श्री कृष्ण पिता वसुदेव जी के पूर्वजन्म की कथा

कश्यप ऋषि विशाल यज्ञ का आयोजन कर रहे थे। इस यज्ञ को संपन्न कराने के लिए कश्यप वरूण देव के पास गए और उनसे एक ऐसी दिव्य गाय प्रदान करने की प्रार्थना की जिसकी कृपा से वह यज्ञ कार्य पूरा कर सकें।

मुनि का यज्ञ पूर्ण हो जाए यह सोच कर वरूण देव ने कश्यप ऋषि को एक दिव्य गाय दे दी। अनेक दिनों तक यज्ञ चलता रहा. दिव्य गाय की कृपा से यज्ञ का सारा प्रबंध निर्विघ्न होता रहा।

जब यज्ञ पूरा हो गया तो कश्यप ऋषि के मन में लोभ पैदा हो गया. वह वरूण देव से गाय तो केवल यज्ञ को पूरा करने के लिए मांग कर लाए थे लेकिन उनके मन में लालच आ गया।

कश्यप अब उस दिव्य गाय को वापस लौटाने से हिचक रहे थे. यज्ञ पूरा होने के काफी समय बाद भी जब कश्यप ने गाय नहीं लौटाई तो वरूण देव कश्यप के सामने प्रकट हो गए।

वरूण ने कहा- ऋषिवर आपने गाय यज्ञ पूर्ण कराने के लिए ली थी. वह स्वर्ग की दिव्य गाय है. उद्देश्य पूर्ण हो जाने पर उसे स्वर्ग में वापस भेजना होता है. यज्ञ पूर्ण हुआ अब वह गाय वापस कर दें।

कश्यप बोले- हे वरूण देव ! किसी तपस्वी को दान की गई कोई वस्तु कभी वापस नहीं मांगनी चाहिए. आपके लिए उस गाय का कोई मूल्य नहीं. आप इसे मेरे आश्रम में ही रहने दें. मैं उसका पूरा ध्यान रखूंगा।

वरूण देव ने अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास किया कि वह उस गाय को इस प्रकार पृथ्वी पर नहीं छोड़ सकते परंतु कश्यप नहीं माने. हारकर वरूण देव ब्रह्मा जी के पास गए और सारी बात बताई।

वरूण देव ने ब्रह्मा से कहा- हे परम पिता ! मैंने तो सिर्फ यज्ञ अवधि के लिए गाय दी थी परंतु कश्यप गाय लौटा ही नहीं रहे. अपनी माता की अनुपस्थिति में दुखी बछड़े प्राण त्यागने वाले हैं. आप राह निकालें।

ब्रह्मा जी वरूण को लेकर कश्यप के आश्रम में आए और बोले- कश्यप तुम विद्वान हो. तुम्हारे अंदर ऐसी प्रवृति कैसे आ रही है, इससे मैं स्वयं दुखी हूं. लोभ में पड़कर तुम अपने पुण्यों का नाश कर रहे हो. वरूण की गाय लौटा दो।

ब्रह्मा जी के समझाने पर कश्यप गाय को अपने पास ही रखने के तर्क देने लगे. वह उलटा समझाने का प्रयास करने लगे कि गाय अब उनकी ही संपत्ति है. इस लिए लोभ की कोई बात ही नहीं।

ब्रह्मा जी क्रोधित हो गए और कहा- लोभ के कारण तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई. ऋषि होकर भी तुम्हें ऐसा लोभ हुआ है. यह पतन का कारण है. तुम्हारे प्राण एक गाय में अटके हैं. मैं शाप देता हूं कि तुम अपने अंश से पृथ्वी पर गौपालक के रूप में जाओ।

शाप सुनकर कश्यप को बड़ा क्षोभ हुआ. उन्हें अपराध बोध हुआ और उन्होंने ब्रह्मा जी से और वरूण देव दोनों से क्षमा मांगी. ब्रह्मा जी का क्रोध शांत हो गया. वरूण को भी पछतावा हो रहा था कि कश्यप को ऐसा शाप मिल गया।

ब्रह्मा जी ने शाप में संशोधन कर दिया- तुम अपने अंश से पृथ्वी पर यदुकुल में जन्म लोगे. वहां तुम गायों की खूब सेवा करोगे. स्वयं श्री हरि तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लेकर तुम्हें कृतार्थ करेंगे।

कश्यप शाप को वरदान में परिवर्तित होता देखकर प्रसन्न हो गए. उन्होंने ब्रह्मा जी की स्तुति की. कश्यप ने ही भगवान श्री कृष्ण के पिता वसुदेव के रूप में धरती पर जन्म लिया।
जय जय श्री राधे

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सुन्दर कथा

एक बार एक गाँव में पंचायत लगी थी | वहीं थोड़ी दूरी पर एक संत ने अपना बसेरा किया हुआ था|
जब पंचायत किसी निर्णय पर नहीं पहुच सकी, तो किसी ने कहा कि क्यों न हम महात्मा जी के पास अपनी समस्या को लेकर चलें , अतः सभी संत के पास पहुंचे |
जब संत ने गांव के लोगों को देखा तो पूछा कि कैसे आना हुआ ?

तो लोगों ने कहा ‘महात्मा जी गाँव भर में एक ही कुआँ हैं और कुँए का पानी हम नहीं पी सकते, बदबू आ रही है । मन भी नहीं होता पानी पीने को।

संत ने पूछा –हुआ क्या ?
पानी क्यों नहीं पी रहे हो ?

लोग बोले–तीन कुत्ते लड़ते लड़ते उसमें गिर गये थे । बाहर नहीं निकले, मर गये उसी में । अब जिसमें कुत्ते मर गए हों, उसका पानी कौन पिये महात्मा जी ?
संत ने कहा — ‘एक काम करो ,उसमें गंगाजल डलवाओ ।
तो कुएं में गंगाजल भी आठ दस बाल्टी छोड़ दिया गया ।
फिर भी समस्या जस की तस !
लोग फिर से संत के पास पहुंचे,अब संत ने कहा”
भगवान की पूजा कराओ”।

लोगों ने कहा ••••ठीक है ।

भगवान की पूजा कराई ,
फिर भी समस्या जस की तस ।
लोग फिर संत के पास पहुंचे !

अब संत ने कहा उसमें सुगंधित द्रव्य डलवाओ।

लोगों ने फिर कहा ••••• हाँ, अवश्य ।

सुगंधित द्रव्य डाला गया ।
नतीजा फिर वही…ढाक के तीन पात।
लोग फिर संत के पास गए ,

अब संत खुद चलकर आये ।

लोगों ने कहा– महाराज ! वही हालत है, हमने सब करके देख लिया । गंगाजल भी डलवाया, पूजा भी करवायी, प्रसाद भी बाँटा और उसमें सुगन्धित पुष्प और बहुत चीजें डालीं; लेकिन महाराज !
हालत वहीं की वहीं ।
अब संत आश्चर्यचकित हुए कि अभी भी इनका कार्य ठीक क्यों नहीं हुआ ?

तो संत ने पूछा– कि तुमने और सब तो किया, वे तीन कुत्ते मरे पड़े थे, उन्हें निकाला कि नहीं ?

लोग बोले — उनके लिए न आपने कहा था, न हमने निकाला, बाकी सब किया । वे तो वहीं के वहीं पड़े हैं ।

संत बोले — जब तक उन्हें नहीं निकालोगे, इन उपायों का कोई प्रभाव नहीं होगा ।

सही बात यह है कि हमारे आपके जीवन की भी यही कहानी है ,

इस शरीर नामक गाँव के अंतःकरण के कुएँ में ये काम, क्रोध और लोभ के तीन कुत्ते लड़ते झगड़ते गिर गये हैं । इन्हीं की सारी बदबू है ।

हम उपाय पूछते हैं तो लोग बताते हैं– तीर्थ यात्रा कर लो, थोड़ा यह कर लो, थोड़ा पूजा करो, थोड़ा पाठ ।
सब करते हैं, पर बदबू उन्हीं दुर्गुणों की आती रहती है ।

कथा सार :
पहले हम सभी अपने भीतर के दुर्गुणों को निकाल कर बाहर करें तभी हमारा जीवन उपयोगी होगा ।

विवाह के 7 पवित्र वचन और महत्व

विवाह के समय पति-पत्नी अग्नि को साक्षी मानकर एक-दूसरे को सात वचन देते हैं जिनका दांपत्य जीवन में काफी महत्व होता है। आज भी यदि इनके महत्व को समझ लिया जाता है तो वैवाहिक जीवन में आने वाली कई समस्याओं से निजात पाई जा सकती है।

विवाह समय पति द्वारा पत्नी को दिए जाने वाले सात वचनों के महत्व को देखते हुए यहां उन वचनों के बारे में जानकारी दी जा रही है।
1. तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी!।

(यहां कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)

किसी भी प्रकार के धार्मिक कृत्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नी का होना अनिवार्य माना गया है। पत्नी द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नी की सहभा‍गिता व महत्व को स्पष्ट किया गया है।
2. पुज्यो यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम!!

(कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)

यहां इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रख वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।
3. जीवनम अवस्थात्रये पालनां कुर्यात
वामांगंयामितदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृतीयं!!

(तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे यह वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूं।)
4. कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थ:।।

(कन्या चौथा वचन यह मांगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिंता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जब कि आप विवाह बंधन में बंधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दा‍यित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतिज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूं।)

इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उत्तरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृष्ट करती है। इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए, जब वह अपने पैरों पर खड़ा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।
5. स्वसद्यकार्ये व्यहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्‍त्रयेथा
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या!!

(इस वचन में कन्या कहती जो कहती है, वह आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत महत्व रखता है। वह कहती है कि अपने घर के कार्यों में, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मंत्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)

यह वचन पूरी तरह से पत्नी के अधिकारों को रेखांकित करता है। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढ़ता ही है, साथ-साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।
6. न मेपमानमं सविधे सखीना द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्वेत
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम!!

(कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्‍त्रियों के बीच बैठी हूं, तब आप वहां सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आपको दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)
7. परस्त्रियं मातूसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कूर्या।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तमंत्र कन्या!!

(अंतिम वचन के रूप में कन्या यह वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगे और पति-पत्नी के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगे। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)

इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है।
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ठंड में इनसे मिलती है शरीर को गर्मी

ठंड के मौसम में सर्दी के असर से बचने के लिए लोग गर्म कपड़ों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन शरीर को चाहे कितने ही गर्म कपड़ों से ढक लिया जाए ठंड से लड़ने के लिए बॉडी में अंदरूनी गर्मी होनी चाहिए। शरीर में यदि अंदर से खुद को मौसम के हिसाब से ढालने की क्षमता हो तो ठंड कम लगेगी और कई बीमारियां भी नहीं होंगी। यही कारण है कि ठंड में खानपान पर विशेष रूप से ध्यान देने को आयुर्वेद में बहुत महत्व दिया गया है। सर्दियों में यदि खानपान पर विशेष ध्यान दिया जाए तो शरीर संतुलित रहता है और सर्दी कम लगती है।

1. बाजरा

कुछ अनाज शरीर को सबसे ज्यादा गर्मी देते है। बाजरा एक ऐसा ही अनाज है। सर्दी के दिनों में बाजरे की रोटी बनाकर खाएं। छोटे बच्चों को बाजरा की रोटी जरूर खाना चाहिए। इसमें कई स्वास्थ्यवर्धक गुण भी होते है। दूसरे अनाजों की अपेक्षा बाजरा में सबसे ज्यादा प्रोटीन की मात्रा होती है। इसमें वह सभी गुण होते हैं, जिस से स्वास्थ्य ठीक रहता है। ग्रामीण इलाकों में बाजरा से बनी रोटी व टिक्की को सबसे ज्यादा जाड़ो में पसंद किया जाता है। बाजरा में शरीर के लिए आवश्यक तत्व जैसे मैग्नीशियम, कैल्शियम, मैग्नीज, ट्रिप्टोफेन, फाइबर, विटामिन-बी, एंटीऑक्सीडेंट आदि भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं।

2. बादाम

बादाम कई गुणों से भरपूर होते हैं। इसका नियमित सेवन अनेक बीमारियों से बचाव में मददगार है। अक्सर माना जाता है कि बादाम खाने से याददाश्त बढ़ती है, लेकिन यह ड्राय फ्रूट अन्य कई रोगों से हमारी रक्षा भी करता है। इसके सेवन से कब्ज की समस्या दूर हो जाती है, जो सर्दियों में सबसे बड़ी दिक्कत होती है। बादाम में डायबिटीज को निंयत्रित करने का गुण होता है। इसमें विटामिन-ई भरपूर मात्रा में होता है।

3. अदरक

क्या आप जानते हैं कि रोजाना के खाने में अदरक शामिल कर बहुत सी छोटी-बड़ी बीमारियों से बचा जा सकता है। सर्दियों में इसका किसी भी तरह से सेवन करने पर बहुत लाभ मिलता हैै। इससे शरीर को गर्मी मिलती है और डाइजेशन भी सही रहता है।

4. शहद

शरीर को स्वस्थ, निरोग और उर्जावान बनाए रखने के लिए शहद को आयुर्वेद में अमृत भी कहा गया है। यूं तो सभी मौसमों में शहद का सेवन लाभकारी है, लेकिन सर्दियों में तो शहद का उपयोग विशेष लाभकारी होता है। इन दिनों में अपने भोजन में शहद को जरूर शामिल करें। इससे पाचन क्रिया में सुधार होगा और इम्यून सिस्टम पर भी असर पड़ेगा।

5. रसीले फल न खाएं

सर्दियों के दिनों में रसीले फलों का सेवन न करें। संतरा, रसभरी या मौसमी आपके शरीर को ठंडक देते है। जिससे आपको सर्दी या जुकाम जैसी समस्याएं हो सकती हैं।

6. मूंगफली

100 ग्राम मूंगफली के भीतर ये तत्व मौजूद होते हैं : प्रोटीन- 25.3 ग्राम, नमी- 3 ग्राम, फैट्स- 40.1 ग्राम, मिनरल्स- 2.4 ग्राम, फाइबर- 3.1 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट- 26.1 ग्राम, ऊर्जा- 567 कैलोरी, कैल्शियम – 90 मिलीग्राम, फॉस्फोरस 350 मिलीग्राम, आयरन-2.5 मिलीग्राम, कैरोटीन- 37 मिलीग्राम, थाइमिन- 0.90 मिलीग्राम, फोलिक एसिड- 20मिलीग्राम। इसमें मौजूद एंटीऑक्सीडेंट, विटामिन, मिनिरल्स आदि तत्व इसे बेहद फायदेमंद बनाते हैं। यकीनन इसके गुणों को जानने के बाद आप कम से कम इस सर्दियों में मूंगफली से टाइमपास करने का टाइम तो निकाल ही लेंगे।

7. सब्जियां

अपनी खुराक में हरी सब्जियों का सेवन करें। सब्जियां, शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है और गर्मी प्रदान करती है। सर्दियों के दिनों में मेथी, गाजर, चुकंदर, पालक, लहसुन बथुआ आदि का सेवन करें। इनसे इम्यून सिस्टम मजबूत होता है।

8. तिल

सर्दियों के मौसम में तिल खाने से शरीर को ऊर्जा मिलती है। तिल के तेल की मालिश करने से ठंड से बचाव होता है। तिल और मिश्री का काढ़ा बनाकर खांसी में पीने से जमा हुआ कफ निकल जाता है। तिल में कई तरह के पोषक तत्व पाए जाते हैं जैसे, प्रोटीन, कैल्शियम, बी-कॉम्प्लेक्स और कार्बोहाइट्रेड आदि। प्राचीन समय से खूबसूरती बनाए रखने के लिए तिल का उपयोग किया जाता रहा है।

 

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#भगवान_बोले

एक करोड़पति बहुत अड़चन में था। करोड़ों का घाटा लगा था, और सारी जीवन की मेहनत डूबने के करीब थी! नौका डगमगा रही थी। कभी मंदिर नहीं गया था, कभी प्रार्थना भी न की थी। फुरसत ही न मिली थी !

