि भैया राम ये क्या कह रहे हैं। यह राक्षसों का राजा रावण, माता सीता के अपहरण जैसा निन्दनीय कर्म करने वाला यह रावण, और अब हारकर रणभूमि में पडा यह रावण भी क्या शिक्षा दे सकता है।

जिसने जीवने में कभी कोई अच्छा कर्म नहीं किया हो, वो रावण क्या ज्ञान देगा। लेकिन भैया राम कह रहे हैं, तो फ़िर तो जाना ही पडेगा। देखें क्या बताता है। लक्ष्मण अनबने मन से युद्ध भूमि में घायल पडे रावण के पास गये और उसके सिर के निकट जा कर खडे हो गये और बोले,

हे रावण! भैया राम ने कहा है कि मुझे तुमसे कुछ शिक्षा लेनी चाहिये। जल्दी बताओ, कि तुम मुझे क्या शिक्षा देने चाहते हो।

रावण ने अधबुझी आंखें खोल कर लक्ष्मण की ओर देखा, और एक व्यंग भरी मुस्कान देकर अपना मुंह दूसरी ओर मोड लिया। लक्ष्मण पुन: बोले,

अरे रावण जल्दी बोलो, क्या तुम कुछ कहना चाहते हो?

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रावण कुछ नहीं बोला और नेत्र बंद करके पडा रहा। लक्ष्मण को गुस्सा आ गया और वो अपने पांव पटकते हुए लौट आये और श्री राम से बोले,भैया वो अभिमानी रावण तो कुछ भी नहीं बोल रहा, वरन मुझे देखकर उसने अपना मुंह दूसरी ओर मोड लिया।

श्रीराम बोले,लक्ष्मण! जब हम किसी से कुछ वस्तु मांगते हैं तो हम विनम्रता पूर्वक विनती करते हैं। ठीक उसी प्रकार जब हम गुरु के पास ज्ञान लेने जाते हैं तो हमें विनीत होना अत्यंत आवश्यक है।

यदि मैने तुम्हें रावण से कुछ सीखने को भेजा तो इसका मतलब था कि रावण को हमने गुरु माना। अत: चाहे वो रणभूमि में हारा हुआ, हमारा परम शत्रु क्यों ना रहा हों, परन्तु ज्ञान की भिक्षा लेते समय हमें उसके सामने झुकना ही पडेगा। चलो तुम मेरे साथ चलो।

ऐसा कहकर श्रीराम, लक्ष्मण को लेकर उस दिशा कि ओर चल पडे, जहां घायल रावण अपनी म्रत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था। रावण की आंखे बंद थी और वह दर्द से कराह रहा था, उसके चारों ओर बचे हुये राक्षस विलाप कर रहे थे।

भगवान राम उसके पांवों के निकट जाकर खडे हो गये और बोले,हे राक्षस शिरोमणि रावण!, मैं रघुवंशी राम, तुम्हें और तुम्हारी वीरता को प्रणाम करता हूं।

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यह सुनकर आश्चर्य से रावण ने अपने नेत्र खोले और अपने चरणों के निकट विनम्र मुद्रा में करबद्ध, खडे श्रीराम को देखकर बोला,मेरा प्रणाम भी स्वीकार करें रघुकुल नंदन! किस उद्देश्य से आप ने रावण के पास आने का कष्ट किया, कृपया कहें।

हे राक्षस-राज! हमारी शत्रुता तो रणभूमि तक ही थी। आपको आपके कर्मों का दंड भी मिल चुका है
और हमारी शत्रुता भी आज समाप्त हो चुकी है। हे रावण! मैं आयु और अनुभव दोनो में आपसे बहुत छोटा हूं, और वहीं आपके पास असीम ज्ञान और अनुभव का भंडार है। इसलिये मेरी आपसे विनम्र विनती है कि आप अपने अनुभव रूपी ज्ञान के खजाने के सबसे मूल्यवान रत्न मुझे और मेरे भ्राता लक्ष्मण को प्रदान करें जो हमारे जीवन भर काम आये।

हे राम! वीरता और विनम्रता दोनों में ही आप अजेय हो। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुयी कि आप अब मुझे अपना शत्रु नहीं समझते हो, वास्तव में आपका ज्ञान तो मु्झसे कहीं अधिक है लेकिन आपने विनती कि है तो सुनिये। मैने अपने संपूर्ण जीवन में बस दो ही बातें सीखी हैं और ये दो बातें ही मेरे जीवन का सार हैं।

पहली बात यह है कि यदि आप कभी कोई अच्छा कार्य करना चाहते हैं तो उसे उसी समय कर डालो। थोडा सा भी विलंब या उसे कल पर मत टालो क्योंकि कल-कल करते हुए समय व्यतीत हो जाता है और अच्छा कार्य हमेशा के लिये अधूरा ही रहा जाता है।

हे रावण! कृपा करके उदाहरण भी दीजिये।

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यह बात तब की है जब मेरा राज्य अपनी सर्वश्रेष्ठ स्थिति में था। मैने प्रथ्वी, पाताल और इंद्रलोक (स्वर्ग) को भी जीत लिया था। मैने और मेरी राक्षस प्रजा ने अपने जीवन में कभी अच्छे कर्म तो किये नहीं थे तो ये मरने के बाद नरक लोक ही हमारी नियति था। तो मैने सोचा कि एक ऐसी सीढी बनाउंगा जो लंका से सीधे स्वर्ग तक जायेगी और उस सीढी से चढकर मेरी प्रजा स-शरीर स्वर्ग जा सकेगी।

ये एक अच्छा कार्य था परन्तु मैं इसे कल पर टालता रहा और आज तक यह अधूरा रह गया। इसके अतिरिक्त मैने सोचा था कि लंका के चारों तरफ़ ये खारे पानी का जो समुद्र है उसे में दूध के सागर में बदल दुंगा।

इससे लंका देखने में भी सुंदर लगेगी और मेरी प्रजा इस खारे पानी से भी मुक्ति पायेगी। परन्तु हे राम! ये दोनो ही अच्छे कार्य मैं कल पर टालते रहा कि अभी जल्दी क्या है, कल करुंगा पर वो कल कभी नहीं आया, और मैं आज मृत्यु के द्वार पर खडा हूं लेकिन ये काम अधूरे रह गये। इसलिये हे राम! कभी कोई अच्छा कार्य करने का मन हो तो उसी समय कर डालना उसे कल पर मत छोडना। ये मेरे जीवन की पहली सीख है।

धन्यवाद राक्षस राज, आपकी यह सीख वास्तव में अनमोल है। कृपा करके अब दूसरी शिक्षा भी प्रदान करें।

हे सू्र्यवंशी राम! दूसरी बात जो मैने अपने जीवन से सीखी वह यह है कि यदि मन मैं कोई अनुचित (गलत) काम करने का विचार आये तो उसे सदैव कल पर टाल दो।

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क्योंकि कल कभी आयेगा नहीं और इस तरह आप उस अनुचित कार्य करने से बच जाओगे। उदाहरण के रूप में, जब सूर्पनखा मेरे पास अपनी कटी नाक ले कर आयी तो उसने मुझसे कहा कि भैया मैं तो तुम्हारे लिये एक सुंदरी लाने गयी थी, लेकिन उस सुंदरी के साथ दो युवक भी थे जिन्होने मेरी यह दशा की। तुम जाओ और उस सुंदरी का अपहरण कर के ले आओ क्योंकि वह तो तुम्हारी रानी बनने के योग्य है। हे राम! मैने उस समय सीता का अपहरण करने में जरा भी विलंब नहीं किया। उसी क्षण गया और सीता का अपहरण कर के ले आया।

यदि मैने उस समय यह कार्य कल पर टाल दिया होता तो यह भी स्वर्ग की सीढी और दूध के सागर जी तरह कभी पूरा नहीं होता, और ना ही ये अपहरण होता और ना लंका का विनाश होता और ना ही मैं अपने कुल के साथ मारा जाता। तो राम यहीं दो बातें मैने जीवन से सीखी की अच्छे कार्य को करने में कभी विलंब मत करो और बुरे कार्य करने का मन हो तो सदैव आलसी बन जाओ।

तो यह थी वह शिक्षा जो रावण ने मरने से पहले दी। परन्तु अपने जीवन में हम साधारणत: इन बातों का विपरीत ही करते हैं। अपने पडोसी से लडना हो, या किसी मित्र को बातें सु्नानी हों, या अन्य अनुचित कार्य क्यों ना हों, हम इन कार्यों को करने में थोडा सा भी विलंब नहीं कर पाते हैं।

उसी क्षण जा कर करते हैं, और उसके विपरीत अच्छे काम करने में हमेशा यही सोचते हैं कि कल करेंगे, चाहे किसी की प्रशंसा करनी हो, किसी की सहायता करनी हो, या फ़िर रास्ते में बैठे दीन दुखियों को कुछ दान देना हो तो सदैव मन में यही विचार आता है कि अगली बार अवश्य करेंगे। परन्तु अच्छा काम करने का कल बहुत कम ही आ पाता है।

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हस्त – मुद्रा – चिकित्सा

मानव-शरीर अनन्त रहस्योंसे भरा हुआ है ।
शरीरकी अपनी एक मुद्रामयी भाषा है ।
जिसे करनेसे शारीरिक स्वास्थ्य-लाभ में सहयोग होता है ।
यह शरीर पंचतत्त्वोंके योगसे बना है ।

पाँच तत्त्व ये हैं
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(1) पृथ्वी,(2) जल,(3) अग्नि,(4) वायु,एवं
(5) आकाश।

हस्त-मुद्रा-चिकित्साके अनुसार हाथ तथा हाथोंकी अँगुलियों और अँगुलियोंसे बननेवाली मुद्राओंमें आरोग्यका राज छिपा हुआ है ।
हाथकी अँगुलियोंमें पंचतत्त्व प्रतिष्ठित हैं ।

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ऋषि-मुनियोंने हजारों साल पहले इसकी खोज कर ली थी एवं इसे उपयोगमें बराबर प्रतिदिन लाते रहे, इसीलिये वे लोग स्वस्थ रहते थे ।

ये शरीरमें चैतन्यको अभिव्यक्ति देनेवाली कुंजियाँ हैं ।

अँगुली में पंच तत्व
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हाथों की 10 अँगुलियों से विशेष प्रकार की आकृतियाँ बनाना ही हस्त मुद्रा कही गई है।

हाथों की सारी अँगुलियों में पाँचों तत्व मौजूद होते
हैं जैसे अँगूठे में अग्नि तत्व,तर्जनी अँगुली में वायु तत्व,मध्यमा अँगुली में आकाश तत्व,अनामिका अँगुली में पृथ्वी तत्व और कनिष्का अँगुली में
जल तत्व।

अँगुलियों के पाँचों वर्ग से अलग-अलग विद्युत धारा प्रवाहित होती है।
इसलिए मुद्रा विज्ञान में जब अँगुलियों का रोगानुसार आपसी स्पर्श करते हैं,तब रुकी हुई या असंतुलित विद्युत बहकर शरीर की शक्ति को पुन: जगा देती है और हमारा शरीर निरोग होने लगता है। ये अद्भुत मुद्राएँ करते ही यह अपना असर दिखाना शुरू कर देती हैं।

किसी भी मुद्राको करते समय जिन अँगुलियोंका कोई काम न हो उन्हें सीधी रखे।

वैसे तो मुद्राएँ बहुत हैं पर कुछ मुख्य मुद्राओंका वर्णन यहाँ किया जा रहा है, जैसे-

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(1) ज्ञान-मुद्रा
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विधि:- अँगूठेको तर्जनी अँगुलीके सिरेपर लगा दे।

शेष तीनों अँगुलियाँ चित्रके अनुसार सीधी रहेंगी।

लाभ:- स्मरण-शक्तिका विकास होता है और ज्ञानकी वृद्धि होती है,पढ़नेमें मन लगता है तथा अनिद्राका नाश,स्वभावमें परिवर्तन,अध्यात्म-शक्तिका विकास और क्रोधका नाश होता है ।

सावधानी:- खान-पान सात्त्विक रखना चाहिये,पान-पराग, सुपारी,जर्दा इत्यादि का सेवन न करे। अति उष्ण और अति शीतल पेय पदार्थोंका सेवन न करे।

(2) वायु-मुद्रा
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विधि:- तर्जनी अँगुलीको मोड़कर अँगूठेके मूलमें लगाकर हलका दबाये।शेष अँगुलियाँ सीधी रखे।

लाभ:- वायु शान्त होती है। लकवा, साइटिका, गठिया,संधिवात,घुटनेके दर्द ठीक होते हैं।
गर्दनके दर्द,रीढ़के दर्द आदि विभिन्न रोगोंमें फायदा होता है।

विशेष- इस मुद्रासे लाभ न होनेपर प्राण-मुद्रा
(संख्या 10)-के अनुसार प्रयोग करे।

सावधानी:- लाभ हो जानेतक ही करे इस मुद्रा को।

(3) आकाश-मुद्रा
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विधि:- मध्यमा अँगुलीको अँगूठेके अग्र भाग से मिलाये। शेष तीनों अँगुलियाँ सीधी रहें।

लाभ:‌- कानके सब प्रकारके रोग जैसे बहरापन आदि,हड्डियोंकी कमजोरी तथा हृदय-रोग ठीक
होता है।

सावधानी:- भोजन करते समय एवं चलते-फिरते
यह मुद्रा न करे। हाथोंको सीधा रखे। लाभ हो जानेतक ही करे।

(4) शून्य-मुद्रा
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विधि:- मध्यमा अँगुलीको मोड़कर अँगुष्ठके मूलमें लगाये एवं अँगूठेसे दबाये।

लाभ:- कानके सब प्रकारके रोग जैसे बहरापन आदि दूर होकर शब्द साफ सुनायी देता है,
मसूढ़े की पकड़ मजबूत होती है तथा गलेके रोग एवं थायरायड रोगमें फायदा होता है।

(5) पृथ्वी-मुद्रा
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विधि:- अनामिका अँगुलीको अँगूठेसे लगाकर रखे।

लाभ:- शरीरमें स्फूर्ति,कान्ति एवं तेजस्विता
आती है।

दुर्बल व्यक्ति मोटा बन सकता है,वजन बढ़ता है, जीवनी शक्तिका विकास होता है। यह मुद्रा पाचन-क्रिया ठीक करती है,सात्त्विक गुणोंका विकास करती है,दिमागमें शान्ति लाती है तथा विटामिनकी कमीको दूर करती है।

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(6) सूर्य‌‌-मुद्रा
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विधि:- अनामिका अँगुलीको अँगूठेके मूलपर लगाकर अँगूठेसे दबाये।

लाभ:- शरीर संतुलित होता है,वजन घटता है, मोटापा कम होता है।
शरीरमें उष्णताकी वृद्धि,तनावमें कमी,शक्तिका विकास, खूनका कोलस्ट्रॉल कम होता है। यह मुद्रा मधुमेह, यकृत्‌ (जिगर)- के दोषोंको दूर करती है।

सावधानी:- दुर्बल व्यक्ति इसे न करे। गर्मी में ज्यादा समय तक न कर।

(7) वरुण-मुद्रा
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विधि:- कनिष्ठा अँगुलीको अँगूठेसे लगाकर मिलाये।

लाभ:- यह मुद्रा शरीरमें रूखापन नष्ट करके चिकनाई बढ़ाती है,चमड़ी चमकीली तथा मुलायम बनाती है। चर्म-रोग,रक्त-विकार एवं जल-तत्त्वकी कमी से उत्पन्न व्याधियोंको दूर करती है। मुँहासों को नष्ट करती और चेहरेको सुन्दर बनाती है।

सावधानी‌:- कफ-प्रकृतिवाले इस मुद्राका प्रयोग अधिक न करें।

(8) अपान-मुद्रा
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विधि:- मध्यमा तथा अनामिका अँगुलियोंको अँगूठेके अग्रभागसे लगा दें।

लाभ:- शरीर और नाड़ी की शुद्धि तथा कब्ज दूर
होता है। मल-दोष नष्ट होते हैं, बवासीर ठीक होता है। वायु-विकार,मधुमेह,मूत्रावरोध,गुर्दोंके दोष,दाँतोंके दोष दूर होते हैं। पेटके लिये उपयोगी है,हृदय-रोगमें फायदा होता है तथा यह पसीना लाती है।

सावधानी:- इस मुद्रासे मूत्र अधिक होगा।

(9) अपान वायु या हृदय-रोग-मुद्रा
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विधि:- तर्जनी अँगुलीको अँगूठेके मूलमें लगाये तथा मध्यमा और अनामिका अँगुलियोंको अँगूठे के अग्र भागसे लगा दे।

लाभ:- जिनका दिल कमजोर है,उन्हें इसे प्रतिदिन करना चाहिये। दिल का दौरा पड़ते ही यह मुद्रा करानेपर आराम होता है। पेट में गैस होनेपर यह उसे निकाल देती है। सिर-दर्द होने तथा दमेकी शिकायत होनेपर लाभ होता है।
सीढ़ी चढ़नेसे पाँच-दस मिनट पहले यह मुद्रा करके चढ़े। इससे उच्च रक्तचाप में फायदा होता है।

सावधानी:- हृदयका दौरा आते ही इस मुद्राका आकस्मिक तौरपर उपयोग करे।

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(10) प्राण-मुद्रा
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विधि:- कनिष्ठा तथा अनामिका अँगुलियोंके अग्रभागको अँगूठेके अग्रभागसे मिलायें।

लाभ:- यह मुद्रा शारीरिक दुर्बलता दूर करती है, मनको शान्त करती है,आँखोंके दोषों को दूर करके ज्योति बढ़ाती है,शारीरकी रोग-प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाती है, विटामिनोंकी कमीको दूर करती है तथा थकान दूर करके नवशक्तिका संचार करती है। लंबे उपवास-कालके दौरान भूख-प्यास नहीं सताती तथा चेहरे और आँखों एवं शरीर को चमकदार बनाती है। अनिद्रामें इसे ज्ञान-मुद्रा के साथ करे।