पूजा के लिए उसने पुजारी रख छोड़े थे, कई मंदिर भी बनवाये थे, जहां वे उसके नाम से नियमित पूजा किया करते थे लेकिन आज इस दुःख की घड़ी में कांपते हाथों वह भी मंदिर गया!

सुबह जल्दी गया, ताकि परमात्मा से पहली मुलाकात उसी की हो, पहली प्रार्थना वही कर सके। कोई दूसरा पहले ही मांग कर परमात्मा का मन खराब न कर चुका हो! बोहनी की आदत जो होती है, कमबख्त यहां भी नहीं छूटी….सो अल्ल-सुबह पहुंचा मन्दिर।

लेकिन यह देख कर हैरान हुआ कि गांव का एक भिखारी उससे पहले से ही मन्दिर में मौजूद था। अंधेरा था, वह भी पीछे खड़ा हो गया, कि भिखारी क्या मांग रहा है? धनी आदमी सोचता है, कि मेरे पास तो मुसीबतें हैं; भिखारी के पास क्या मुसीबतें हो सकती हैं? और भिखारी सोचता है, कि मुसीबतें मेरे पास हैं। धनी आदमी के पास क्या मुसीबतें होंगी? एक भिखारी की मुसीबत दूसरे भिखारी के लिए बहुत बड़ी न थी !

उसने सुना, कि भिखारी कह रहा है –हे परमात्मा ! अगर पांच रुपए आज न मिलें तो जीवन नष्ट हो जाएगा। आत्महत्या कर लूंगा। पत्नी बीमार है और दवा के लिए पांच रुपए होना बिलकुल आवश्यक हैं ! मेरा जीवन संकट में है !
अमीर आदमी ने यह सुना और वह भिखारी बंद ही नहीं हो रहा है; कहे जा रहा है और प्रार्थना जारी है ! तो उसने झल्लाकर अपने खीसे से पांच रुपए निकाल कर उस भिखारी को दिए और कहा – जा ये ले जा पांच रुपए, तू ले और जा जल्दी यहां से !

अब वह परमात्मा से मुखतिब हुआ और बोला — प्रभु, अब आप ध्यान मेरी तरफ दें, इस भिखारी की तो यही आदत है। दरअसल मुझे पांच करोड़ रुपए की जरूरत है !”

भगवान मुस्करा उठे बोले — एक छोटे भिखारी से तो तूने मुझे छुटकारा दिला दिया, लेकिन तुझसे छुटकारा पाने के लिए तो मुझको तुमसे भी बढा भिखारी ढूंढना पड़ेगा ! तुम सब लोग यहां कवक कुछ न कुछ मांगने ही आते हो, कभी मेरी जरूरत का भी ख्याल आया है?

धनी आश्चर्यचकित हुआ बोला – प्रभु आपको क्या चाहिए?

भगवान बोले – प्रेम ! मैं भाव का भूखा हूँ । मुझे निस्वार्थ प्रेम व समर्पित भक्त प्रिय है ! कभी इस भाव से मुझ तक आओ; फिर तुम्हे कुछ मांगने की आवश्यकता ही नही पड़ेगी !!!

अद्भुत पात्र…

प्राचीन काल मे एक राजा का यह नियम था कि वह अनगिनत संन्यासियों को दान देने के बाद ही भोजन ग्रहण करता था।

एक दिन नियत समय से पहले ही एक संन्यासी अपना छोटा सा भिक्षापात्र लेकर द्वार पर आ खड़ा हुआ।
उसने राजा से कहा –

“राजन, यदि संभव हो तो मेरे इस छोटे से पात्र मे भी कुछ भी डाल दें ”

याचक के यह शब्द राजा को खटक गए पर वह उसे कुछ भी नहीं कह सकता था.
उसने अपने सेवकों से कहा कि उस पात्र को सोने के सिक्कों से भर दिया जाय।
जैसे ही उस पात्र मे सोने के सिक्के डाले गए,
वे उसमें गिरकर गायब हो गए।

ऐसा बार बार हुआ।
शाम तक राजा का पूरा खजाना खाली हो गया पर वह पात्र रिक्त ही रहा।

अंततः राजा ही याचक स्वरूप हाथ जोड़े आया और उसने संन्यासी से पूछा –

“मुझे क्षमा कर दें,
मैं समझता था कि मेरे द्वार से कभी कोई खाली हाथ नहीं जा सकता।
अब कृपया इस पात्र का रहस्य भी मुझे बताएं,
यह कभी भरता क्यों नहीं?”

संन्यासी ने कहा –
“यह पात्र मनुष्य के मन से बना है।
इस संसार की कोई वस्तु मनुष्य के मन को नहीं भर सकती।
मनुष्य कितना ही नाम, यश, शक्ति, धन, सौंदर्य, और सुख अर्जित कर ले
पर यह हमेशा और की ही मांग करता है।
केवल “ईश्वरीय प्रेम” ही इसे भरने मे सक्षम है.”

अहंकार मरता है…शरीर जलता है

ऐसा कहते हैं कि नानक देव जी जब आठ वर्ष के थे तब पहली बार अपने घर से अकेले निकल पड़े, सब घर वाले और पूरा गाँव चिंतित हो गया तब शाम को किसी ने नानक के पिता श्री कालू मेहता को खबर दी कि नानक तो श्मशान घाट में शांत बैठा है।

सब दौड़े और वाकई एक चिता के कुछ दूर नानक बैठे हैं और एक अद्भुत शांत मुस्कान के साथ चिता को देख रहे थे, माॅ ने तुरंत रोते हुए गले लगा लिया और पिता ने नाराजगी जताई और पूछा यहां क्यों आऐ।

नानक ने कहा पिता जी कल खेत से आते हुए जब मार्ग बदल कर हम यहां से जा रहे थे और मैंने देखा कि एक आदमी चार आदमीयो के कंधे पर लेटा है और वो चारो रो रहे हैं तो मेरे आपसे पूछने पर कि ये कौन सी जगह हैं, तो पिताजी आपने कहा था कि ये वो जगह है बेटा जहां एक न एक दिन सबको आना ही पड़ेगा और बाकी के लोग रोएगें ही।

बस तभी से मैनें सोचा कि जब एक दिन आना ही हैं तो आज ही चले और वैसे भी अच्छा नही हैं लगता अपने काम के लिए अपने चार लोगो को रूलाना भी और कष्ट भी दो उनके कंधो को , तो बस यही सोच कर आ गया।

तब कालू मेहता रोते हुए बोले नानक पर यहां तो मरने के बाद आते हैं इस पर जो आठ वर्षीय नानक बोले वो कदापि कोई आठ जन्मो के बाद भी बोल दे तो भी समझो जल्दी बोला:

“नानक ने कहा पिता जी ये ही बात तो मैं सुबह से अब तक मे जान पाया हूं कि लोग मरने के बाद यहां लाए जा रहे हैं, अगर कोई पूरे चैतन्य से यहां अपने आप आ जाऐ तो वो फिर कभी मरेगा ही नही सिर्फ शरीर बदलेगा क्योंकि मरता तो अंहकार है और जो यहां आकर अपने अंहकार कि चिता जलाता है वो फिर कभी मरता ही नही मात्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है।”

न जाने किस रूप में प्रभु मिल जाये

एक सब्ज़ी वाला था, सब्ज़ी की पूरी दुकान साइकल पर लगा कर घूमता रहता था ।

“प्रभु” उसका तकिया कलाम था । कोई पूछता आलू कैसे दिये, 10 रुपये प्रभु । हरी धनीया है क्या ? बिलकुल ताज़ा है प्रभु। वह सबको प्रभु कहता था । लोग भी उसको प्रभु कहकर पुकारने लगे।

एक दिन उससे किसी ने पूछा तुम सबको प्रभु-प्रभु क्यों कहते हो, यहाँ तक तुझे भी लोग इसी उपाधि से बुलाते हैं और तुम्हारा कोई असली नाम है भी या नहीं ?

सब्जी वाले ने कहा है न प्रभु , मेरा नाम भैयालाल है

प्रभु, मैं शुरू से अनपढ़ गँवार हूँ। गॉव में मज़दूरी करता था, एक बार गाँव में एक नामी सन्त विद्या सागर जी के प्रवचन हुए । प्रवचन मेरे पल्ले नहीं पड़े, लेकिन एक लाइन मेरे दिमाग़ में आकर फँस गई , उन संत ने कहा हर इन्सान में प्रभु का वास हैं -तलाशने की कोशिश तो करो पता नहीं किस इन्सान में मिल जाय और तुम्हारा उद्धार कर जाये, बस उस दिन से मैने हर मिलने वाले को प्रभु की नज़र से देखना और पुकारना शुरू कर दिया वाकई चमत्त्कार हो गया दुनिया के लिए शैतान आदमी भी मेरे लिये प्रभु रूप हो गया । ऐसे दिन फिरें कि मज़दूर से व्यापारी हो गया सुख समृद्धि के सारे साधन जुड़ते गये मेरे लिये तो सारी दुनिया ही प्रभु रूप बन गईं।🙏

लाख टके की बात

जीवन एक प्रतिध्वनि है आप जिस लहजे में आवाज़ देंगे पलटकर आपको उसी लहजे में सुनाईं देंगीं। न जाने किस रूप में प्रभु (☝ ) मिल जाये

आज का भगवद चिंतन

कृष्ण कहते हैं संसार का सबसे बड़ा सुख मनुष्य की स्वयं की आत्मसंतुष्टि है। पढिये सुन्दर कथा।।

एक बार अवंतिपुर में साधु कोटिकर्ण आए। उन दिनों उनके नाम की धूम थी। उनका सत्संग पाने दूर-दूर से लोग आते थे। उस नगर में रहने वाली कलावती भी सत्संग में जाती थी। कलावती के पास अपार संपत्ति थी।

उसके रात्रि सत्संग की बात जब नगर के चोरों को मालूम हुई तो उन्होंने उसके घर सेंध लगाने की योजना बनाई। एक रात जब कलावती सत्संग में चली गई, तब चोर उसके घर आए। घर पर दासी अकेली थी। जब दासी को पता चला कि चोर सेंध लगा रहे हैं तो वह डरकर वहां से भागी और उधर चल दी जहां कलावती सत्संग में बैठी थी।

कलावती तन्मय होकर कोटिकर्ण की अमृतवाणी सुन रही थी। दासी ने उसे संकेत से बुलाया, किंतु कलावती ने ध्यान नहीं दिया। इस बीच चोरों का सरदार दासी का पीछा करता हुआ वहां आ पहुंचा। तब डरकर दासी कलावती के पास जाकर बोली- स्वामिन चलिए घर में चोर घुस आए हैं। कलावती ने कहा -तू चुपचाप सत्संग सुन। धन तो फिर मिल जाएगा किंतु इतना अच्छा सत्संग कहां मिलेगा।

कलावती का जवाब सुनकर चोरों का सरदार स्तब्ध रह गया और उसने भी पूरा सत्संग सुना। सत्संग समाप्ति पर वह कलावती के चरणों में गिर पड़ा और बोला- आज तुमने मेरी आंखों से अज्ञान का पर्दा उठा दिया। अब मैं कभी चोरी नहीं करूंगा।

तब तक उसके साथी चोर भी वहां आ पहुंचे। उन्होंने कहा- हमें कितना धन मिल रहा था और तुम यहां आ बैठे। तब वह बोला- अब तक झूठे सुख से संतोष पाया, किंतु आज सच्च सुख मिला है। तुम भी मेरे साथ सत्संग सुनो।

सार यह है कि भौतिक संपदा शरीर को सुख पहुंचाती है किंतु सत्संग आत्मा को सुकून देता है और आत्मा का संतोष शरीर के सुख से बढ़कर होता है। जय जय श्री राधेकृष्ण जी।

बाँके बिहारी जी का प्रेम

एक बार मैं ट्रेन से आ रहा था मेरी साथ वाली सीट पे एक वृद्ध औरत बैठी थी जो लगातार रो रही थी…

मैंने बार बार पूछा मईया क्या हुआ, मईया क्या हुआ …

बड़ी मिनतो के बाद मईया ने एक लिफाफा मेरे हाथ मे रख दिया…

मैंने लिफाफा खोल कर देखा उसमे चार पेड़े, 200 रूपये और इत्र से सनी एक कपड़े की कातर थी …

मैंने मईया से पूछा, मईया ये क्या है…

मईया बोली मैं वृंदावन बिहारी जी के मंदिर गई थी, मैंने गुलक में 200 रूपये डाले और दर्शन के लिऐ आगे बिहारी जी के पास चली गई …

वहाँ गोस्वामी जी ने मेरे हाथ मे एक पेड़ा रख दिया, मेने गोस्वामी जी को कहा मुझे दो पेड़े दे दो पर गोस्वामी जी ने मना कर दिया..