(11) लिङ्ग-मुद्रा
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विधि:- मुठ्ठी बाँधे तथा बायें हाथके अँगूठेको खड़ा रखे,अन्य अँगुलियाँ बँधी हुई रखे।

लाभ:- शरीरमें गर्मी बढ़ाती है सर्दी, जुकाम, दमा, खाँसी, साइनस, लकवा तथा निम्न रक्तचापमें लाभप्रद है,कफको सुखाती है।

सावधानी‌:- इस मुद्रा का प्रयोग करने पर जल,फल, फलों का रस,घी और दूध का सेवन अधिक मात्रामें करे।

इस मुद्राको अधिक लम्बे समयतक न करे।

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उद्धव-गीता

उद्धव बचपन से ही सारथी के रूप में श्रीकृष्ण की सेवा में रहे, किन्तु उन्होंने श्री कृष्ण से कभी न तो कोई इच्छा जताई और न ही कोई वरदान माँगा।
जब कृष्ण अपने अवतार काल को पूर्ण कर गौलोक जाने को तत्पर हुए, तब उन्होंने उद्धव को अपने पास बुलाया और कहा-
“प्रिय उद्धव मेरे इस ‘अवतार काल’ में अनेक लोगों ने मुझसे वरदान प्राप्त किए, किन्तु तुमने कभी कुछ नहीं माँगा! अब कुछ माँगो, मैं तुम्हें देना चाहता हूँ।
तुम्हारा भला करके, मुझे भी संतुष्टि होगी।
उद्धव ने इसके बाद भी स्वयं के लिए कुछ नहीं माँगा। वे तो केवल उन शंकाओं का समाधान चाहते थे जो उनके मन में कृष्ण की शिक्षाओं, और उनके कृतित्व को, देखकर उठ रही थीं।
उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा-
“भगवन महाभारत के घटनाक्रम में अनेक बातें मैं नहीं समझ पाया!
आपके ‘उपदेश’ अलग रहे, जबकि ‘व्यक्तिगत जीवन’ कुछ अलग तरह का दिखता रहा!
क्या आप मुझे इसका कारण समझाकर मेरी ज्ञान पिपासा को शांत करेंगे?”

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श्री कृष्ण बोले-
“उद्धव मैंने कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अर्जुन से जो कुछ कहा, वह “भगवद्गीता” थी।
आज जो कुछ तुम जानना चाहते हो और उसका मैं जो तुम्हें उत्तर दूँगा, वह “उद्धव-गीता” के रूप में जानी जाएगी।
इसी कारण मैंने तुम्हें यह अवसर दिया है।
तुम बेझिझक पूछो।
उद्धव ने पूछना शुरू किया-

“हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताओ कि सच्चा मित्र कौन होता है?”
कृष्ण ने कहा- “सच्चा मित्र वह है जो जरूरत पड़ने पर मित्र की बिना माँगे, मदद करे।”
उद्धव-
“कृष्ण, आप पांडवों के आत्मीय प्रिय मित्र थे। आजाद बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर पूरा भरोसा किया।
कृष्ण, आप महान ज्ञानी हैं। आप भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता हैं।
किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है, क्या आपको नहीं लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नहीं किया?
आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से रोका क्यों नहीं?
चलो ठीक है कि आपने उन्हें नहीं रोका, लेकिन आपने भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में भी नहीं मोड़ा!
आप चाहते तो युधिष्ठिर जीत सकते थे!
आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और यहाँ तक कि खुद को हारने के बाद तो रोक सकते थे!
उसके बाद जब उन्होंने अपने भाईयों को दाँव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे! आपने वह भी नहीं किया? उसके बाद जब दुर्योधन ने पांडवों को सदैव अच्छी किस्मत वाला बताते हुए द्रौपदी को दाँव पर लगाने को प्रेरित किया, और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे!
अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा आप पांसे धर्मराज के अनुकूल कर सकते थे!
इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया!
लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं?
उसे एक आदमी घसीटकर हॉल में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है!
एक महिला का शील क्या बचा? आपने क्या बचाया?
अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपाद-बांधव कैसे कहा जा सकता है?
बताईए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो क्या फायदा?
क्या यही धर्म है?”
इन प्रश्नों को पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।
ये अकेले उद्धव के प्रश्न नहीं हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं!
उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए।
भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले-
“प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है।
उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं।
यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए।”

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उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- “दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसाऔर धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूतक्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है। धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा।
जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता?
पाँसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?
चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें माफ़ किया जा सकता है। लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी गलती की!
और वह यह-
उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए!
क्योंकि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे।
वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं!
इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया! मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी!
इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए! बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे!
अपने भाई के आदेश पर जब दुस्साशन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही!
तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा!
उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुस्साशन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया!
जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर-
‘हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम’-
की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला।
जैसे ही मुझे पुकारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया।
अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?”
उद्धव बोले-
“कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई!
क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ?”
कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा-
“इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?”
कृष्ण मुस्कुराए-
“उद्धव इस सृष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है।
न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ।
मैं केवल एक ‘साक्षी’ हूँ।
मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ।
यही ईश्वर का धर्म है।”

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“वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण!
तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे?
हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे?
आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?”
उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा!

तब कृष्ण बोले-
“उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।
जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ, तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे?
तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे।
जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो! धर्मराज का अज्ञान यह था कि उसने माना कि वह मेरी जानकारी के बिना जुआ खेल सकता है!
अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक के साथ हर समय साक्षी रूप में उपस्थित हूँ तो क्या खेल का रूप कुछ और नहीं होता?”

भक्ति से अभिभूत उद्धव मंत्रमुग्ध हो गये और बोले-
प्रभु कितना गहरा दर्शन है। कितना महान सत्य। ‘प्रार्थना’ और ‘पूजा-पाठ’ से, ईश्वर को अपनी मदद के लिए बुलाना तो महज हमारी ‘पर-भावना’ है। मग़र जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि ‘ईश्वर’ के बिना पत्ता भी नहीं हिलता! तब हमें साक्षी के रूप में उनकी उपस्थिति महसूस होने लगती है।
गड़बड़ तब होती है, जब हम इसे भूलकर दुनियादारी में डूब जाते हैं।
सम्पूर्ण श्रीमद् भागवद् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी जीवन-दर्शन का ज्ञान दिया है।
सारथी का अर्थ है- मार्गदर्शक।
अर्जुन के लिए सारथी बने श्रीकृष्ण वस्तुतः उसके मार्गदर्शक थे।
वह स्वयं की सामर्थ्य से युद्ध नहीं कर पा रहा था, लेकिन जैसे ही अर्जुन को परम साक्षी के रूप में भगवान कृष्ण का एहसास हुआ, वह ईश्वर की चेतना में विलय हो गया!
यह अनुभूति थी, शुद्ध, पवित्र, प्रेममय, आनंदित सुप्रीम चेतना की!
तत-त्वम-असि!
अर्थात…
वह तुम ही हो।।
हरे कृष्ण

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निष्ठापूर्वक कर्म

कौशिक नामक एक ब्राह्मण बड़ा तपस्वी था। तप के प्रभाव से उसमें बहुत आत्म बल आ गया था।
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एक दिन वह वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था कि ऊपर बैठी हुई चिड़िया ने उस पर बीट कर दी।
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कौशिक को क्रोध आ गया। लाल नेत्र करके ऊपर को देखा तो तेज के प्रभाव से चिड़िया जल कर नीचे गिर पड़ी।
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ब्राह्मण को अपने बल पर गर्व हो गया।

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दूसरे दिन वह एक सद्गृहस्थ के यहाँ भिक्षा माँगने गया। गृहस्वामिनी पति को भोजन परोसने में लगी थी।
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उसने कहा- “भगवन्, थोड़ी देर ठहरो अभी आपको भिक्षा दूँगी।”
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इस पर ब्राह्मण को क्रोध आया कि मुझ जैसे तपस्वी की उपेक्षा करके यह पति-सेवा को अधिक महत्व दे रही है।
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गृहस्वामिनी ने दिव्य दृष्टि से सब बात जान ली। उसने ब्राह्मण से कहा- “क्रोध न कीजिए मैं चिड़िया नहीं हूँ। अपना नियत कर्तव्य पूरा करने पर आपकी सेवा करूंगी।”
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ब्राह्मण क्रोध करना तो भूल गया, उसे यह आश्चर्य हुआ कि चिड़िया वाली बात इसे कैसे मालूम हुई ?
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ब्राह्मणी ने इसे पति सेवा का फल बताया और कहा कि इस संबंध में अधिक जानना हो तो मिथिलापुरी में तुलाधार वैश्य के पास जाइए। वे आपको अधिक बता सकेंगे।