मैंने उससे गुस्से मे कहा मैंने 200 रूपये डाले है मुझे पेड़े भी दो चाहिए पर गोस्वामी जी नहीं माने …

मैंने गुस्से मे वो एक पेड़ा भी उन्हे वापिस दे दिया और बिहारी जी को कोसते हुए बाहर आ कर बैठ गई …

मैं जैसे ही बाहर आई तभी एक बालक मेरे पास आया और बोला मईया मेरा प्रसाद पकड़ लो मेने जूते पहनने है…

वो मुझे प्रसाद पकड़ा कर खुद जूते पहनने लगा और फिर हाथ धोने चला गया …

फिर वो नही आया .. मै पागलो की तरह उसका इंतजार करती रही …

काफी देर के बाद मैंने उस लिफाफे को खोल कर देखा …

उसमें 200 रूपये, चार पेड़े और एक कागज़ पर लिख रखा था – मईया अपने लाला से नाराज ना होया करो.

ये ही वो लिफाफा है …
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तरस गये बांके बिहारीजी आपके दीदार को,
दिल फिर भी आपका ही इंतज़ार करता है,
हमसे अच्छा तो आपकी चौखट का वो परदा है,
जो हर रोज़ आपका दीदार तो करता है।।

माघ मास – माघ स्नान से बढ़कर पवित्र पाप नाशक दूसरा कोई व्रत नही है

🌷🙏🏻 22 जनवरी से लेकर 19 फरवरी तक (गुजरात एवं महाराष्ट्र अनुसार माघ मास दिनांक 5 फरवरी से) माघ महिना रहेगा | माघ स्नान से बढ़कर पवित्र पाप नाशक दूसरा कोई व्रत नही है | एकादशी के व्रत की महिमा है, गंगा स्नान की महिमा है, लेकिन माघ मास में सभी तिथियाँ पर्व हैं, सभी तिथियाँ पूनम हैं | और माघ मास में सूर्योदय से थोड़ी देर पहले स्नान करना पाप नाशक और आरोग्य प्रद और प्रभाव बढ़ाने वाला है | पाप नाशनी उर्जा मिलने से बुद्धि शुद्ध होती है, इरादे सुंदर होते हैं |

🙏🏻 पद्म पुराण में ब्रह्म ऋषि भृगु कहते हैं कि –
तप परम ध्यानं त्रेता याम जन्म तथाह |
द्वापरे व् कलो दानं |
माघ सर्व युगे शुच ||

🙏🏻 सत युग में तपस्या से उत्तम पद की प्राप्ति होती है, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में भगवत पूजा से और कलियुग में दान सर्वोपरी माना गया है | दानं केवलं कलि युगे || परन्तु माघ स्नान तो सभी युगों में श्रेष्ठ माना गया है |

🙏🏻 सतयुग में सत्य की प्रधानता थी, त्रेता में तप की, द्वापर में यज्ञकी, कलयुग में दान की लेकिन माघ मास में स्नान की चारो युग में बड़ी भारी महिमा है | सभी दिन माघ मास में स्नान कर सकें तो बहुत अच्छा नहीं तो 3 दिन तो लगातार करना चाहिए | बीच में तो करें लेकिन आखरी 3 दिन तो जरूर करना चाहिए | माघ मास का इतना प्रभाव है कि सभी जल गंगा जल के तीर्थ पर्व के समान हैं |

🙏🏻 पुष्कर, कुरुक्षेत्र, काशी, प्रयाग में 10 वर्ष पवित्र शौच, संतोष आदि नियम पलने से जो फल मिलता है माघ मास में ३ दिन स्नान करने से वो मिल जाता है, खाली 3 दिन | माघ मास प्रात: स्नान सब कुछ देता है | आयु, आरोग्य, रूप, बल, सौभाग्य, सदाचरण देता है |

🙏🏻 जिनके बच्चे सदाचरण से गिर गए हैं उनको भी पुचकार के, इनाम देकर भी बच्चो को स्नान कराओ तो बच्चों को समझाने से, मारने-पिटने से या और कुछ करने से उतना नहीं सुधर सकते हैं, घर से निकाल देने से भी इतना नहीं सुधरेंगे जितना माघ मास के स्नान से |

🙏🏻 तो सदआचरण, संतान वृद्धि, सत्संग, सत्य और उदार भाव आदि का प्रादितय होता है | व्यक्ति की सुरता उतम गुण, सुरता माना समझ, उतम गुण से सम्पन होती है | नर्क का डर उसके लिए सदा के लिए खत्म हो जाता है | मरने के बाद फिर वो नर्क में नही जायेगा |

🙏🏻 दरिद्रता और पाप दूर हो जायेंगे | दुर्भाग्य का कीचड नाश हो जायेगा |

रविवार व्रत की कथा

रविवार का दिन सप्ताह के दिनों में खास अहमियत रखता है। सूर्य देवता जो जीवन में ऊर्जा का संचार करते हैं। सूरज की हर पहली किरण को उम्मीद की नई किरण के रूप में देखा जाता है। इन्हीं सूर्य देव का एक नाम रवि भी है।

रविवार, इतवार या कहें संडे सूर्य देवता का दिन है। मान्यता है कि रविवार के दिन नियमित रूप से सूर्यदेव के नाम का उपवास कर उनकी आराधना की जाये उपासक की सारी द्ररिद्रता दूर हो जाती है। तो आइये जानते हैं रविवार के व्रत की कथा व पूजा विधि के बारे में।

रविवार व्रत की पौराणिक कथा!!!!!

बहुत समय पहले की बात है, एक बुढ़िया हर रविवार प्रात:काल उठकर नहा धोकर अपने घर आंगन को गाय के गोबर से लीपती फिर सूर्य देव की पूजा करती और उन्हें भोग लगाकर ही स्वयं भोजन करती।

बुढ़िया के पास गाय नहीं इसलिये पड़ोसियों के यहां से गाय का गोबर उसे लाना पड़ता। इस प्रकार सूर्य देव की नियमित रूप से आराधना करने पर बुढ़िया का घर धन धान्य से संपन्न रहने लगा। बुढ़िया के दिन फिरते देख पड़ोसन जलने लगी।

अब वो क्या करती कि रविवार के दिन उसने अपनी गाय को अंदर बांधना शुरु कर दिया जिससे बुढ़िया को गोबर नहीं मिला और घर की लिपाई भी नहीं हुई। लिपाई न होने के कारण बुढ़िया ने कुछ नहीं खाया। इस प्रकार वह निराहार रही और भूखी ही सो गई। उसे सपने में सूर्य देव ने दर्शन दिये और पूछा कि आज आपने मुझे भोग क्यों नहीं लगाया।

बुढ़िया ने बताया कि उसके पास गाय नहीं है और वह पड़ोसन की गाय का गोबर लाकर लिपाई करती थी। पड़ोसन ने अपनी गाय अंदर बांध जिस कारण वह घर की लिपाई नहीं कर सकी और लिपाई न होने के कारण ही वह भोजन नहीं बना पाई। तब सूर्य देव ने कहा हे माता मैं आपकी श्रद्धा व भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं। आपको मैं एक ऐसी गाय देता हूं जो सभी इच्छाएं पूर्ण करती है।

सुबह जब बुढ़िया की आंख खुली तो उसने अपने आंगन में एक बहुत ही सुंदर गाय व बछड़े को पाया। उसने उन्हें बांध लिया और बड़ी श्रद्धा के साथ गाय की सेवा करने लगी। जब पड़ोसन ने उसके यहां गाय देखी तो वह और भी जलने भुनने लगी। उस समय तो पड़ोसन के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने देखा कि गाय सोने का गोबर कर रही है।

बुढिया उस समय वहां पर नहीं थी। पड़ोसन ने इसका फायदा उठाते हुए अपनी गाय का गोबर वहां रख दिया और सोने के गोबर को उठा ले गई। गाय हर रोज सूरज उगने से पहले गोबर करती और पड़ोसन उठा ले जाती बुढ़िया को यह पता ही नहीं चला कि उसकी गाय सोने का गोबर करती है।

पड़ोसन रातों रात अमीर होती गई। अब सूर्य देव ने सोचा कि उन्हें ही कुछ करना पड़ेगा। उन्होंने शाम को तेज आंधी चलवा दी, आंधी के कारण बुढिया ने गाय को अंदर बांध दिया सुबह उसने देखा कि गाय तो सोने का गोबर करती है। फिर वह हर रोज गाय को अंदर बांधने लगी।

अब पड़ोसन से यह सहन न हुआ और उसने राजा को बता दिया कि एक बुढ़िया के पास सोने का गोबर करने वाली गाय है। पहले तो वे हैरान हुए लेकिन बुढ़िया को चेतावनी दी कि यदि ऐसा नहीं हुआ तो तुम्हारी खैर नहीं। उन्होंने अपने सैनिक भेजकर बुढ़िया के यहां से गाय लाने का हुक्म दिया। सैनिक गाय ले आये। अब देखते ही देखते गोबर से सारा महल भर गया, हर और बदबू फैल गई।

राजा को सपने में सूर्य देव दिखाई दिये और कहा कि हे मूर्ख यह गाय उस वृद्दा के लिये ही है। वह हर रविवार नियम पूर्वक व्रत रखती है। इस गाय को वापस लौटाने में ही तुम्हारी भलाई। राजा को तुरंत जाग आ गई और उसने बुढ़िया को बुलाकर बहुत सारा धन दिया और क्षमा मांगते हुए सम्मान पूर्वक वापस भेजा।

पड़ोसन को राजा ने दंडित किया और साथ ही पूरे राज्य में घोषणा करवाई की आज से सारी प्रजा रविवार के दिन उपवास रखेगी व सूर्य देव की पूजा करेगी। रविवार के व्रत से उसका राज्य भी धन्य धान्य से संपन्न हुआ और प्रजा में सुख शांति रहने लगी।

पौराणिक ग्रंथों में रविवार के व्रत को समस्त पापों का नाश करने वाला माना गया है। अच्छे स्वास्थ्य व घर में समृद्धि की कामना के लिये भी रविवार का व्रत किया जाता है। इस व्रत के दिन सूर्य देव की पूजा की जाती है। पूजा के बाद भगवान सूर्यदेव को याद करते हुए ही तेल रहित भोजन करना चाहिये।

एक वर्ष तक नियमित रूप से उपवास रखने के पश्चात व्रत का उद्यापन करना चाहिये। मान्यता है कि इस उपवास को करने से उपासक जीवन पर्यंत तमाम सुखों को भोगता है व मृत्यु पश्चात सूर्यलोक में गमन कर मोक्ष को पाता है।

क्यों की जाती है गणेश-लक्ष्‍मी की पूजा एक साथ?

कोई भी शुभ कार्य गणेश पूजन के बगैर कभी पूरा नहीं होता। गणेश जी बुद्धि प्रदान करते हैं। वे विघ्न विनाशक और विघ्नेश्वर हैं। यदि व्यक्ति के पास खूब धन-सम्पदा है और बुद्धि का अभाव है तो वह उसका सदुपयोग नहीं कर पायेगा।

इसलिए व्यक्ति का बुद्धिमान और विवेकी होना भी आवश्यक है। तभी धन के महत्व को समझा जा सकता है। गणेश लक्ष्मी की एक साथ पूजा के महत्त्व को कई कहानियों के माध्यम से बताया गया है। आइये जाने ऐसी ही कहानी।

शास्त्रों के अनुसार लक्ष्मी जी को धन और समृद्धि का प्रतीक माना गया है। जिसकी वजह से लक्ष्मी जी को इसका अभिमान हो जाता है। विष्णु जी इस अभिमान को खत्म करना चाहते थे इसलिए उन्हों ने लक्ष्मी जी से कहा कि स्त्री तब तक पूर्ण नहीं होती है जब तक वह माँ ना बन जाये।

लक्ष्मी जी के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए यह सुन के वे बहुत निराश हो गयी। तब वे देवी पार्वती के पास गयी मदद मांगने के लिए।

पार्वती जी को दो पुत्र थे इसलिए लक्ष्मी जी ने उनसे एक पुत्र को गोद लेने को कहा। पार्वती जी जानती थी कि लक्ष्मी जी एक स्थान पर लंबे समय नहीं रहती हैं।

इसलिए वे बच्चे की देख भाल नहीं कर पाएंगी। लेकिन उनके दर्द को समझते हुए उन्होंने अपने पुत्र गणेश को उन्हें सौप दिया।

इससे लक्ष्मी जो बहुत प्रसन्न हुई और उन्होंने कहा कि वे गणेश का बहुत ध्यान रखेंगी। और जो सुख और समृद्धि के लिए लक्ष्मी जी का पूजन करते हैं उन्हें उनसे पहले गणेश जी की पूजा करनी पड़ेगी, तभी मेरी पूजा संपन्न होगी।

पुनर्जन्म

पुनर्जन्म से सम्बंधित चालीस प्रश्नों को उत्तर सहित पढ़े?????

(1) प्रश्न :- पुनर्जन्म किसको कहते हैं ?

उत्तर :- जब जीवात्मा एक शरीर का त्याग करके किसी दूसरे शरीर में जाती है तो इस बार बार जन्म लेने की क्रिया को पुनर्जन्म कहते हैं ।

(2) प्रश्न :- पुनर्जन्म क्यों होता है ?