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भिक्षा लेकर कौशिक चल दिया और मिथिलापुरी में तुलाधार के घर जा पहुँचा।
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वह तौल-नाप के व्यापार में लगा हुआ था। उसने ब्राह्मण को देखते ही प्रणाम अभिवादन किया और कहा-
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“तपोधन कौशिक देव ? आपको उस सद्गृहस्थ गृहस्वामिनी ने भेजा है सो ठीक है। अपना नियत कर्म कर लूँ तब आपकी सेवा करूंगा। कृपया थोड़ी देर बैठिये।
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“ब्राह्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ कि मेरे बिना बताये ही इसने मेरा नाम तथा आने का उद्देश्य कैसे जाना ?
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थोड़ी देर में जब वैश्य अपने कार्य से निवृत्त हुआ तो उसने बताया कि मैं ईमानदारी के साथ उचित मुनाफा लेकर अच्छी चीजें लोक-हित की दृष्टि से बेचता हूँ।
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इस नियत कर्म को करने से ही मुझे यह दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई है। अधिक जानना हो तो मगध के निजाता चाण्डाल के पास जाइए।
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कौशिक मगध चल दिये और चाण्डाल के यहाँ पहुँचे।
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वह नगर की गंदगी झाड़ने में लगा हुआ था। ब्राह्मण को देखकर उसने साष्टाँग प्रणाम किया और कहा-
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“भगवन् आप चिड़िया मारने जितना तप करके उस सद्गृहस्थ देवी और तुलाधार वैश्य के यहाँ होते हुये यहाँ पधारे यह मेरा सौभाग्य है।
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मैं नियत कर्म कर लूँ, तब आपसे बात करूंगा। तब तक आप विश्राम कीजिये।”
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चाण्डाल जब सेवा-वृत्ति से निवृत्त हुआ तो उन्हें संग ले गया और अपने वृद्ध माता पिता को दिखाकर कहा-
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“अब मुझे इनकी सेवा करनी है। मैं नियत कर्त्तव्य कर्मों में निरन्तर लगा रहता हूँ इसी से मुझे दिव्य दृष्टि प्राप्त है।”
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तब कौशिक की समझ में आया कि केवल तप साधना से ही नहीं, नियत कर्त्तव्य, कर्म निष्ठापूर्वक करते रहने से भी ‘आध्यात्मिक लक्ष्य’ पूरा हो सकता है और सिद्धियाँ मिल सकती है।

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बढ़ती तोंद से निजात पाने के आसान उपाय

आजकल की दौड़ती-भागती जिंदगी में हमारे लिए अपनी सेहत का ध्यान रखना मुश्किल होता जा रहा है, वहीं रोजाना घंटों ऑफिस में बैठे रहकर काम करने से पेट निकलना आम बात हो गई है।

हमारी जीवनशैली से सेहत पर सीधा असर पड़ता है और सही खानपान से इस समस्या से निजात पाई जा सकती है। ऐसे में अपने काम के साथ इन आसान घरेलू उपायों से अपनी तोंद से निजात पा सकते हैं।

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क्या खाएं? : पेट कम करने में उचित खानपान बहुत अहम भूमिका निभाता है। रिसर्च से पता चला है की ओमेगा-3 एसिड से युक्त खाना आपके इस समस्या को काम कर सकता है। साथ ही ओमेगा 6 फैटी एसिड की कम मात्रा इसमें और कारगर साबित हो सकती है। ओमेगा 3 फैटी एसिड अखरोट, अलसी और मछली में पाया जाता है। इसके साथ ही लहसुन खाने से भी पेट काम करने में मदद मिलती है। लहसुन एक एंटीबायोटिक, ब्लड सर्कुलेशन और पाचन को बनाये रखने में सहायक होता है। इसके अलावा ब्लड शुगर, इन्सुलिन स्तर और ज्यादा फैट जलाने की क्षमता आपके पेट को कम करने का रामबाण उपाय है।

क्या पीएं ? : अगर आप अपनी रोज की चाय की जगह ग्रीन टी पीते है तो बढ़ी तोंद से काफी हद तक छुटकारा पा सकते हैं। ग्रीन टी में मौजूद तत्त्व बॉडी के फैट को कम करने में सहायक होते है। इतना ही नहीं ग्रीन टी आपकी कमर को भी कम करती है और पेट की ज्वलनशीलता को भी कम करने में कारगर है। इसमें मौजूद फ्लेवोनॉयड्स में प्राकृतिक जलनरोधात्मक तत्व होते हैं इसलिए इसका रोजाना सेवन आपको अच्छे परिणाम दे सकता है।

कौन से मसाले है फायदेमंद? : पेट कम करने की प्रक्रिया में सही मसाले भी आपको फायदा पंहुचा सकते है। इस में दालचीनी एक्स्ट्रा फैट को जलाने में उपयोगी है। इसके लिए आधा चम्मच दालचीनी को 1 ग्लास पानी में 1 चम्मच शहद मिलकर 5 मिनट रखे। फिर इस नाश्ते के पहले और सोने से पहले पीना आपके बढे पेट को कम कर देगा। ऐसे ही पुदीने के पत्ते को 1 ग्लास गरम पानी में आधा चम्मच काली मिर्च डालकर इसका घोल पीना भी बेहद फायदेमंद है।

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कौन से फल खाए? : वैसे तो फल खाना अच्छी सेहत के लिए जरुरी है। कुछ फल पेट कम करने में अधिक फायदा दे सकते है। तरबूज में 83 फीसदी पानी पाया जाता है साथ ही इसमें विटामिन सी की भरपूर मात्रा होती है जो सेहत के लिए लाभदायक है। इसके अलावा सुबह नाश्ते में सेब खाना फायदेमंद है। इसमें मौजूद पोटैशियम और विटामिन्स से आपका पेट भरा रहता है जो बढ़ती तोंद कम करने में सहायक है। ऐसे ही केला भी आपकी फ़ास्ट फ़ूड की भूख को कम करता है। साथ ही केला पाचन प्रक्रिया को बढ़ता है जिससे पेट की चर्बी कम होती है।

तो फिर देर किस बात की अब बढ़ी तोंद से छुटकारा पाना मुश्किल नहीं है। बस रोजमर्रा के जीवन में सही खानपान से आप भी फिट और तंदरुस्त रह सकते है।

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मृत्यु के बाद क्या होता है?????

श्रीमदभगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता का ज्ञान दे रहे हैं,,,

अर्जुन पूछता है – हे त्रिलोकीनाथ! आप आवागमन अर्थात पुनर्जन्म के बारे में कह रहे हैं, इस सम्बन्ध में मेरा ज्ञान पूर्ण नहीं है। यदि आप पुनर्जन्म की व्याख्या करें तो कृपा होगी।

कृष्ण बताते हैं – इस सृष्टि के प्राणियों को मृत्यु के पश्चात् अपने-अपने कर्मों के अनुसार पहले तो उन्हें परलोक में जाकर कुछ समय बिताना होता है जहाँ वो पिछले जन्मों में किये हुए पुण्यकर्मों अथवा पापकर्म का फल भोगते हैं।

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फिर जब उनके पुण्यों और पापों के अनुसार सुख दुःख को भोगने का हिसाब खत्म हो जाता है तब वो इस मृत्युलोक में फिर से जन्म लेते हैं। इस मृत्युलोक को कर्मलोक भी कहा जाता है। क्योंकि इसी लोक में प्राणी को वो कर्म करने का अधिकार है जिससे उसकी प्रारब्ध बनती है।

अर्जुन पूछते हैं – हे केशव! हमारी धरती को मृत्युलोक क्यों कहा जाता है?

कृष्ण बताते हैं – क्योंकि हे अर्जुन, केवल इसी धरती पर ही प्राणी जन्म और मृत्यु की पीड़ा सहते हैं।

अर्जुन पूछता है – अर्थात दूसरे लोकों में प्राणी का जन्म और मृत्यु नहीं होती?

कृष्ण बताते हैं – नहीं अर्जुन! उन लोकों में न प्राणी का जन्म होता है और न मृत्यु। क्योंकि मैंने तुम्हें पहले ही बताया था कि मृत्यु केवल शरीर की होती है, आत्मा की नहीं। आत्मा तो न जन्म लेती है और न मरती है।

अर्जुन फिर पूछते हैं – तुमने तो ये भी कहा था कि आत्मा को सुख-दुःख भी नहीं होते। परन्तु अब ये कह रहे हो कि मृत्यु के पश्चात आत्मा को सुख भोगने के लिए स्वर्ग आदि में अथवा दुःख भोगने के लिए नरक आदि में जाना पड़ता है। तुम्हारा मतलब ये है कि आत्मा को केवल पृथ्वी पर ही सुख दुःख नहीं होते, स्वर्ग अथवा नरक में आत्मा को सुख या दुःख भोगने पड़ते हैं।

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कृष्ण बताते हैं – नहीं अर्जुन! आत्मा को कहीं, किसी भी स्थान पर या किसी काल में भी सुख दुःख छू नहीं सकते। क्योंकि आत्मा तो मुझ अविनाशी परमेश्वर का ही प्रकाश रूप है। हे अर्जुन! मैं माया के आधीन नहीं, बल्कि माया मेरे आधीन है और सुख दुःख तो माया की रचना है। इसलिए जब माया मुझे अपने घेरे में नहीं ले सकती तो माया के रचे हुए सुख और दुःख मुझे कैसे छू सकते हैं।
सुख दुःख तो केवल शरीर के भोग हैं, आत्मा के नहीं।

अर्जुन कहता है – हे केशव! लगता है कि तुम मुझे शब्दों के मायाजाल में भ्रमा रहे हो। मान लिया कि सुख दुःख केवल शरीर के भोग हैं, आत्मा इनसे अलिप्त है। फिर जो शरीर उनको भोगता है उसकी तो मृत्यु हो जाती है। वो शरीर तो आगे नहीं जाता, फिर स्वर्ग अथवा नरक में सुख दुःख को भोगने कौन जाता है?