उत्तर :- जब एक जन्म के अच्छे बुरे कर्मों के फल अधुरे रह जाते हैं तो उनको भोगने के लिए दूसरे जन्म आवश्यक हैं ।

(3) प्रश्न :- अच्छे बुरे कर्मों का फल एक ही जन्म में क्यों नहीं मिल जाता ? एक में ही सब निपट जाये तो कितना अच्छा हो ?

उत्तर :- नहीं जब एक जन्म में कर्मों का फल शेष रह जाए तो उसे भोगने के लिए दूसरे जन्म अपेक्षित होते हैं ।

(4) प्रश्न :- पुनर्जन्म को कैसे समझा जा सकता है ?

उत्तर :- पुनर्जन्म को समझने के लिए जीवन और मृत्यु को समझना आवश्यक है । और जीवन मृत्यु को समझने के लिए शरीर को समझना आवश्यक है ।

(5) प्रश्न :- शरीर के बारे में समझाएँ ?

उत्तर :- हमारे शरीर को निर्माण प्रकृति से हुआ है ।
जिसमें मूल प्रकृति ( सत्व रजस और तमस ) से प्रथम बुद्धि तत्व का निर्माण हुआ है ।
बुद्धि से अहंकार ( बुद्धि का आभामण्डल ) ।
अहंकार से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ( चक्षु, जिह्वा, नासिका, त्वचा, श्रोत्र ), मन ।
पांच कर्मेन्द्रियाँ ( हस्त, पाद, उपस्थ, पायु, वाक् ) ।

शरीर की रचना को दो भागों में बाँटा जाता है ( सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर ) ।

(6) प्रश्न :- सूक्ष्म शरीर किसको बोलते हैं ?

उत्तर :- सूक्ष्म शरीर में बुद्धि, अहंकार, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ । ये सूक्ष्म शरीर आत्मा को सृष्टि के आरम्भ में जो मिलता है वही एक ही सूक्ष्म शरीर सृष्टि के अंत तक उस आत्मा के साथ पूरे एक सृष्टि काल ( ४३२००००००० वर्ष ) तक चलता है । और यदि बीच में ही किसी जन्म में कहीं आत्मा का मोक्ष हो जाए तो ये सूक्ष्म शरीर भी प्रकृति में वहीं लीन हो जायेगा ।

(7) प्रश्न :- स्थूल शरीर किसको कहते हैं ?

उत्तर :- पंच कर्मेन्द्रियाँ ( हस्त, पाद, उपस्थ, पायु, वाक् ) , ये समस्त पंचभौतिक बाहरी शरीर ।

(8) प्रश्न :- जन्म क्या होता है ?

उत्तर :- जीवात्मा का अपने करणों ( सूक्ष्म शरीर ) के साथ किसी पंचभौतिक शरीर में आ जाना ही जन्म कहलाता है ।

(9) प्रश्न :- मृत्यु क्या होती है ?

उत्तर :- जब जीवात्मा का अपने पंचभौतिक स्थूल शरीर से वियोग हो जाता है, तो उसे ही मृत्यु कहा जाता है । परन्तु मृत्यु केवल सथूल शरीर की होती है , सूक्ष्म शरीर की नहीं । सूक्ष्म शरीर भी छूट गया तो वह मोक्ष कहलाएगा मृत्यु नहीं । मृत्यु केवल शरीर बदलने की प्रक्रिया है, जैसे मनुष्य कपड़े बदलता है । वैसे ही आत्मा शरीर भी बदलता है ।

(10) प्रश्न :- मृत्यु होती ही क्यों है ?

उत्तर :- जैसे किसी एक वस्तु का निरन्तर प्रयोग करते रहने से उस वस्तु का सामर्थ्य घट जाता है, और उस वस्तु को बदलना आवश्यक हो जाता है, ठीक वैसे ही एक शरीर का सामर्थ्य भी घट जाता है और इन्द्रियाँ निर्बल हो जाती हैं । जिस कारण उस शरीर को बदलने की प्रक्रिया का नाम ही मृत्यु है ।

(11) प्रश्न :- मृत्यु न होती तो क्या होता ?

उत्तर :- तो बहुत अव्यवस्था होती । पृथ्वी की जनसंख्या बहुत बढ़ जाती । और यहाँ पैर धरने का भी स्थान न होता ।

(12) प्रश्न :- क्या मृत्यु होना बुरी बात है ?

उत्तर :- नहीं, मृत्यु होना कोई बुरी बात नहीं ये तो एक प्रक्रिया है शरीर परिवर्तन की ।

(13) प्रश्न :- यदि मृत्यु होना बुरी बात नहीं है तो लोग इससे इतना डरते क्यों हैं ?

उत्तर :- क्योंकि उनको मृत्यु के वैज्ञानिक स्वरूप की जानकारी नहीं है । वे अज्ञानी हैं । वे समझते हैं कि मृत्यु के समय बहुत कष्ट होता है । उन्होंने वेद, उपनिषद, या दर्शन को कभी पढ़ा नहीं वे ही अंधकार में पड़ते हैं और मृत्यु से पहले कई बार मरते हैं ।

(14) प्रश्न :- तो मृत्यु के समय कैसा लगता है ? थोड़ा सा तो बतायें ?

उत्तर :- जब आप बिस्तर में लेटे लेटे नींद में जाने लगते हैं तो आपको कैसा लगता है ?? ठीक वैसा ही मृत्यु की अवस्था में जाने में लगता है उसके बाद कुछ अनुभव नहीं होता । जब आपकी मृत्यु किसी हादसे से होती है तो उस समय आपको मूर्छा आने लगती है, आप ज्ञान शून्य होने लगते हैं जिससे की आपको कोई पीड़ा न हो । तो यही ईश्वर की सबसे बड़ी कृपा है कि मृत्यु के समय मनुष्य ज्ञान शून्य होने लगता है और सुषुुप्तावस्था में जाने लगता है ।

(15) प्रश्न :- मृत्यु के डर को दूर करने के लिए क्या करें ?

उत्तर :- जब आप वैदिक आर्ष ग्रन्थ ( उपनिषद, दर्शन आदि ) का गम्भीरता से अध्ययन करके जीवन,मृत्यु, शरीर, आदि के विज्ञान को जानेंगे तो आपके अन्दर का, मृत्यु के प्रति भय मिटता चला जायेगा और दूसरा ये की योग मार्ग पर चलें तो स्वंय ही आपका अज्ञान कमतर होता जायेगा और मृत्यु भय दूर हो जायेगा । आप निडर हो जायेंगे । जैसे हमारे बलिदानियों की गाथायें आपने सुनी होंगी जो राष्ट्र की रक्षा के लिये बलिदान हो गये । तो आपको क्या लगता है कि क्या वो ऐसे ही एक दिन में बलिदान देने को तैय्यार हो गये थे ? नहीं उन्होने भी योगदर्शन, गीता, साँख्य, उपनिषद, वेद आदि पढ़कर ही निर्भयता को प्राप्त किया था । योग मार्ग को जीया था, अज्ञानता का नाश किया था ।

महाभारत के युद्ध में भी जब अर्जुन भीष्म, द्रोणादिकों की मृत्यु के भय से युद्ध की मंशा को त्याग बैठा था तो योगेश्वर कृष्ण ने भी तो अर्जुन को इसी सांख्य, योग, निष्काम कर्मों के सिद्धान्त के माध्यम से जीवन मृत्यु का ही तो रहस्य समझाया था और यह बताया कि शरीर तो मरणधर्मा है ही तो उसी शरीर विज्ञान को जानकर ही अर्जुन भयमुक्त हुआ । तो इसी कारण तो वेदादि ग्रन्थों का स्वाध्याय करने वाल मनुष्य ही राष्ट्र के लिए अपना शीश कटा सकता है, वह मृत्यु से भयभीत नहीं होता , प्रसन्नता पूर्वक मृत्यु को आलिंगन करता है ।

(16) प्रश्न :- किन किन कारणों से पुनर्जन्म होता है ?

उत्तर :- आत्मा का स्वभाव है कर्म करना, किसी भी क्षण आत्मा कर्म किए बिना रह ही नहीं सकता । वे कर्म अच्छे करे या फिर बुरे, ये उसपर निर्भर है, पर कर्म करेगा अवश्य । तो ये कर्मों के कारण ही आत्मा का पुनर्जन्म होता है । पुनर्जन्म के लिए आत्मा सर्वथा ईश्वराधीन है ।

(17) प्रश्न :- पुनर्जन्म कब कब नहीं होता ?

उत्तर :- जब आत्मा का मोक्ष हो जाता है तब पुनर्जन्म नहीं होता है ।

(18) प्रश्न :- मोक्ष होने पर पुनर्जन्म क्यों नहीं होता ?

उत्तर :- क्योंकि मोक्ष होने पर स्थूल शरीर तो पंचतत्वों में लीन हो ही जाता है, पर सूक्ष्म शरीर जो आत्मा के सबसे निकट होता है, वह भी अपने मूल कारण प्रकृति में लीन हो जाता है ।

(19) प्रश्न :- मोक्ष के बाद क्या कभी भी आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता ?

उत्तर :- मोक्ष की अवधि तक आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता । उसके बाद होता है ।

(20) प्रश्न :- लेकिन मोक्ष तो सदा के लिए होता है, तो फिर मोक्ष की एक निश्चित अवधि कैसे हो सकती है ?

उत्तर :- सीमित कर्मों का कभी असीमित फल नहीं होता । यौगिक दिव्य कर्मों का फल हमें ईश्वरीय आनन्द के रूप में मिलता है, और जब ये मोक्ष की अवधि समाप्त होती है तो दुबारा से ये आत्मा शरीर धारण करती है ।

(21) प्रश्न :- मोक्ष की अवधि कब तक होती है ?

उत्तर :- मोक्ष का समय ३१ नील १० खरब ४० अरब वर्ष है, जब तक आत्मा मुक्त अवस्था में रहती है ।

(22) प्रश्न :- मोक्ष की अवस्था में स्थूल शरीर या सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ रहता है या नहीं ?

उत्तर :- नहीं मोक्ष की अवस्था में आत्मा पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाता रहता है और ईश्वर के आनन्द में रहता है, बिलकुल ठीक वैसे ही जैसे कि मछली पूरे समुद्र में रहती है । और जीव को किसी भी शरीर की आवश्यक्ता ही नहीं होती।

(23) प्रश्न :- मोक्ष के बाद आत्मा को शरीर कैसे प्राप्त होता है ?

उत्तर :- सबसे पहला तो आत्मा को कल्प के आरम्भ ( सृष्टि आरम्भ ) में सूक्ष्म शरीर मिलता है फिर ईश्वरीय मार्ग और औषधियों की सहायता से प्रथम रूप में अमैथुनी जीव शरीर मिलता है, वो शरीर सर्वश्रेष्ठ मनुष्य या विद्वान का होता है जो कि मोक्ष रूपी पुण्य को भोगने के बाद आत्मा को मिला है । जैसे इस वाली सृष्टि के आरम्भ में चारों ऋषि विद्वान ( वायु , आदित्य, अग्नि , अंगिरा ) को मिला जिनको वेद के ज्ञान से ईश्वर ने अलंकारित किया । क्योंकि ये ही वो पुण्य आत्मायें थीं जो मोक्ष की अवधि पूरी करके आई थीं ।

(24) प्रश्न :- मोक्ष की अवधि पूरी करके आत्मा को मनुष्य शरीर ही मिलता है या जानवर का ?

उत्तर :- मनुष्य शरीर ही मिलता है ।

(25) प्रश्न :- क्यों केवल मनुष्य का ही शरीर क्यों मिलता है ? जानवर का क्यों नहीं ?

उत्तर :- क्योंकि मोक्ष को भोगने के बाद पुण्य कर्मों को तो भोग लिया , और इस मोक्ष की अवधि में पाप कोई किया ही नहीं तो फिर जानवर बनना सम्भव ही नहीं , तो रहा केवल मनुष्य जन्म जो कि कर्म शून्य आत्मा को मिल जाता है ।

(26) प्रश्न :- मोक्ष होने से पुनर्जन्म क्यों बन्द हो जाता है ?

उत्तर :- क्योंकि योगाभ्यास आदि साधनों से जितने भी पूर्व कर्म होते हैं ( अच्छे या बुरे ) वे सब कट जाते हैं । तो ये कर्म ही तो पुनर्जन्म का कारण हैं, कर्म ही न रहे तो पुनर्जन्म क्यों होगा ??

(27) प्रश्न :- पुनर्जन्म से छूटने का उपाय क्या है ?

उत्तर :- पुनर्जन्म से छूटने का उपाय है योग मार्ग से मुक्ति या मोक्ष का प्राप्त करना ।

(28) प्रश्न :- पुनर्जन्म में शरीर किस आधार पर मिलता है ?

उत्तर :- जिस प्रकार के कर्म आपने एक जन्म में किए हैं उन कर्मों के आधार पर ही आपको पुनर्जन्म में शरीर मिलेगा ।

(29) प्रश्न :- कर्म कितने प्रकार के होते हैं ?

उत्तर :- मुख्य रूप से कर्मों को तीन भागों में बाँटा गया है :- सात्विक कर्म , राजसिक कर्म , तामसिक कर्म ।

(१) सात्विक कर्म :- सत्यभाषण, विद्याध्ययन, परोपकार, दान, दया, सेवा आदि ।

(२) राजसिक कर्म :- मिथ्याभाषण, क्रीडा, स्वाद लोलुपता, स्त्रीआकर्षण, चलचित्र आदि ।

(३) तामसिक कर्म :- चोरी, जारी, जूआ, ठग्गी, लूट मार, अधिकार हनन आदि ।

और जो कर्म इन तीनों से बाहर हैं वे दिव्य कर्म कलाते हैं, जो कि ऋषियों और योगियों द्वारा किए जाते हैं । इसी कारण उनको हम तीनों गुणों से परे मानते हैं । जो कि ईश्वर के निकट होते हैं और दिव्य कर्म ही करते हैं ।

(30) प्रश्न :- किस प्रकार के कर्म करने से मनुष्य योनि प्राप्त होती है ?

उत्तर :- सात्विक और राजसिक कर्मों के मिलेजुले प्रभाव से मानव देह मिलती है , यदि सात्विक कर्म बहुत कम है और राजसिक अधिक तो मानव शरीर तो प्राप्त होगा परन्तु किसी नीच कुल में , यदि सात्विक गुणों का अनुपात बढ़ता जाएगा तो मानव कुल उच्च ही होता जायेगा । जिसने अत्यधिक सात्विक कर्म किए होंगे वो विद्वान मनुष्य के घर ही जन्म लेगा ।

(31) प्रश्न :- किस प्रकार के कर्म करने से आत्मा जीव जन्तुओं के शरीर को प्राप्त होता है ?

उत्तर :- तामसिक और राजसिक कर्मों के फलरूप जानवर शरीर आत्मा को मिलता है । जितना तामसिक कर्म अधिक किए होंगे उतनी ही नीच योनि उस आत्मा को प्राप्त होती चली जाती है । जैसे लड़ाई स्वभाव वाले , माँस खाने वाले को कुत्ता, गीदड़, सिंह, सियार आदि का शरीर मिल सकता है , और घोर तामसिक कर्म किए हुए को साँप, नेवला, बिच्छू, कीड़ा, काकरोच, छिपकली आदि । तो ऐसे ही कर्मों से नीच शरीर मिलते हैं और ये जानवरों के शरीर आत्मा की भोग योनियाँ हैं ।

(32) प्रश्न :- तो क्या हमें यह पता लग सकता है कि हम पिछले जन्म में क्या थे ? या आगे क्या होंगे ?

उत्तर :- नहीं कभी नहीं, सामान्य मनुष्य को यह पता नहीं लग सकता । क्योंकि यह केवल ईश्वर का ही अधिकार है कि हमें हमारे कर्मों के आधार पर शरीर दे । वही सब जानता है ।

(33) प्रश्न :- तो फिर यह किसको पता चल सकता है ?

उत्तर :- केवल एक सिद्ध योगी ही यह जान सकता है , योगाभ्यास से उसकी बुद्धि अत्यन्त तीव्र हो चुकी होती है कि वह ब्रह्माण्ड एवं प्रकृति के महत्वपूर्ण रहस्य़ अपनी योग शक्ति से जान सकता है । उस योगी को बाह्य इन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रहती है
वह अन्तः मन और बुद्धि से सब जान लेता है । उसके सामने भूत और भविष्य दोनों सामने आ खड़े होते हैं ।

(34) प्रश्न :- यह बतायें की योगी यह सब कैसे जान लेता है ?

उत्तर :- अभी यह लेख पुनर्जन्म पर है, यहीं से प्रश्न उत्तर का ये क्रम चला देंगे तो लेख का बहुत ही विस्तार हो जायेगा । इसीलिये हम अगले लेख में यह विषय विस्तार से समझायेंगे कि योगी कैसे अपनी विकसित शक्तियों से सब कुछ जान लेता है ? और वे शक्तियाँ कौन सी हैं ? कैसे प्राप्त होती हैं ? इसके लिए अगले लेख की प्रतीक्षा करें…

(35) प्रश्न :- क्या पुनर्जन्म के कोई प्रमाण हैं ?

उत्तर :- हाँ हैं, जब किसी छोटे बच्चे को देखो तो वह अपनी माता के स्तन से सीधा ही दूध पीने लगता है जो कि उसको बिना सिखाए आ जाता है क्योंकि ये उसका अनुभव पिछले जन्म में दूध पीने का रहा है, वर्ना बिना किसी कारण के ऐसा हो नहीं सकता । दूसरा यह कि कभी आप उसको कमरे में अकेला लेटा दो तो वो कभी कभी हँसता भी है , ये सब पुराने शरीर की बातों को याद करके वो हँसता है पर जैसे जैसे वो बड़ा होने लगता है तो धीरे धीरे सब भूल जाता है…!

(36) प्रश्न :- क्या इस पुनर्जन्म को सिद्ध करने के लिए कोई उदाहरण हैं…?

उत्तर :- हाँ, जैसे अनेकों समाचार पत्रों में, या TV में भी आप सुनते हैं कि एक छोटा सा बालक अपने पिछले जन्म की घटनाओं को याद रखे हुए है, और सारी बातें बताता है जहाँ जिस गाँव में वो पैदा हुआ, जहाँ उसका घर था, जहाँ पर वो मरा था । और इस जन्म में वह अपने उस गाँव में कभी गया तक नहीं था लेकिन फिर भी अपने उस गाँव की सारी बातें याद रखे हुए है , किसी ने उसको कुछ बताया नहीं, सिखाया नहीं, दूर दूर तक उसका उस गाँव से इस जन्म में कोई नाता नहीं है । फिर भी उसकी गुप्त बुद्धि जो कि सूक्ष्म शरीर का भाग है वह घटनाएँ संजोए हुए है जाग्रत हो गई और बालक पुराने जन्म की बातें बताने लग पड़ा…!

(37) प्रश्न :- लेकिन ये सब मनघड़ंत बातें हैं, हम विज्ञान के युग में इसको नहीं मान सकते क्योंकि वैज्ञानिक रूप से ये बातें बेकार सिद्ध होती हैं, क्या कोई तार्किक और वैज्ञानिक आधार है इन बातों को सिद्ध करने का ?

उत्तर :- आपको किसने कहा कि हम विज्ञान के विरुद्ध इस पुनर्जन्म के सिद्धान्त का दावा करेंगे । ये वैज्ञानिक रूप से सत्य है , और आपको ये हम अभी सिद्ध करके दिखाते हैं..!

(38) प्रश्न :- तो सिद्ध कीजीए ?

उत्तर :- जैसा कि आपको पहले बताया गया है कि मृत्यु केवल स्थूल शरीर की होती है, पर सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ वैसे ही आगे चलता है , तो हर जन्म के कर्मों के संस्कार उस बुद्धि में समाहित होते रहते हैं । और कभी किसी जन्म में वो कर्म अपनी वैसी ही परिस्थिती पाने के बाद जाग्रत हो जाते हैं

इसे उदहारण से समझें :- एक बार एक छोटा सा ६ वर्ष का बालक था, यह घटना हरियाणा के सिरसा के एक गाँव की है । जिसमें उसके माता पिता उसे एक स्कूल में घुमाने लेकर गये जिसमें उसका दाखिला करवाना था और वो बच्चा केवल हरियाणवी या हिन्दी भाषा ही जानता था कोई तीसरी भाषा वो समझ तक नहीं सकता था ।

लेकिन हुआ कुछ यूँ था कि उसे स्कूल की Chemistry Lab में ले जाया गया और वहाँ जाते ही उस बच्चे का मूँह लाल हो गया !! चेहरे के हावभाव बदल गये !!

और उसने एकदम फर्राटेदार French भाषा बोलनी शुरू कर दी !! उसके माता पिता बहुत डर गये और घबरा गये , तुरंत ही बच्चे को अस्पताल ले जाया गया । जहाँ पर उसकी बातें सुनकर डाकटर ने एक दुभाषिये का प्रबन्ध किया ।

जो कि French और हिन्दी जानता था , तो उस दुभाषिए ने सारा वृतान्त उस बालक से पूछा तो उस बालक ने बताया कि ” मेरा नाम Simon Glaskey है और मैं French Chemist हूँ । मेरी मौत मेरी प्रयोगशाला में एक हादसे के कारण ( Lab. ) में हुई थी । ”

तो यहाँ देखने की बात यह है कि इस जन्म में उसे पुरानी घटना के अनुकूल मिलती जुलती परिस्थिति से अपना वह सब याद आया जो कि उसकी गुप्त बुद्धि में दबा हुआ था । यानि की वही पुराने जन्म में उसके साथ जो प्रयोगशाला में हुआ, वैसी ही प्रयोगशाला उस दूसरे जन्म में देखने पर उसे सब याद आया । तो ऐसे ही बहुत सी उदहारणों से आप पुनर्जन्म को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर सकते हो…!

(39) प्रश्न :- तो ये घटनाएँ भारत में ही क्यों होती हैं ? पूरा विश्व इसको मान्यता क्यों नहीं देता ?

उत्तर :- ये घटनायें पूरे विश्व भर में होती रहती हैं और विश्व इसको मान्यता इसलिए नहीं देता क्योंकि उनको वेदानुसार यौगिक दृष्टि से शरीर का कुछ भी ज्ञान नहीं है । वे केवल माँस और हड्डियों के समूह को ही शरीर समझते हैं , और उनके लिए आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है । तो ऐसे में उनको न जीवन का ज्ञान है, न मृत्यु का ज्ञान है, न आत्मा का ज्ञान है, न कर्मों का ज्ञान है, न ईश्वरीय व्यवस्था का ज्ञान है । और अगर कोई पुनर्जन्म की कोई घटना उनके सामने आती भी है तो वो इसे मानसिक रोग जानकर उसको Multiple Personality Syndrome का नाम देकर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं और उसके कथनानुसार जाँच नहीं करवाते हैं…!

(40) प्रश्न :- क्या पुनर्जन्म केवल पृथिवी पर ही होता है या किसी और ग्रह पर भी ?

उत्तर :- ये पुनर्जन्म पूरे ब्रह्माण्ड में यत्र तत्र होता है, कितने असंख्य सौरमण्डल हैं, कितनी ही पृथीवियाँ हैं । तो एक पृथीवी के जीव मरकर ब्रह्माण्ड में किसी दूसरी पृथीवी के उपर किसी न किसी शरीर में भी जन्म ले सकते हैं । ये ईश्वरीय व्यवस्था के अधीन है…

परन्तु यह बड़ा ही अजीब लगता है कि मान लो कोई हाथी मरकर मच्छर बनता है तो इतने बड़े हाथी की आत्मा मच्छर के शरीर में कैसे घुसेगी..?

यही तो भ्रम है आपका कि आत्मा जो है वो पूरे शरीर में नहीं फैली होती । वो तो हृदय के पास छोटे अणुरूप में होती है । सब जीवों की आत्मा एक सी है । चाहे वो व्हेल मछली हो, चाहे वो एक चींटी हो।

Source: WhatsApp/Internet

स्वर्ग का सेब

एक बार स्वर्ग से घोषणा हुई कि भगवान सेब बॉटने आ रहे है सभी लोग भगवान के प्रसाद के लिए तैयार हो कर लाइन लगा कर खड़े हो गए।

एक छोटी बच्ची बहुत उत्सुक थी क्योंकि वह पहली बार भगवान को देखने जा रही थी।

एक बड़े और सुंदर सेब के साथ साथ भगवान के दर्शन की कल्पना से ही खुश थी।

अंत में प्रतीक्षा समाप्त हुई। बहुत लंबी कतार में जब उसका नम्बर आया तो भगवान ने उसे एक बड़ा और लाल सेब दिया।

लेकिन जैसे ही उसने सेब पकड़ कर लाइन से बाहर निकली उसका सेब हाथ से छूट कर कीचड़ में गिर गया। बच्ची उदास हो गई।

अब उसे दुबारा से लाइन में लगना पड़ेगा। दूसरी लाइन पहली से भी लंबी थी। लेकिन कोई और रास्ता नहीं था।

सब लोग ईमानदारी से अपनी बारी बारी से सेब लेकर जा रहे थे।

अन्ततः वह बच्ची फिर से लाइन में लगी और अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगी।

आधी क़तार को सेब मिलने के बाद सेब ख़त्म होने लगे। अब तो बच्ची बहुत उदास हो गई।

उसने सोचा कि उसकी बारी आने तक तो सब सेब खत्म हो जाएंगे। लेकिन वह ये नहीं जानती थी कि भगवान के भंडार कभी ख़ाली नही होते।

जब तक उसकी बारी आई तो और भी नए सेब आ गए ।

भगवान तो अन्तर्यामी होते हैं। बच्ची के मन की बात जान गए।उन्होंने इस बार बच्ची को सेब देकर कहा कि पिछली बार वाला सेब एक तरफ से सड़ चुका था।

तुम्हारे लिए सही नहीं था इसलिए मैने ही उसे तुम्हारे हाथों गिरवा दिया था। दूसरी तरफ लंबी कतार में तुम्हें इसलिए लगाया क्योंकि नए सेब अभी पेडों पर थे। उनके आने में समय बाकी था। इसलिए तुम्हें अधिक प्रतीक्षा करनी पड़ी।

ये सेब अधिक लाल, सुंदर और तुम्हारे लिए उपयुक्त है।

भगवान की बात सुनकर बच्ची संतुष्ट हो कर गई ।

इसी प्रकार यदि आपके किसी काम में विलंब हो रहा है तो उसे भगवान की इच्छा मान कर स्वीकार करें। जिस प्रकार हम अपने बच्चों को उत्तम से उत्तम देने का प्रयास करते हैं।उसी प्रकार भगवान भी अपने बच्चों को वही देंगे जो उनके लिए उत्तम होगा। ईमानदारी से अपनी बारी की प्रतीक्षा करे। और उस परम पिता की कृपा के लिए हर पल हर क्षण उसका गुणगान करें।

एक प्यार ऐसा भी….

नींद की गोलियों की आदी हो चुकी
बूढ़ी माँ नींद की गोली के लिए ज़िद कर रही थी।

बेटे की कुछ समय पहले शादी हुई थी।

बहु डॉक्टर थी।
बहु सास को नींद की
दवा की लत के नुक्सान के बारे में बताते
हुए उन्हें गोली नहीं देने पर अड़ी थी।.
जब बात नहीं बनी तो सास ने गुस्सा
दिखाकर नींद की गोली पाने का
प्रयास किया।

अंत में अपने बेटे को आवाज़ दी।

बेटे ने आते ही कहा,’माँ मुहं खोलो।

पत्नी ने मना करने पर भी बेटे ने जेब से

एक दवा का पत्ता निकाल कर एक छोटी
पीली गोली माँ के मुहं में डाल दी।
पानी भी पिला दिया।गोली लेते ही आशीर्वाद देती हुई

माँ सो गयी।.