अर्जुन पूछता है – जीव आत्मा? ये जीव आत्मा क्या है केशव!

कृष्ण कहते हैं – हाँ पार्थ! जीव आत्मा। देखो, जब किसी की मृत्यु होती है तो असल में ये जो बाहर का अस्थूल शरीर है केवल यही मरता है। इस अस्थूल शरीर के अंदर जो सूक्ष्म शरीर है वो नहीं मरता। वो सूक्ष्म शरीर आत्मा के प्रकाश को अपने साथ लिए मृत्युलोक से निकलकर दूसरे लोकों को चला जाता है। उसी सूक्ष्म शरीर को जीवात्मा कहते हैं।

अर्जुन पूछता है – इसका अर्थ है- जब आत्मा एक शरीर को छोड़कर जाती है तो साथ में जीवात्मा को भी ले जाती है?

कृष्ण कहते हैं – नहीं अर्जुन! ये व्याख्या इतनी सरल नहीं है। देखो, जैसे समुद्र के अंदर जल की एक बून्द समुद्र से अलग नहीं है उसी महासागर का एक हिस्सा है वो बून्द अपने आप सागर से बाहर नहीं जाती, हाँ! कोई उस जल की बून्द को बर्तन में भरकर ले जाये तो वो समुद्र से अलग दिखाई देती है, इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर रूपी जीवात्मा उस आत्म ज्योति के टुकड़े को अपने अंदर रखकर अपने साथ ले जाता है। यही जीवात्मा की यात्रा है जो एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक योनि से दूसरी योनि में विचरती रहती है।

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इस शरीर में सुन अर्जुन एक सूक्ष्म शरीर समाये रे,
ज्योति रूप वही सूक्ष्म शरीर तो जीवात्मा कहलाये रे।
मृत्यु समय जब यह जीवात्मा तन को तज कर जाये रे,
धन दौलत और सगे सम्बन्धी कोई संग ना आये रे।
पाप पुण्य संस्कार वृत्तियाँ ऐसे संग ले जाए रे,
जैसे फूल से उसकी खुशबु पवन उड़ा ले जाए रे।
संग चले कर्मों का लेखा जैसे कर्म कमाए रे,
अगले जन्म में पिछले जन्म का आप हिसाब चुकाए रे।

हे अर्जुन! जीवात्मा जब एक शरीर को छोड़कर जाती है तो उसके साथ उसके पिछले शरीर की वृत्तियाँ, उसके संस्कार और उसके भले कर्मों का लेखा जोखा अर्थात उसकी प्रारब्ध सूक्ष्म रूप में साथ जाती है।

अर्जुन पूछते हैं – हे मधुसूदन! मनुष्य शरीर त्यागने के बाद जीवात्मा कहाँ जाता है?

कृष्ण कहते हैं – मानव शरीर त्यागने के बाद मनुष्य को अपने प्रारब्ध अनुसार अपने पापों और पुण्यों को भोगना पड़ता है। इसके लिए भोग योनियाँ बनी हैं जो दो प्रकार की हैं- उच्च योनियाँ और नीच योनियाँ।

स्वर्ग नर्क क्या है, श्रीमद भागवत गीता??????

एक पुण्य वाला मनुष्य का जीवात्मा उच्च योनियों में स्वर्ग में रहकर अपने पुण्य भोगता है और पापी मनुष्य का जीवात्मा नीच योनियों में, नरक में रहकर अपने पापों को भोगता है। कभी ऐसा भी होता है कि कई प्राणी स्वर्ग नरक का सुख दुःख पृथ्वी लोक पर ही भोग लेते हैं।

अर्जुन पूछता है- इसी लोक में? वो कैसे?

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कृष्ण कहते हैं – इसे तुम यूं समझों अर्जुन कि जैसे कोई सम्पन्न मनुष्य है, महल में रहता है, उसकी सेवा के लिए दास-दासियाँ हर समय खड़ी है, उसका एक इकलौता जवान बेटा है, जिसे वो संसार में सबसे अधिक प्रेम करता है और अपने आपको संसार का सबसे भाग्यशाली मनुष्य समझता है। परन्तु एक दिन उसका जवान बेटा किसी दुर्घटना में मारा जाता है।

दुखों का पहाड़ उस पर टूट पड़ता है। संसार की हर वस्तु उसके पास होने के बावजूद भी वो दुखी ही रहता है और मरते दम तक अपने पुत्र की मृत्यु की पीड़ा से मुक्त नहीं होता। तो पुत्र के जवान होने तक उस मनुष्य ने जो सुख भोगे हैं वो स्वर्ग के सुखों की भांति थे और पुत्र की मृत्यु के बाद उसने जो दुःख भोगे हैं वो नरक के दुखों से बढ़कर थे जो मनुष्य को इसी तरह, इसी संसार में रहकर भी अपने पिछले जन्मों के सुख दुःख को भोगना पड़ता है।

अर्जुन पूछता है – हे मधुसूदन! अब ये बताओ कि मनुष्य अपने पुण्यों को किन-किन योनियों में और कहाँ भोगता है?

कृष्ण बताते हैं – पुण्यवान मनुष्य अपने पुण्यों के द्वारा किन्नर, गन्धर्व अथवा देवताओं की योनियाँ धारण करके स्वर्ग लोक में तब तक रहता है जब तक उसके पुण्य क्षीण नहीं हो जाते।

अर्जुन पूछता है – अर्थात?

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कृष्ण कहते हैं – अर्थात ये कि प्राणी के हिसाब में जितने पुण्य कर्म होते हैं उतनी ही देर तक उसे स्वर्ग में रखा जाता है। जब पुण्यों के फल की अवधि समाप्त हो जाती है तो उसे फिर पृथ्वीलोक में वापिस आना पड़ता है और मृत्युलोक में पुनर्जन्म धारण करना पड़ता है।

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।

अर्थ :- वह योगभ्रष्ट पुण्यकर्म करने वालों के लोकों को प्राप्त होकर और वहाँ बहुत वर्षों तक रहकर फिर यहाँ शुद्ध श्रीमानों(धनवान) के घर में जन्म लेता है।

अर्जुन पूछता है – परन्तु स्वर्ग लोक में मनुष्य के पुण्य क्यों समाप्त हो जाते हैं? वहाँ जब वो देव योनि में होता है तब वो अवश्य ही अच्छे कर्म करता होगा, उसे इन अच्छे कर्मों का पुण्य तो प्राप्त होता होगा?

कृष्ण बताते हैं – नहीं अर्जुन! उच्च योनि में देवता बनकर प्राणी जो अच्छे कर्म करता है या नीच योनि में जाकर प्राणी जो क्रूर कर्म करता है, उन कर्मों का उसे कोई फल नहीं मिलता।
अर्जुन पूछता है – क्यों?

कृष्ण कहते हैं – क्योंकि वो सब भोग योनियाँ है। वहाँ प्राणी केवल अपने अच्छे बुरे कर्मों का फल भोगता है। इन योनियों में किये हुए कर्मों का पुण्य अथवा पाप उसे नहीं लगता। हे पार्थ! केवल मनुष्य की योनि में ही किये हुए कर्मों का पाप या पुण्य होता है क्योंकि यही एक कर्म योनि है।

पाप पुण्य का लेखा जोखा कैसे होता है?

अर्जुन पूछते हैं – इसका अर्थ ये हुआ यदि कोई पशु किसी की हत्या करे तो उसका पाप उसे नहीं लगेगा और यदि कोई मनुष्य किसी की अकारण हत्या करे तो पाप लगेगा? परन्तु ये अंतर क्यों?