पत्नी ने कहा ,

ऐसा नहीं करना चाहिए।’

पति ने दवा का पत्ता अपनी पत्नी को दे दिया।

विटामिन की गोली का पत्ता देखकर पत्नी के
चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी।
धीरे से बोली

आप माँ के साथ चीटिंग करते हो।

”बचपन में माँ ने भी चीटिंग करके
कई चीजें खिलाई है।
पहले वो करती थीं,

अब मैं बदला ले रहा हूँ।
यह कहते हुए बेटा मुस्कुराने लगा।” – एक प्यार ऐसा भी – जरूर पढ़े
ये रचना मेरी नहीं हैं मुझे प्यारी लगी तो आप सब के साथ शेयर करने का मन हुआ ।।

चेहरे पर निखार लाने के लिए घरेलू उबटन कैसे बनाए

🌸 एक कटोरी बेसन, चार चम्मच हल्दी, 2 चम्मच सरसों का तेल, इसे दूध में मिलाकर पेस्ट बना लें। अब इस उबटन को शरीर पर मलें। इसे तब तक मलें जब तक कि यह सूखकर खुद ही झड़ने न लगे। इस उबटन से चेहरे की त्वचा मुलायम होती है।
🌼हल्दी को बादाम की गिरी के साथ मिलाकर उसमें एक चम्मच ज्वार का आटा, 1 चम्मच दूध मिलाकर लेप तैयार कीजिए। नहाने से एक घंटा पहले लगाएं व गरम पानी से नहायें ।
🌾चंदन को हल्दी की गांठों के साथ गुलाब जल के साथ पीसें। त्वचा पर इसका लेप लगाकर सूखने दें। फिर ठंडे पानी से नहा लें । इस उबटन का प्रयोग गर्मियों में ही करें। इससे चेहरे पर निखार आ जायेगा |
🌸 बड़े चम्मच दूध में चंदन घिसकर संतरे का रस और बेसन मिलाएं। आधे घंटे तक सूखने तक चेहरे पर लगा कर रखें । सूखने पर ठंडे पानी से धोएं, ये दोनों उबटन त्वचा को ठंडक देने वाले होते हैं। इसके अलावा कुछ फेस पैक हैं जिनका प्रयोग आप आसानी से कर सकते हैं।
🍂चेहरे के दाग-धब्बे दूर करने के लिए चंदन पाउडर में कपूर घिसकर मिलाएं। फिर शहद में मिलाकर चेहरे पर लगाएं। आधे घंटे बाद चेहरा धो लें। इस उबटन के नियमित प्रयोग से कुछ ही दिनों में चेहरा साफ हो जाएगा।
🌾छने हुए चोकर में दूध मिलाकर चेहरे पर लगाकर चेहरा धो लें। यदि आपकी त्वचा रूखी है तो मलाई मिलाकर लगाएं। यदि चेहरे पर बारीक-बारीक गड्ढे हों तो चावल के आटे में कच्चा दूध मिलाकर गाढ़ा पेस्ट बना लें। एक माह तक लगातार इस उबटन का प्रयोग करें, चेहरे के ये अनाकर्षक गड्ढे कुछ ही दिनों में भर जाएंगे।
🌼नींबू और संतरे के सूखे छिलकों की बारीक पीसकर एक चम्मच चूर्ण में चुटकी भर हल्दी, थोड़ा-सा बेसन और गुलाब जल की दो बूंद कच्चे दूध के साथ मिलाकर गाढ़ा पेस्ट तैयार कर लें। यदि त्वचा रूखी है तो थोड़ी-सी मलाई भी मिला लें। नियमित प्रयोग करने पर आपका चेहरा गुलाब की तरह खिल उठेगा।
🌻सॉफ्ट स्किन के लिए दो चम्मच शहद, दो चम्मच नींबू का रस, दो चम्मच ग्लिसरीन और आधा कप पानी मिलाकर त्वचा पर मिलाकर लगाएं। एक घंटे बाद कुनकुने पानी से चेहरा धो लें।
🌸प्रतिदिन सुबह-शाम कच्चा दूध लेकर रुई के फोहे से चेहरा साफ करें। ऐसा करने से चेहरे में नमी भी बनी रहेगी और ताजगी भी नजर आएगी।
🌻काले तिल और पीली सरसों को दूध में पीसकर चेहरे पर दस मिनट लगाएं। इस प्रकार के नियमित प्रयोग से चेहरे के दाग-धब्बे दूर हो जाएंगे।
🌼चहरे पर मुंहासे हटाने के लिए लौंग को पीसकर सुबह-शाम मुंहासों पर नियमित रूप से मलें। कुछ ही दिनों में चेहरा बेदाग हो जाएगा।

खांसी में स्टेरॉयड का भी बाप है कॉफ़ी का ये प्रयोग

क्या आपको अक्सर ही खांसी लगी रहती है ? क्या आप की खांसी बहुत पुरानी हो चुकी है ?
क्या बार बार दवा लेने के बाद भी आपकी खांसी नहीं जा रही ?

⚫और आप दवा ले ले कर परेशान हो गए हो तो अभी ये जो फार्मूला हम बताने जा रहें हैं ये खांसी के मामले में स्टेरॉयड का भी बाप है. स्टेरॉयड कोई दवा नहीं होती ये डॉक्टर तब दिए जाते हैं जब कोई दवा असर ना करे. और स्टेरॉयड शरीर के लिए बेहद हानिकारक है. इस नुस्खे के बारे में हम ये भी बताना चाहते हैं के अनेक आधुनिक डॉक्टर भी इस का रिजल्ट देख कर चकित हो गए हैं. तो आइये जाने ये बेहतरीन नुस्खा.

इस प्रयोग में आवश्यक सामग्री:

▪ एक कप बनी हुयी फीकी काली कॉफ़ी (बिना दूध और चीनी के)
▪ दो चम्मच शहद
▪ दालचीनी – एक चुटकी (इच्छा अनुसार)

⚫इसके उपयोग की विधि

⚫एक कप गर्म कॉफ़ी में दो चम्मच शहद अच्छे से मिला लीजिये. अब इस कॉफ़ी को धीरे धीरे घूँट घूँट कर पीजिये. यह प्रयोग दिन में दो बार कीजिये. सुबह और शाम को. पुराने से पुरानी और किसी भी प्रकार की खांसी इस प्रयोग के कुछ दिन करने से छू मंतर हो जाती है.

⚫कफ की समस्या वाले 97 रोगियों पर यह प्रयोग किया गया जिसमे इतना चौंकाने वाले रिजल्ट मिले के कई मल्टी नेशनल फार्मा कंपनियों की रातों की नींद और दिन का चैन उड़ गया. इस ड्रिंक को और शक्तिशाली बनाने के लिए आप इसमें चुटकी भर दालचीनी का पाउडर भी डाल सकते हैं.

⚫आपके सु स्वास्थ्य की कामना रखते हैं. आप जब भी ये प्रयोग करें तो हमको अपने रिजल्ट एक हफ्ते के बाद ज़रूर बताएं. वैसे तो आप पहले ही बता देंगे क्यूंकि ये रिजल्ट ही इतना जल्दी देता है.

विशेष जब भी खांसी हो तो ये प्रयोग आजमा लिया कीजिये. आज के बाद कभी खांसी की कोई दवा तुरंत ना लें. पहले ये प्रयोग कर के देख ले.

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राम भक्त ‘हनुमान’ जी से सीखें जीवन प्रबंधन के ये दस प्रमुख सूत्र!!!!!!

हनुमान जी को कलियुग में सबसे प्रमुख ‘देवता’ माना जाता है। रामायण के सुन्दर कांड और तुलसीदास की हनुमान चालीसा में बजरंगबली के चरित्र पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इसके अनुसार हनुमान जी का किरदार हर रूप में युवाओं के लिए प्रेरणादायक है।

हनुमान जी को कलियुग में सबसे असरदार भगवान माना गया है। हनुमान जी के बारे में तुलसीदास लिखते हैं ‘संकट कटे मिटे सब पीरा,जो सुमिरै हनुमत बल बीरा’। हमेशा अपने भक्तों को संकट से निवृत्त करने वाले हनुमान जी ‘स्किल्ड इंडिया’ के जमाने में युवाओं के परमप्रिय देवता होने के साथ ही उनके जीवन प्रबंधन गुरु की भी भूमिका निभाते हैं।

आज हम आपको ‘बजरंगबली’ के उन दस गुणों के बारे में बताएंगे, जो न केवल आपको ‘उद्दात’ बनाएंगे, बल्कि आपके प्रोफ्रेशनल जीवन के लिए भी काफी प्रेरक साबित होंगे।

1. संवाद कौशल : – सीता जी से हनुमान पहली बार रावण की ‘अशोक वाटिका’ में मिले, इस कारण सीता उन्हें नहीं पहचानती थीं। एक वानर से श्रीराम का समाचार सुन वे आशंकित भी हुईं, परन्तु हनुमान जी ने अपने ‘संवाद कौशल’ से उन्हें यह भरोसा दिला ही दिया की वे राम के ही दूत हैं। सुंदरकांड में इस प्रसंग को इस तरह व्यक्त किया गया हैः

कपि के वचन सप्रेम सुनि, उपजा मन बिस्वास।
जाना मन क्रम बचन यह ,कृपासिंधु कर दास।।

2. विनम्रता : – समुद्र लांघते वक्त देवताओं ने ‘सुरसा’ को उनकी परीक्षा लेने के लिए भेजा। सुरसा ने मार्ग अवरुद्ध करने के लिए अपने शरीर का विस्तार करना शुरू कर दिया। प्रत्युत्तर में श्री हनुमान ने भी अपने आकार को उनका दोगुना कर दिया। “जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा, तासु दून कपि रूप देखावा।” इसके बाद उन्होंने स्वयं को लघु रूप में कर लिया, जिससे सुरसा प्रसन्न और संतुष्ट हो गईं। अर्थात केवल सामर्थ्य से ही जीत नहीं मिलती है, “विनम्रता” से समस्त कार्य सुगमतापूर्वक पूर्ण किए जा सकते हैं।

3. आदर्शों से कोई समझौता नहीं : – लंका में रावण के उपवन में हनुमान जी और मेघनाथ के मध्य हुए युद्ध में मेघनाथ ने ‘ब्रह्मास्त्र’ का प्रयोग किया। हनुमान जी चाहते, तो वे इसका तोड़ निकाल सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि वह उसका महत्व कम नहीं करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने ब्रह्मास्त्र का तीव्र आघात सह लिया। हालांकि, यह प्राणघातक भी हो सकता था। यहां गुरु हनुमान हमें सिखाते हैं कि अपने उसूलों से कभी समझौता नहीं करना चाहिए । तुलसीदास जी ने हनुमानजी की मानसिकता का सूक्ष्म चित्रण इस पर किया हैः

“ब्रह्मा अस्त्र तेंहि साँधा, कपि मन कीन्ह विचार।जौ न ब्रहासर मानऊँ, महिमा मिटाई अपार।।

4. बहुमुखी भूमिका में हनुमान : – हम अक्सर अपनी शक्ति और ज्ञान का प्रदर्शन करते रहते हैं, कई बार तो वहां भी जहां उसकी आवश्यकता भी नहीं होती। तुलसीदास जी हनुमान चालीसा में लिखते हैंः “सूक्ष्म रूप धरी सियंहि दिखावा, विकट रूप धरी लंक जरावा.

सीता के सामने उन्होंने खुद को लघु रूप में रखा, क्योंकि यहां वह पुत्र की भूमिका में थे, परन्तु संहारक के रूप में वे राक्षसों के लिए काल बन गए। एक ही स्थान पर अपनी शक्ति का दो अलग-अलग तरीके से प्रयोग करना हनुमान जी से सीखा जा सकता है।

5. समस्या नहीं समाधान स्वरूप : – जिस वक़्त लक्ष्मण रण भूमि में मूर्छित हो गए, उनके प्राणों की रक्षा के लिए वे पूरे पहाड़ उठा लाए, क्योंकि वे संजीवनी बूटी नहीं पहचानते थे। हनुमान जी यहां हमें सिखाते हैं कि मनुष्य को शंका स्वरूप नहीं, वरन समाधान स्वरूप होना चाहिए।

6. भावनाओं का संतुलन : – लंका के दहन के पश्चात् जब वह दोबारा सीता जी का आशीष लेने पहुंचे, तो उन्होंने सीता जी से कहा कि वह चाहें तो उन्हें अभी ले चल सकते हैं, पर “मै रावण की तरह चोरी से नहीं ले जाऊंगा। रावण का वध करने के पश्चात ही यहां से प्रभु श्रीराम आदर सहित आपको ले जाएंगे।” रामभक्त हनुमान अपनी भावनाओं का संतुलन करना जानते थे, इसलिए उन्होंने सीता माता को उचित समय (एक महीने के भीतर) पर आकर ससम्मान वापिस ले जाने को आश्वस्त किया।

7. आत्ममुग्धता से कोसों दूर : – सीता जी का समाचार लेकर सकुशल वापस पहुंचे श्री हनुमान की हर तरफ प्रशंसा हुई, लेकिन उन्होंने अपने पराक्रम का कोई किस्सा प्रभु राम को नहीं सुनाया। यह हनुमान जी का बड़प्पन था,जिसमे वह अपने बल का सारा श्रेय प्रभु राम के आशीर्वाद को दे रहे थे। प्रभू श्रीराम के लंका यात्रा वृत्तांत पूछने पर हनुमान जी जो कहा उससे भगवान राम भी हनुमान जी के आत्ममुग्धताविहीन व्यक्तित्व के कायल हो गए।

“ता कहूं प्रभु कछु अगम नहीं, जा पर तुम्ह अनुकूल । तव प्रभाव बड़वानलहि ,जारि सकइ खलु तूल ।।

8. नेतृत्व क्षमता : – समुद्र में पुल बनाते वक़्त अपेक्षित कमजोर और उच्चश्रृंखल वानर सेना से भी कार्य निकलवाना उनकी विशिष्ठ संगठनात्मक योग्यता का परिचायक है। राम-रावण युद्ध के समय उन्होंने पूरी वानरसेना का नेतृत्व संचालन प्रखरता से किया।