कृष्ण कहते हैं – इसलिए कि पृथ्वी लोक में समस्त प्राणियों में केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो विवेकशील है, वो अच्छे बुरे की पहचान रखता है। दूसरा कोई भी प्राणी ऐसा नहीं कर सकता। इसलिए यदि सांप किसी मनुष्य को अकारण भी डस ले और वो मर जाये तो साप को उसकी हत्या का पाप नहीं लगेगा।

इसी कारण दूसरे जानवरों की हत्या करता है तो उसे उसका पाप नहीं लगता या बकरी का उदाहरण लो, बकरी किसी की हत्या नहीं करती, घास फूंस खाती है, इस कारण वो पुण्य की भागी नहीं बनती। पाप पुण्य का लेखा जोखा अर्थात प्रारब्ध केवल मनुष्य का बनता है। इसलिए जब मनुष्य अपने पाप और पुण्य भोग लेता है तो उसे फिर मनुष्य की योनि में भेज दिया जाता है।

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ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं- क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।

एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना- गतागतं कामकामा लभन्ते ॥
अर्थ :- वे उस विशाल स्वर्गलोकके भोगोंको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मका आश्रय लिये हुए भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्य आवागमनको प्राप्त होते हैं।

अर्जुन पूछता है – अर्थात देवों की योनियों में जो मनुष्य होते हैं वो अपने सुख भोगकर स्वर्ग से भी लौट आते हैं?
कृष्ण कहते हैं – हाँ! और मनुष्य की योनि प्राप्त होने पर फिर कर्म करते हैं और इस तरह सदैव जन्म मृत्यु का कष्ट भोगते रहते हैं।

अर्जुन पूछता है – हे मधुसूदन! क्या कोई ऐसा स्थान नहीं, जहाँ से लौटकर आना न पड़े और जन्म मरण का ये चक्कर समाप्त हो जाये?

कृष्ण बताते हैं – ऐसा स्थान केवल परम धाम है अर्थात मेरा धाम। जहाँ पहुँचने के बाद किसी को लौटकर नहीं आना पड़ता, इसी को मोक्ष कहते हैं।

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राजा ने विद्वान पंडित से कहा कि आपका बेटा मूर्ख क्यों है? वह सोने और चांदी के सिक्कों में से चांदी को मूल्यवान बताता है, दरबार में पंडित की हंसी उड़ने लगी, घर लौटकर पंडित ने बेटे से पूछी ये बात तो मालूम हुआ कि उसका बेटा मूर्ख नहीं है

अपनी शक्ति का दिखावा न करें, जब समय आएगा तब सभी को मालूम हो जाएगी हमारी ताकत

एक लोक कथा के अनुसार पुराने समय में राजा के दरबार में एक विद्वान पंडित था। राजा पंडित की बुद्धिमानी से बहुत प्रभावित थे। एक दिन भरे दरबार में राजा ने पंडित से कहा कि आप तो बहुत विद्वान हैं, लेकिन आपका पुत्र मूर्ख क्यों है? ये प्रश्न सुनकर पंडित को कुछ समझ नहीं आया, उसने राजा से कहा कि महाराज आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?

> राजा ने कहा कि मैंने उससे पूछा था कि सोने और चांदी में से क्या मूल्यवान है तो वह चांदी को मूल्यवान बताता है। उसे ये भी नहीं मालूम कि कौन सी धातु कीमती है। पूरा दरबार पंडित पर हंसने लगा। उसे बहुत बुरा लगा। वह दरबार में बिना कुछ बोले अपने घर लौट आया।

> घर पहुंचकर पंडित ने अपने बेटे से पूछा कि बेटा सोने और चांदी में क्या मूल्यवान है? बेटे ने जवाब दिया कि पिताजी सोना मूल्यवान धातु है।

> ये जवाब सुनकर पंडित ने बेटे से कहा कि तुम ये बात जानते हो तो राजा को गलत जवाब क्यों देते हो?

> पंडित के बेटे को पूरी बात समझ आ गई। उसने कहा कि पिताजी राजा रोज सुबह मुख्य बाजार में प्रजा से मिलने आते हैं। मैं भी वहां जाता हूं। वे रोज मेरे सामने एक सोने का और एक चांदी का सिक्का रखते हैं और बोलते हैं कि इनमें से जो मूल्यवान है, उसे तुम ले सकते हो।

> मैं रोज चांदी का सिक्का उठा लेता है। पूरी प्रजा मेरा मजाक उड़ाती है, लेकिन मैं सिक्का लेकर घर आ जाता हूं। पंडित ने कहा कि बेटा जब तुम जानते हो कि सोना मूल्यवान है तो तुम सोने का सिक्का क्यों नहीं लेते हो?

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> बेटा अपने पिता को अंदर कमरे में ले गया और एक संदूक खोलकर दिखाया, उस संदूक में ढेर सारे चांदी के सिक्के थे। पंडित ने कहा कि बेटा इतने सिक्के कहां से आए?

> बेटे ने बताया कि रोज सुबह राजा से जो सिक्के मिलते हैं, ये सब वही हैं। जिस दिन मैं राजा के सामने सोने का सिक्का उठा लूंगा, वे मुझे सिक्का देना बंद कर देंगे। सोने के सिक्के के चक्कर में इतने सारे चांदी के सिक्कों का नुकसान करना बुद्धिमानी नहीं है।

> पंडित को पूरी बात समझ आ गई, वह समझ गया कि उसका बेटा मूर्ख नहीं, बल्कि बुद्धिमान है। अगले दिन पंडित अपने बेटे को और उस संदूक को लेकर दरबार पहुंचे। राजा को पूरी बात बता दी।

> पूरी बात मालूम होने के बाद राजा ने भी पंडित के बेटे की प्रशंसा की और सोने के सिक्कों से भरा एक संदूक उपहार में दे दिया।

कथा की सीख

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इस कथा की सीख यह है कि हमें हमारी शक्ति का दिखावा नहीं करना चाहिए। कई बार अपनी शक्ति दिखाने के चक्कर में हमारा ही नुकसान हो जाता है। जब शक्ति दिखाने का सही समय आए, तब ही शक्ति दिखानी चाहिए। उस समय सभी को मालूम हो जाएगा हमारी ताकत के बारे में।

भलाई और शिकायत

एक बार एक केकड़ा समुद्र किनारे अपनी मस्ती में चला जा रहा था और बीच बीच में रुक कर अपने पैरों के निशान देख कर खुश होता
आगे बढ़ता पैरों के निशान देखता और खुश होता,,,,,
इतने में एक लहर आई और उसके पैरों के सभी निशान मिट गये
इस पर केकड़े को बड़ा गुस्सा आया, उसने लहर से कहा

“ए लहर मैं तो तुझे अपना मित्र मानता था, पर ये तूने क्या किया ,मेरे बनाये सुंदर पैरों के निशानों को ही मिटा दिया
कैसी दोस्त हो तुम”

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तब लहर बोली “वो देखो पीछे से मछुआरे पैरों के निशान देख कर केकड़ों को पकड़ने आ रहे हैं
हे मित्र, तुमको वो पकड़ न लें ,बस इसीलिए मैंने निशान मिटा दिए

ये सुनकर केकड़े की आँखों में आँसू आ गये ।
हमारे साथ भी तो ऐसा ही होता है ज़िन्दगी अच्छी खासी चलती रहती है, और हम उसे देखते रहने में ही इतने ज्यादा मगन हो जाते हैं कि सोचते हैं कि बस इसी तरह ही ज़िन्दगी चलती रहे ।

लेकिन जैसे ही कोई दुःख या मुसीबत आती है या कोई काम हमारी सोच के मुताबित नही होता तो हम ऊँगली उस मलिक की तरफ उठाना शुरू कर देते हैं, लेकिन ये भूल जाते हैं कि शायद ये दुःख या तकलीफ जो उसने दी हुई है, इसके पीछे भी हमारे भले का कोई राज छिपा होगा ।

जब तक समय और काम हमारी मर्ज़ी से चलते रहते है , तब हम खुश रहते है, और जब काम उस मालिक की मर्ज़ी से होता है, तो हम क्यों उसकी तरफ मुँह बना कर शिकायत करने पर आ जाते हैं। जबकि हमे तो खुश होना चाहिए कि जब मैं अपनी मर्ज़ी से इतना खुश था तो अब मुझे मलिक की मर्ज़ी कितना खुश रख सकती है ।

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उसकी ☝ मौज दिखती नही, लेकिन दिखाती बहुत है ।

उसकी☝ मौज बोलती नही, लेकिन करती बहुत है

अच्छे लोगो के साथ ही बुरा क्यो होता है…

यह सवाल कई लोगो के मन मे आता होगा। मैंने तो किसी का बुरा नही किया, फिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ। मैं तो सदैव ही धर्म और नीति के मार्ग का पालन करता हूँ, फर मेरे साथ हमेशा बुरा क्यो होता है।

ऐसे कई विचार अधिकांश लोगों के मन मे आते होंगे। ऐसे ही तमाम सवालों के जवाब स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने दिए हैं।

एक बार अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि हे वासुदेव! अच्छे और सच्चे बुरे लोगो के साथ ही बुरा क्यो होता है, इस पर भगवान श्री कृष्ण ने एक कहानी सुनाई। इस कहानी में हर मनुष्य के सवालों का जवाब वर्णित है।