9. बौद्धिक कुशलता और वफादारी : – सुग्रीव और बाली के परस्पर संघर्ष के वक़्त प्रभु राम को बाली के वध के लिए राजी करना, क्योंकि एक सुग्रीव ही प्रभु राम की मदद कर सकते थे। इस तरह हनुमान जी ने सुग्रीव और प्रभू श्रीराम दोनों के कार्यों को अपने बुद्धि कौशल और चतुराई से सुगम बना दिया। यहां हनुमान जी की मित्र के प्रति ‘वफादारी’ और ‘आदर्श स्वामीभक्ति’ तारीफ के काबिल है।

10. समर्पण : – हनुमान जी एक आदर्श ब्रह्चारी थे। उनके ब्रह्मचर्य के समक्ष कामदेव भी नतमस्तक थे। यह सत्य है कि श्री हनुमान विवाहित थे, परन्तु उन्होंने यह विवाह एक विद्या की अनिवार्य शर्त को पूरा करने के लिए अपने गुरु भगवान् सूर्यदेव के आदेश पर किया था। श्री हनुमान के व्यक्तित्व का यह आयाम हमें ज्ञान के प्रति ‘समर्पण’ की शिक्षा देता है। इसी के बलबूते हनुमान जी ने अष्ट सिद्धियों और सभी नौ निधियों की प्राप्ति की।

बड़ी विडंबना है कि दुनिया की सबसे बड़ी युवा शक्ति भारत के पास होने के बावजूद उचित जीवन प्रबंधन न होने के कारण हम युवाओं की क्षमता का समुचित दोहन नहीं कर पा रहे हैं। युवाओं के बीच खासे लोकप्रिय श्री हनुमान निश्चित रूप से युवाओं के लिए सबसे बड़े आदर्श हैं, क्योंकि हनुमान जी का चरित्र अतुलित पराक्रम, ज्ञान और शक्ति के बाद भी अहंकार से विहीन था।

आज हमें हनुमान जी की पूजा से अधिक उनके चरित्र को पूजकर उसे आत्मसात करने की आवश्यकता है, जिससे हम भारत को राष्ट्रवाद सरीखे उच्चतम नैतिक मूल्यों के साथ ‘कौशल युक्त’ भी बना सकें।

भगवान का भरोसा

एक आदमी ने दुकानदार से पूछा – केले क्या भाव है और सेब क्या भाव हैं ?

तो दुकानदार ने कहा – केले 50 रु.दर्जन और सेब 80 रु. किलो।

ठीक उसी समय एक गरीब सी औरत दुकान में आयी और बोली मुझे एक किलो सेब और एक दर्जन केले चाहिये – क्या भाव लगाओगे भैया?

दुकानदार बोला – केले 5 रु दर्जन और सेब 25 रु किलो।

औरत ने कहा जल्दी से दे दीजिये। दुकान में पहले से मौजूद ग्राहक ने खा जाने वाली निगाहों से घूरकर दुकानदार को देखा। इससे पहले कि वो कुछ कहता – दुकानदार ने ग्राहक को इशारा करते हुये थोड़ा सा इंतजार करने को कहा।
औरत खुशी खुशी खरीदारी करके दुकान से निकलते हुये बड़बड़ाई – हे भगवान तेरा लाख-लाख शुक्र है। मेरे बच्चे फलों को खाकर बहुत खुश होंगे।

औरत के जाने के बाद दुकानदार ने पहले से मौजूद ग्राहक की तरफ देखते हुये कहा : ईश्वर गवाह है भाई साहब। मैंने आपको कोई धोखा देने की कोशिश नहीं की है। यह महिला विधवा है और चार अनाथ बच्चों की मां है। किसी से भी किसी तरह की मदद लेने को तैयार नहीं है। मैंने कई बार कोशिश की है और हर बार नाकामी मिली है। तब मुझे यही तरकीब सूझी है कि जब कभी ये आए तो मै उसे कम से कम दाम लगाकर चीज़े दे दूँ। मैं यह चाहता हूँ कि उसका भ्रम बना रहे और उसे लगे कि वह किसी की मोहताज नहीं है। मैं इस तरह भगवान के बन्दों की पूजा कर लेता हूँ। थोड़ा रूककर दुकानदार बोला – यह औरत हफ्ते में एक बार आती है। भगवान गवाह है जिस दिन यह आ जाती है उस दिन मेरी बिक्री बढ़ जाती है और उस दिन परमात्मा मुझ पर मेहरबान हो जाता है।

ग्राहक की आंखों में आंसू आ गए। उसने आगे बढकर दुकानदार को गले लगा लिया और बिना किसी शिकायत के अपना सौदा खरीदकर खुशी खुशी चला गया।

कहानी का मर्म यह है कि…. खुशी अगर बांटना चाहते हो तो तरीके भी मिल जाते है। बस एक कोशिश कीजिये और अपने आसपास ऐसे बेसहारा, ज़रूरतमंदों को ढूंढिये और उनकी मदद कीजिए।
🙏

शक्ति संकलन संकल्प 

1. अपने आपको छोटा और बेचारा नहीं मानें। आप ईश्वर की अनमोल कृति हैं और उस सर्व शक्तिमान ईश्वर ने एक निश्चित उद्देश्य के लिये आपको यह सुन्दर जीवन दिया है और उस निश्चित लक्ष्य, उद्देश्य को आप ही पूरा करेंगे यह विश्वास सदैव बनाए रखें।

2. दूसरों की आलोचना से आपकी स्वयं की शक्ति का ह्रास होता है, दूसरों की कमियों की व्याख्या में अपना समय व्यर्थ न गंवाएं अन्यथा आप स्वयं नकारात्मक भाव पकड़ने लग जाएंगे।

3. जीवन में जिन कार्यों और परिस्थितियों पर आपका वश नहीं है, उनके प्रति स्वयं को सकारात्मक रखें। अच्छा ही होगा – अच्छा ही होगा – अच्छा ही होगा, ऐसा विचार करने से नये-नये मार्ग अवश्य दृष्टिगत होंगे।

4. अपनी शक्ति के चिन्तन में स्वयं को लगाएं, ध्यान के साधन द्वारा जैसा आप स्वयं चाहते हैं वैसा शक्ति सम्पन्न बनने का मानसिक संकल्प दोहराते रहें।

5. अतीत की सोच और भविष्य की सोच दोनों से दूरी बना लें, क्योंकि आपको वर्तमान में कर्म करना है। ‘ वर्तमान के ही कर्म का चिन्तन करें’।

6. अतीत के दुःख औरभविष्य के भय को सकारात्मक सोच दें। उन्हें कष्ट का कारण न मानें क्योंकि अतीत और भविष्य दोनों ही प्रश्नवाचक हैं।

7. स्वयं को समयबद्ध तरीके से कार्य में लगाएं, समय-समय पर अपना स्वयं का आंकलन करते रहें और उसी के अनुसार अपनी कार्यशैली, कृतित्व (creation) आदि मेंपरिवर्तन करते हैं। यदि कोई नया आदर्श स्थापित करना है तो उसे भी स्थापित करते रहें।

8. मनुष्य के पास समय कम है और कामनाएं अनन्त हैं। ऐसे में अपने मन और मस्तिष्क पर पूर्ण नियन्त्रण करते हुए उसे अपने संकल्प की ओर ही दिशा देते रहें और अपने संकल्प का आंकलन करते रहें।

9. हर सुन्दर और मूल्यवान वस्तु हमारी हो, हर ज्ञान,सुन्दरता, बल, तप, यश में हम ही श्रेष्ठ हों। यह दौड़ छोड़ दें। बल्कि यह आंकलन करें कि हमारे अन्दर भी अनन्त गुण हैं और इन गुणों के द्वारा ही हम सर्वश्रेष्ठहोंगे।अपने लक्ष्यों को बिल्कुल साफ और स्पष्ट रखें। जैसेही आप अपने लक्ष्य से हटे तो आपका जीवन स्वयं हार मान लेगा। इस कारण अपने लक्ष्य निश्चित, स्पष्ट रखें।

10. आपका सत् संकल्प, आपके भीतर का नम्रता का भाव ही आपकी शक्ति का सबसे बड़ा स्रोत है और इसी का विकास करना है और यहीं सेआपके शक्ति सम्पन्न होने का अध्याय शुरू हो सकता है।

🙏

भाई-भाई “विपत्ति” बांटने के लिए होते है, न कि “सम्पति” का बंटवारा करने के लिए

राम कथा का सार….

भाई-भाई “विपत्ति” बांटने के लिए होते है …
न कि “सम्पति” का बंटवारा करने के लिए …

राम लखन भरत भाईयो का बचपन का एक प्रसंग है …
जब ये लोग गेंद खेलते थे । तो लक्ष्मण राम की साइड उनके पीछे होता था , और सामने वाले पाले में भरत शत्रुघ्न होते थे । तब लक्ष्मण हमेशा भरत को बोलते राम भैया सबसे ज्यादा मुझे प्यार करते है तभी वो हर बार अपने पाले में अपने साथ मुझे रखते है लेकिन भरत कहते नहीं राम भैया सबसे ज्यादा मुझे प्यार करते है तभी वो मुझे सामने वाले पाले में रखते है ताकि हर पल उनकी नजरें मेरे ऊपर रहे, वो मुझे हर पल देख पाए , क्योंकि साथ वाले को देखने के लिए तो उनको मुड़ना पड़ेगा ।

फिर जब भरत गेंद को राम की तरफ उछालते तो राम जानबूझ कर गेंद को छोड़ देते और हार जाते , फिर पूरे नगर में उपहार और मिठाईयां बांटते खुशी मनाते । सब पूछते राम जी आप तो हार गए फिर आप इतने खुश क्यों है, राम बोलते मेरा भरत जीत गया । फिर लोग सोचते जब हारने वाला इतना कुछ बांट रहा है तो जितने वाला भाई तो पता नहीं क्या -क्या देगा …..
लोग भरत जी के पास जाते है । लेकिन ये क्या भरत तो लंबे लंबे आंसू बहाते हुए रो रहे है ।

लोगो ने पूछा भरत जी आप तो जीत गए है फिर आप क्यों रो रहे है ? भरत बोले देखिये मेरी कैसी विडंबना है मैं जब भी अपने प्रभु के सामने होता हूँ तभी जीत जाता हूँ । मैं उनसे जीतना नहीं मैं उनको अपना सब हारना चाहता हूं । मैं खुद को हार कर उनको जीतना चाहता हूं … इसलिए कहते है भक्त का कल्याण भगवान को अपना सब कुछ हारने में है , सब कुछ समर्पण करके ही हम भगवान को पा सकते है ….एक भाई दूसरे भाई को जीता कर खुश है ।
दूसरा भाई अपने भाई से जीत कर दुखी है । इसलिए कहते है खुशी लेने में नही देने में है ….
जिस घर मे भाई -भाई मिल कर रहते है । भाई -भाई एक दूसरे का हक नहीं छीनते उसी घर मे राम का वास है …जहां बड़ो की इज्जत है । बड़ो की आज्ञा का पालन होता है, वही राम है।

जब एक भाई ने दूसरे भाई के साथ हक़ छोड़ा तो रामायण लिखी गयी,
और जब एक भाई ने दूसरे भाई का हक़ मारा तो महाभारत हुई।

इसलिए असली खुशी देने में है छीनने में नहीं । हमें कभी किसी का हक़ नहीं छीनना चाहिए, ना ही झूठ और बेईमानी का सहारा लेना चाहिए । जो भी काम करे उसमे सत्य निष्ठा हो… यही सच्चा जीवन है यही राम कथा का सार है ।

🌹✨ राम राम जी ✨🌹🙏🏻

विभिन्न देवी- देवताओं के लिये गायत्री मन्त्र

” ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् “

1. गणेश :- ॐ एकदन्ताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ।।

2. गणेश :- ॐ तत्पुरुषाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ।।

3. ब्रह्मा :- ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ।।

4. ब्रह्मा :- ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ।।

5. ब्रह्मा:- ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ।।

6. विष्णु:- ॐ नारायणाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि, तन्नो विष्णु प्रचोदयात् ।।

7. रुद्र :- ॐ तत्पुरुषाय विद्महे, महादेवाय धीमहि, तन्नो रुद्र: प्रचोदयात् ।।

8. रुद्र :- ॐ पञ्चवक्त्राय विद्महे, सहस्राक्षाय महादेवाय धीमहि, तन्नो रुद्र प्रचोदयात् ।।

9. दक्षिणामूर्ती :- ॐ दक्षिणामूर्तये विद्महे, ध्यानस्थाय धीमहि, तन्नो धीश: प्रचोदयात् ।।

10. हयग्रीव :- ॐ वागीश्वराय विद्महे, हयग्रीवाय धीमहि, तन्नो हंस: प्रचोदयात् ।।

11. दुर्गा :- ॐ कात्यायन्यै विद्महे, कन्याकुमार्ये च धीमहि, तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ।।

12. दुर्गा :- ॐ महाशूलिन्यै विद्महे, महादुर्गायै धीमहि, तन्नो भगवती प्रचोदयात् ।।

13. दुर्गा :- ॐ गिरिजाय च विद्महे, शिवप्रियाय च धीमहि, तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ।।

14. सरस्वती :- ॐ वाग्देव्यै च विद्महे, कामराजाय धीमहि, तन्नो देवी प्रचोदयात् ।।

15. लक्ष्मी:- ॐ महादेव्यै च विद्महे, विष्णुपत्न्यै च धीमहि, तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात् ।।

16. शक्ति :- ॐ सर्वसंमोहिन्यै विद्महे, विश्वजनन्यै धीमहि, तन्नो शक्ति प्रचोदयात् ।।

17. अन्नपूर्णा :- ॐ भगवत्यै च विद्महे, महेश्वर्यै च धीमहि, तन्नोन्नपूर्णा प्रचोदयात् ।।

18. काली :- ॐ कालिकायै च विद्महे, स्मशानवासिन्यै धीमहि, तन्नो घोरा प्रचोदयात् ।।

19. नन्दिकेश्वरा :- ॐ तत्पुरूषाय विद्महे, नन्दिकेश्वराय धीमहि, तन्नो वृषभ: प्रचोदयात् ।।