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श्रीकृष्ण कहते हैं, कि एक नगर में दो पुरूष रहते थे। पहला व्यापारी जो बहुत ही अच्छा इंसान था, धर्म और नीति का पालन करता था, भ गवान की भक्ति करता था और मन्दिर जाता था। वह सभी तरह के गलत कामो से दूर रहता था। वहीं दूसरा व्यक्ति जो कि दुष्ट प्रवत्ति का था, वो हमेशा ही अनीति और अधर्म के काम करता था। वो रोज़ मन्दिर से पैसे और चप्पल चुराता था, झूठ बोलता था और नशा करता था। एक दिन उस नगर में तेज बारिश हो रही थी और मन्दिर में कोई नही था, यह देखकर उस नीच व्यक्ति ने मन्दिर के सारे पैसे चुरा लिए और पुजारी की नज़रों से बचकर वहाँ से भाग निकला, थोड़ी देर बाद जब वो व्यापारी दर्शन करने के उद्देश्य से मन्दिर गया तो उस पर चोरी करने का इल्ज़ाम लग गया। वहाँ मौजूद सभी लोग उसे भला – बुरा कहने लगे, उसका खूब अपमान हुआ। जैसे – तैसे कर के वह व्यक्ति मन्दिर से बाहर निकला और बाहर आते ही एक गाड़ी ने उसे टक्कर मार दी। वो व्यापारी बुरी तरह से चोटिल हो गया।इस वक्त उस दुष्ट को एक नोटो से भरी पोटली हाथ लगी, इतना सारा धन देखकर वह दुष्ट खुशी से पागल हो गया और बोला कि आज तो मज़ा ही आ गया। पहले मन्दिर से इतना धन मिला और फिर ये नोटों से भरी पोटली। दुष्ट की यह बात सुनकर वह व्यापारी दंग रह गया।

उसने घर जाते ही घर मे मौजूद भगवान की सारी तस्वीरे निकाल दी और भगवान से नाराज़ होकर जीवन बिताने लगा। सालो बाद जब उन दोनों की मृत्यु हो गयी और दोनों यमराज के सामने गए तो उस व्यापारी ने नाराज़ स्वर में यमराज से प्रश्न किया कि मैं तो सदैव ही अच्छे कर्म करता था, जिसके बदले मुझे अपमान और दर्द मिला और इस अधर्म करने वाले दुष्ट को नोटो से भरी पोटली…आखिर क्यों?

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व्यापारी के सवाल पर यमराज बोले जिस दिन तुम्हारे साथ दुर्घटना घटी थी, वो तुम्हारी ज़िन्दगी का आखिरी दिन था, लेकिन तुम्हारे अच्छे कर्मों की वजह से तुम्हारी मृत्यु एक छोटी सी चोट में बदल गयी।

वही इस दुष्ट को जीवन मे राजयुग मिलने की सम्भावनाएं थी, लेकिन इसके बुरे कर्मो के चलते वो राजयोग एक छोटे से धन की पोटली में बदल गया।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि भगवान हमे किस रूप में दे रहे हैं, ये समझ पाना बेहद कठिन होता है। अगर आप अच्छे कर्म कर रहे हैं और बुरे कर्मो से दूर हैं, तो भगवान निश्चित ही अपनी कृपा आप पर बनाए रखेंगे।

जीवन मे आने वाले दुखों और परेशानियों से कभी ये न समझे कि भगवान हमारे साथ नही है, हो सकता है आपके साथ और भी बुरा होने का योग हो, लेकिन आपके कर्मों की वजह से आप उनसे बचे हुए हो।

तो दोस्तों ये थी भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताई गई एक रोचक कहानी, जिसमे मनुष्यों के अधिकांश सवालों के उत्तर मौजूद हैं।

जय श्री कृष्ण….🌸💐👏🏼

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सत्संग का फायदा

एक संत रोज अपने शिष्यों को गीता पढ़ाते थे। सभी शिष्य इससे खुश थे लेकिन एक शिष्य चिंतित दिखा। संत ने उससे इसका कारण पूछा। शिष्य ने कहा- गुरुदेव, मुझे आप जो कुछ पढ़ाते हैं, वह समझ में नहीं आता, मैं इसी वजह से चिंतित और दुखी हूं। गुरु ने कहा- कोयला ढोने वाली टोकरी में जल भर कर ले आओ। शिष्य चकित हुआ, आखिर टोकरी में कैसे जल भरेगा? लेकिन चूंकि गुरु ने यह आदेश दिया था, इसलिए वह टोकरी में नदी का जल भरा और दौड़ पड़ा लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।

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जल टोकरी से छन कर गिर पड़ा। उसने टोकरी में जल भर कर कई बार गुरु जी तक दौड़ लगाई लेकिन टोकरी में जल टिकता ही नहीं था। तब वह अपने गुरुदेव के पास गया और बोला- गुरुदेव, टोकरी में पानी ले आना संभव नहीं, कोई फायदा नहीं। गुरु बोले- फायदा है। टोकरी में देखो। शिष्य ने देखा- बार बार पानी में कोयले की टोकरी डुबाने से स्वच्छ हो गई है। उसका कालापन धुल गया है। गुरु ने कहा- ठीक जैसे कोयले की टोकरी स्वच्छ हो गई और तुम्हें पता भी नहीं चला। उसी तरह सत्संग बार बार सुनने से खूब फायदा होता है। भले ही अभी तुम्हारी समझ में नहीं आ रहा है लेकिन तुम इसका फायदा बाद में महसूस करोगे

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प्रार्थना की शक्ति

एक वृद्ध महिला एक सब्जी की दुकान पर जाती है.उसके पास सब्जी खरीदने के पैसे नहीं होते.वो दुकानदार से प्रार्थना करती है कि उसे सब्जी उधार दे दे.पर दुकानदार मना कर देता है.बार बार आग्रह करने पर दुकानदार खीज कर कहता है,” तुम्हारे पास कुछ ऐसा है जिसकी कोई कीमत हो तो उसे इस तराजू पर रख दो, मैं उसके वज़न के बराबर सब्जी तुम्हे दे दूंगा.” वृद्ध महिला कुछ देर सोच में पड़ जाती है.उसके पास ऐसा कुछ भी नहीं था.कुछ देर सोचने के बाद वह एक मुड़ा तुड़ा कागज़ का टुकड़ा निकलती है और उस पर कुछ लिख कर तराजू पर रख देती है.दुकानदार ये देख कर हंसने लगता है.फिर भी वह थोड़ी सब्जी उठाकर तराजू पर रखता है. आश्चर्य…!!!कागज़ वाला पलड़ा नीचे रहता है और सब्जी वाला ऊपर उठ जाता है.इस तरह वो और सब्जी रखता जाता है पर कागज़ वाला पलड़ा नीचे नहीं होता. तंग आकर दुकानदार उस कागज़ को उठा कर पढता है और हैरान रह जाता है. कागज़ पर लिखा था…”हे इश्वर, तुम सर्वज्ञ हो, अब सब कुछ तुम्हारे हाथ में है,..” दुकानदार को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था.वो उतनी सब्जी वृद्ध महिला को दे देता है.पास खड़ा एक अन्य ग्राहक दुकानदार को समझाता है,” दोस्त,आश्चर्य मत करो. केवल ईश्वर ही जानते हैं की प्रार्थना का मूल्य क्या होता है.”

वास्तव में प्रार्थना में बहुत शक्ति होती है.चाहे वो एक घंटे की हो या एक मिनट की .यदि सच्चे मन से की जाये तो ईश्वर अवश्य सहायता करते हैं.अक्सर लोगों के पास ये बहाना होता है की हमारे पास वक्त नहीं.मगर सच तो ये है कि ईश्वर को याद करने का कोई समय नहीं होता प्रार्थना के द्वारा मन के विकार दूर होते हैं और एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है.जीवन की कठिनाइयों का सामना करने का बल मिलता है.ज़रूरी नहीं की कुछ मांगने के लिए ही प्रार्थना की जाये.जो आपके पास है उसका धन्यवाद करना चाहिए.इससे आपके अन्दर का अहम् नष्ट होगा और एक कहीं अधिक समर्थ व्यक्तित्व का निर्माण होगा.प्रार्थना करते समय मन को ईर्ष्या,द्वेष,क्रोध घृणा जैसे विकारों से मुक्त रखें. प्रातः काल दैनिक प्रार्थना को जीवन का एक अनिवार्य अंग अवश्य बनाना चाहिए.इससे न केवल शक्ति मिलेगी बल्कि बुराई या अकर्म के प्रति आसक्ति भी कम होगी…

मन की आवाज़ !!

एक बुढ़िया बड़ी सी गठरी लिए चली जा रही थी। चलते-चलते वह थक गई थी। तभी उसने देखा कि एक घुड़सवार चला आ रहा है। उसे देख बुढ़िया ने आवाज दी, ‘अरे बेटा, एक बात तो सुन।’ घुड़सवार रुक गया। उसने पूछा, ‘क्या बात है माई?’ बुढ़िया ने कहा, ‘बेटा, मुझे उस सामने वाले गांव में जाना है। बहुत थक गई हूं। यह गठरी उठाई नहीं जाती। तू भी शायद उधर ही जा रहा है। यह गठरी घोड़े पर रख ले। मुझे चलने में आसानी हो जाएगी।’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘माई तू पैदल है। मैं घोड़े पर हूं। गांव अभी बहुत दूर है। पता नहीं तू कब तक वहां पहुंचेगी। मैं तो थोड़ी ही देर में पहुंच जाऊंगा। वहां पहुंचकर क्या तेरी प्रतीक्षा करता रहूंगा?’ यह कहकर वह चल पड़ा।

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कुछ ही दूर जाने के बाद उसने अपने आप से कहा, ‘तू भी कितना मूर्ख है। वह वृद्धा है, ठीक से चल भी नहीं सकती। क्या पता उसे ठीक से दिखाई भी देता हो या नहीं। तुझे गठरी दे रही थी। संभव है उस गठरी में कोई कीमती सामान हो। तू उसे लेकर भाग जाता तो कौन पूछता। चल वापस, गठरी ले ले। ‘

वह घूमकर वापस आ गया और बुढ़िया से बोला, ‘माई, ला अपनी गठरी। मैं ले
चलता हूं। गांव में रुककर तेरी राह देखूंगा।’ बुढ़िया ने कहा, ‘न बेटा, अब तू जा, मुझे गठरी नहीं देनी।’ घुड़सवार ने कहा, ‘अभी तो तू कह रही थी कि ले चल। अब ले चलने को तैयार हुआ तो गठरी दे नहीं रही। ऐसा क्यों? यह उलटी बात तुझे किसने समझाई है?’

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बुढ़िया मुस्कराकर बोली, ‘उसी ने समझाई है जिसने तुझे यह समझाया कि माई की गठरी ले ले। जो तेरे भीतर बैठा है वही मेरे भीतर भी बैठा है। तुझे उसने कहा कि गठरी ले और भाग जा। मुझे उसने समझाया कि गठरी न दे, नहीं तो वह भाग जाएगा।

तूने भी अपने मन की आवाज सुनी और मैंने भी सुनी।
🙏🏻😌🙏🏻

शाश्वत सत्य

==…=========……
Qus→ जीवन का उद्देश्य क्या है ?
Ans→ जीवन का उद्देश्य उसी चेतना को जानना है – जो जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है। उसे जानना ही मोक्ष है..!!
Qus→ जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त कौन है ?
Ans→ जिसने स्वयं को, उस आत्मा को जान लिया – वह जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है..!!
Qus→ संसार में दुःख क्यों है ?
Ans→ लालच, स्वार्थ और भय ही संसार के दुःख का मुख्य कारण हैं..!!
Qus→ ईश्वर ने दुःख की रचना क्यों की ?
Ans→ ईश्वर ने संसारकी रचना की और मनुष्य ने अपने विचार और कर्मों से दुःख और सुख की रचना की..!!
Qus→ क्या ईश्वर है ? कौन है वे ? क्या रुप है उनका ? क्या वह स्त्री है या पुरुष ?
Ans→ कारण के बिना कार्य नहीं। यह संसार उस कारण के अस्तित्व का प्रमाण है। तुम हो, इसलिए वे भी है – उस महान कारण को ही आध्यात्म में ‘ईश्वर’ कहा गया है। वह न स्त्री है और ना ही पुरुष..!!
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Qus→ भाग्य क्या है ?
Ans→ हर क्रिया, हर कार्य का एक परिणाम है। परिणाम अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी हो सकता है। यह परिणाम ही भाग्य है तथा आज का प्रयत्न ही कल का भाग्य है..!!
Qus→ इस जगत में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ?
Ans→ रोज़ हजारों-लाखों लोग मरते हैं और उसे सभी देखते भी हैं, फिर भी सभी को अनंत-काल तक जीते रहने की इच्छा होती है..इससे बड़ा आश्चर्य ओर क्या हो सकता है..!!
Qus→ किस चीज को गंवाकर मनुष्यधनी बनता है ?
Ans→ लोभ..!!
Qus→ कौन सा एकमात्र उपाय है जिससे जीवन सुखी हो जाता है?
Ans → अच्छा स्वभाव ही सुखी होने का उपाय है..!!
Qus → किस चीज़ के खो जानेपर दुःख नहीं होता ?
Ans → क्रोध..!!
Qus→ धर्म से बढ़कर संसार में और क्या है ?
Ans → दया..!!
Qus→ क्या चीज़ दुसरो को नहीं देनी चाहिए ?
Ans→ तकलीफें, धोखा..!!
Qus→ क्या चीज़ है, जो दूसरों से कभी भी नहीं लेनी चाहिए ?
Ans→ किसी की हाय..!!
Qus→ ऐसी चीज़ जो जीवों से सब कुछ करवा सकती है?
Ans→ मज़बूरी..!!
Qus→ दुनियां की अपराजित चीज़ ?
Ans→ सत्य..!!
Qus→ दुनियां में सबसे ज़्यादा बिकने वाली चीज़ ?
Ans→ झूठ..!!
Qus→ करने लायक सुकून काकार्य ?
Ans→ परोपकार..!!
Qus→ दुनियां की सबसे बुरी लत ?
Ans→ मोह..!!
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Qus→ दुनियां का स्वर्णिम स्वप्न ?
Ans→ जिंदगी..!!
Qus→ दुनियां की अपरिवर्तनशील चीज़ ?
Ans→ मौत..!!
Qus→ ऐसी चीज़ जो स्वयं के भी समझ ना आये ?
Ans→ अपनी मूर्खता..!!
Qus→ दुनियां में कभी भी नष्ट/ नश्वर न होने वाली चीज़ ?
Ans→ आत्मा और ज्ञान..!!
Qus→ कभी न थमने वाली चीज़ ?
Ans→ समय..🕊

 एक दिन नयी सोच 

एक नदी के किनारे दो पेड़ थे…..
उस रास्ते एक छोटी सी चिड़िया गुजरी और…..
पहले पेड़ से पूछा.. बारिश होने वाला है, क्या मैं और मेरे बच्चे तुम्हारे टहनी में घोसला बनाकर रह सकते हैं..
लेकिन वो पेड़ ने मना कर दिया….
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चिड़िया फिर दूसरे पेड़ के पास गई और वही सवाल पूछा दूसरा पेड़ मान गया,
चिड़िया अपने बच्चों के साथ खुशी-खुशी दूसरे पेड़ में घोसला बना कर रहने लगी,
एक दिन इतनी अधिक बारिश हुई कि इसी दौरान पहला पेड़ जड़ से उखड़ कर पानी मे बह गया.
जब चिड़िया ने उस पेड़ को बहते हुए देखा तो कहा…
जब तुमसे मैं और मेरे बच्चे शरण के लिये आई तब तुमने मना कर दिया था, अब देखो तुम्हारे उसी रूखी बर्ताव की सजा तुम्हे मिल रही है
जिसका उत्तर पेड़ ने मुस्कुराते हुए दिया मैं जानता था मेरी जड़ें कमजोर है और इस बारिश में टिक नहीं पाऊंगा, मैं तुम्हारी और बच्चे की जान खतरे में नहीं डालना चाहता था, मना करने के लिए मुझे क्षमा कर दो, और ये कहते-कहते पेड़ बह गया..
किसी के इंकार को हमेशा उनकी कठोरता न समझे
क्या पता उसके उसी इंकार से आप का भला हो,
कौन किस परिस्थिति में है शायद हम नहीं समझ पाए,
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इसलिए किसी के चरित्र और शैली को उनके वर्तमान ब्यवहार से ना तौले…

“सहारे इंसान को खोखला कर देते है और उम्मीदें कमज़ोर कर देती है”

एक बादशाह सर्दियों की शाम जब अपने महल में दाखिल हो रहा था तो एक बूढ़े दरबान को देखा जो महल के सदर दरवाज़े पर पुरानी और बारीक वर्दी में पहरा दे रहा था…।

बादशाह ने उसके करीब अपनी सवारी को रुकवाया और उस बूढ़े दरबान से पूछने लगा…

“सर्दी नही लग रही ?”

दरबान ने जवाब दिया….. “बोहत लग रही है हुज़ूर ! मगर क्या करूँ, गर्म वर्दी है नही मेरे पास, इसलिए बर्दाश्त करना पड़ता है।”

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बादशाह ने कहा “मैं अभी महल के अंदर जाकर अपना ही कोई गर्म जोड़ा भेजता हूँ तुम्हे।”

दरबान ने खुश होकर बादशाह को फर्शी सलाम किया और आजिज़ी का इज़हार किया।

लेकिन…… बादशाह जैसे ही महल में दाखिल हुआ, दरबान के साथ किया हुआ वादा भूल गया।

सुबह दरवाज़े पर उस बूढ़े दरबान की अकड़ी हुई लाश मिली और करीब ही मिट्टी पर उसकी उंगलियों से लिखी गई ये तहरीर भी.

“बादशाह सलामत ! मैं कई सालों से सर्दियों में इसी नाज़ुक वर्दी में दरबानी कर रहा था, मगर कल रात आप के गर्म लिबास के वादे ने मेरी जान निकाल दी।”

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“सहारे इंसान को खोखला कर देते है और उम्मीदें कमज़ोर कर देती है”

“अपनी ताकत के बल पर जीना शुरू कीजिए, खुद की सहन शक्ति, ख़ुद की ख़ूबी पर भरोसा करना सीखें”

आपका, आपसे अच्छा साथी, दोस्त, गुरु, और हमदर्द कोई नही हो सकता।।