20. गरुड़ :- ॐ तत्पुरूषाय विद्महे, सुवर्णपक्षाय धीमहि, तन्नो गरुड: प्रचोदयात् ।।

21. हनुमान :- ॐ आञ्जनेयाय विद्महे, वायुपुत्राय धीमहि, तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् ।।

22. हनुमान :- ॐ वायुपुत्राय विद्महे, रामदूताय धीमहि, तन्नो हनुमत् प्रचोदयात् ।।

23. शण्मुख :- ॐ तत्पुरुषाय विद्महे, महासेनाय धीमहि, तन्नो शण्मुख प्रचोदयात् ।।

24. ऐयप्पन :- ॐ भूतादिपाय विद्महे, महादेवाय धीमहि, तन्नो शास्ता प्रचोदयात् ।।

25. धनवन्त्री :- ॐ अमुद हस्ताय विद्महे, आरोग्य अनुग्रहाय धीमहि, तन्नो धनवन्त्री प्रचोदयात् ।।

26. कृष्ण :- ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि, तन्नो कृष्ण प्रचोदयात् ।।

27. राधा :- ॐ वृषभानुजाय विद्महे, कृष्णप्रियाय धीमहि, तन्नो राधा प्रचोदयात् ।।

28. राम :- ॐ दशरताय विद्महे, सीता वल्लभाय धीमहि, तन्नो रामा: प्रचोदयात् ।।

29. सीता :- ॐ जनकनन्दिंयै विद्महे, भूमिजयै धीमहि, तन्नो सीता प्रचोदयात् ।।

30. तुलसी:- ॐ तुलसीदेव्यै च विद्महे, विष्णुप्रियायै च धीमहि, तन्नो वृन्दा प्रचोदयात् !!
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ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

चिकित्सा

खांसी में
अब जाड़ों के दिन हैं, सर्दी की शिकायत होगी, खांसी व कफ की शिकायत होगी l दायें नथुने से श्वास लिया और रोका l एक से सवा मिनट श्वास रोका और मन में जप करो “नासे रोग हरे सब पीरा, जपत निरंतर हनुमंत बीरा” l फिर बायें नथुने से श्वास निकाल दो l जिसको सर्दी है तो ४ से ५ बार करें, ज्यादा नहीं l लेकिन सूखी खांसी हो तो वे लोग ये प्राणायाम ना करें l 😩 सूखी खांसी में घी के मालपुए बनाकर दूध में डूबा दो l २ घंटे तक डूब जाएँ, फिर वो मालपुए खा लो l सूखी खांसी में आराम होगा l

ह्रदय रोग की सरल व अनुभूत चिकित्सा
१ कटोरी लौकी के रस में पुदीने व तुलसी के ७-८ पत्तों का रस, २-४ काली मिर्च का चूर्ण व १ चुटकी सेंधा नमक मिलाकर पियें l इससे ह्रदय को बल मिलता है और पेट की गड़बडियां भी दूर हो जाती हैं l
नींबू का रस, लहसुन का रस, अदरक का रस व सेवफल का सिरका समभाग मिलाकर धीमी आंच पर उबालें l एक चौथाई शेष रहने पर नीचे उतारकर ठंडा कर लें l तीन गुना शहद मिलाकर कांच की शीशी में भरकर रखें l प्रतिदिन सुबह खाली पेट २ चम्मच लें l इससे Blockage खुलने में मदद मिलेगी l
अगर सेवफल का सिरका न मिले तो पान का रस, लहसुन का रस, अदरक का रस व शहद प्रत्येक १-१ चम्मच मिलाकर लें l इससे भी रक्तवाहिनियाँ साफ़ हो जाती हैं l लहसुन गरम पड़ता हो तो रात को खट्टी छाछ में भिगोकर रखें l
उड़द का आटा, मक्खन, अरंडी का तेल व शुद्ध गूगल समभाग मिलाके रगड़कर मिश्रण बना लें l सुबह स्नान के बाद ह्रदय स्थान पर इसका लेप करें l २ घंटे बाद गरम पानी से धो दें l इससे रक्तवाहिनियों में रक्त का संचारण सुचारू रूप से होने लगता है l
१ ग्राम दालचीनी चूर्ण एक कटोरी दूध में उबालकर पियें l दालचीनी गरम पड़ती हो तो १ ग्राम यष्टिमधु चूर्ण मिला दें l इससे कोलेस्ट्रोल के अतिरिक्त मात्रा घट जाती है l
भोजन में लहसुन, किशमिश, पुदीना व हरा धनिया की चटनी लें l आवलें का चूर्ण, रस, चटनी, मुरब्बा आदि किसी भी रूप में नियमित सेवन करें l
औषधि कल्पों में स्वर्ण मालती , जवाहरमोहरा पिष्टि, साबरशृंग भस्म, अर्जुन छाल का चूर्ण, दशमूल क्वाथ आदि हृदय रोगों का निर्मूलन करने में सक्षम है l

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Why do we break a “coconut” when we go to a temple?

A wonderful message..

It’s the process of breaking the coconut which we have to imbibe within ourselves.

You first tear away the husk from the coconut.
That husk is your WISHES/ DESIRES. You need to leave it.

Then comes the hard shell.. that’s the EGO. You need to break that.

What flows out is water.. which is all things which are NEGATIVE inside you flows out.

Left behind is the coconut pure white.. that is the “SOUL”.

So you connect with the almighty in your purest form which is the “SOUL”.

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गुरू क्या है

स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी कर्क रोग से पीड़ित थे। उन्हें खाँसी बहुत आती थी और वे खाना भी नहीं खा सकते थे। स्वामी विवेकानंद जी अपने गुरु जी की हालत से बहुत चिंतित थे।

एक दिन की बात है स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने विवेकानंद जी को अपने पास बुलाया और बोले –

“नरेंद्र, तुझे वो दिन याद है, जब तू अपने घर से मेरे पास मंदिर में आता था ? तूने दो-दो दिनों से कुछ नहीं खाया होता था। परंतु अपनी माँ से झूठ कह देता था कि तूने अपने मित्र के घर खा लिया है, ताकि तेरी गरीब माँ थोड़े बहुत भोजन को तेरे छोटे भाई को परोस दें। हैं न ?”

नरेंद्र ने रोते-रोते हाँ में सर हिला दिया।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस फिर बोले – “यहां मेरे पास मंदिर आता, तो अपने चेहरे पर ख़ुशी का मुखौटा पहन लेता। परन्तु मैं भी झट जान जाता कि तेरा शरीर क्षुधाग्रस्त है। और फिर तुझे अपने हाथों से लड्डू, पेड़े, माखन-मिश्री खिलाता था। है ना ?”

नरेंद्र ने सुबकते हुए गर्दन हिलाई।

अब रामकृष्ण परमहंस फिर मुस्कुराए और प्रश्न पूछा – “कैसे जान लेता था मैं यह बात ? कभी सोचा है तूने ?”

नरेंद्र सिर उठाकर परमहंस को देखने लगे।

“बता न, मैं तेरी आंतरिक स्थिति को कैसे जान लेता था ?”

नरेंद्र – “क्योंकि आप अंतर्यामी हैं गुरुदेव”।

राम कृष्ण परमहंस – “अंतर्यामी, अंतर्यामी किसे कहते हैं ?”

नरेंद्र – “जो सबके अंदर की जाने” !!

परमहंस – “कोई अंदर की कब जान सकता है ?”

नरेंद्र – “जब वह स्वयं अंदर में ही विराजमान हो।”

परमहंस – “अर्थात मैं तेरे अंदर भी बैठा हूँ। हूँ ना ?”

नरेंद्र – “जी बिल्कुल। आप मेरे हृदय में समाये हुए हैं।”

परमहंस – “तेरे भीतर में समाकर मैं हर बात जान लेता हूँ। हर दुःख दर्द पहचान लेता हूँ। तेरी भूख का अहसास कर लेता हूँ, तो क्या तेरी तृप्ति मुझ तक नहीं पहुँचती होगी ?”

नरेंद्र – “तृप्ति ?”

परमहंस – “हाँ तृप्ति! जब तू भोजन करता है और तुझे तृप्ति होती है, क्या वो मुझे तृप्त नहीं करती होगी ? अरे पगले, गुरु अंतर्यामी है, अंतर्जगत का स्वामी है। वह अपने शिष्यों के भीतर बैठा सबकुछ भोगता है। मैं एक नहीं हज़ारों मुखों से खाता हूँ।”
याद रखना, “गुरु कोई बाहर स्थित एक देह भर नहीं है। वह तुम्हारे रोम-रोम का वासी है। तुम्हें पूरी तरह आत्मसात कर चुका है। अलगाव कहीं है ही नहीं। अगर कल को मेरी यह देह नहीं रही, तब भी जीऊंगा, तेरे माध्यम से जीऊंगा। मैं तुझमें रहूँगा।”

मित्रजनों,
गुरु अपने शिष्य के प्रति कितने भावुक, कितने दयावान होते हैं। अपने शिष्य की हर उलझन को वे भली भांति जानते हैं।

शिष्य इन सब बातों से बे-खबर होता है। वह अपनी उलझनें गुरु के आगे गाता रहता है।
और भूल जाता है कि गुरु से कोई बात छिप सकती है क्या ? गुरु आखिर भगवान् का स्वरूप ही तो है..!!

ओउम

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सातवां घड़ा

गाँव में एक नाई अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहता था। नाई ईमानदार था, अपनी कमाई से संतुष्ट था। उसे किसी तरह का लालच नहीं था। नाई की पत्नी भी अपनी पति की कमाई हुई आय से बड़ी कुशलता से अपनी गृहस्थी चलाती थी। कुल मिलाकर उनकी जिंदगी बड़े आराम से हंसी-खुशी से गुजर रही थी।

नाई अपने काम में बहुत निपुण था। एक दिन वहाँ के राजा ने नाई को अपने पास बुलवाया और रोज उसे महल में आकर हजामत बनाने को कहा।

नाई ने भी बड़ी प्रसन्नता से राजा का प्रस्ताव मान लिया। नाई को रोज राजा की हजामत बनाने के लिए एक स्वर्ण मुद्रा मिलती थी।

इतना सारा पैसा पाकर नाई की पत्नी भी बड़ी खुश हुई। अब उसकी जिन्दगी बड़े आराम से कटने लगी। घर पर किसी चीज की कमी नहीं रही और हर महीने अच्छी रकम की बचत भी होने लगी। नाई, उसकी पत्नी और बच्चे सभी खुश रहने लगे।

एक दिन शाम को जब नाई अपना काम निपटा कर महल से अपने घर वापस जा रहा था, तो रास्ते में उसे एक आवाज सुनाई दी।

आवाज एक यक्ष की थी। यक्ष ने नाई से कहा– ‘‘मैंने तुम्हारी ईमानदारी के बड़े चर्चे सुने हैं, मैं तुम्हारी ईमानदारी से बहुत खुश हूँ और तुम्हें सोने की मुद्राओं से भरे सात घड़े देना चाहता हूँ। क्या तुम मेरे दिये हुए घड़े लोगे ?”

नाई पहले तो थोड़ा डरा, पर दूसरे ही पल उसके मन में लालच आ गया और उसने यक्ष के दिये हुए घड़े लेने का निश्चय कर लिया।

नाई का उत्तर सुनकर उस आवाज ने फिर नाई से कहा– ‘‘ठीक है सातों घड़े तुम्हारे घर पहुँच जाएँगे।’’

नाई जब उस दिन घर पहुँचा, वाकई उसके कमरे में सात घड़े रखे हुए थे। नाई ने तुरन्त अपनी पत्नी को सारी बातें बताईं और दोनों ने घड़े खोलकर देखना शुरू किया। उसने देखा कि छः घड़े तो पूरे भरे हुए थे, पर सातवाँ घड़ा आधा खाली था।

नाई ने पत्नी से कहा— ‘‘कोई बात नहीं, हर महीने जो हमारी बचत होती है, वह हम इस घड़े में डाल दिया करेंगे। जल्दी ही यह घड़ा भी भर जायेगा। और इन सातों घड़ों के सहारे हमारा बुढ़ापा आराम से कट जायेगा।

अगले ही दिन से नाई ने अपनी दिन भर की बचत को उस सातवें घड़े में डालना शुरू कर दिया। पर सातवें घड़े की भूख इतनी ज्यादा थी कि वह कभी भी भरने का नाम ही नहीं लेता था।

धीरे-धीरे नाई कंजूस होता गया और घड़े में ज्यादा पैसे डालने लगा, क्योंकि उसे जल्दी से अपना सातवाँ घड़ा भरना था।

नाई की कंजूसी के कारण अब घर में कमी आनी शुरू हो गयी, क्योंकि नाई अब पत्नी को कम पैसे देता था। पत्नी ने नाई को समझाने की कोशिश की, पर नाई को बस एक ही धुन सवार थी— “सातवां घड़ा भरने की।”

अब नाई के घर में पहले जैसा वातावरण नहीं था। उसकी पत्नी कंजूसी से तंग आकर बात-बात पर अपने पति से लड़ने लगी। घर के झगड़ों से नाई परेशान और चिड़चिड़ा हो गया।

एक दिन राजा ने नाई से उसकी परेशानी का कारण पूछा। नाई ने भी राजा से कह दिया अब मँहगाई के कारण उसका खर्च बढ़ गया है। नाई की बात सुनकर राजा ने उसका मेहनताना बढ़ा दिया, पर राजा ने देखा कि पैसे बढ़ने से भी नाई को खुशी नहीं हुई, वह अब भी परेशान और चिड़चिड़ा ही रहता था।

एक दिन राजा ने नाई से पूछ ही लिया कि कहीं उसे यक्ष ने सात घड़े तो नहीं दे दिये हैं ? नाई ने राजा को सातवें घड़े के बारे में सच-सच बता दिया।

तब राजा ने नाई से कहा कि “सातों घड़े यक्ष को वापस कर दो, क्योंकि सातवां घड़ा साक्षात लोभ है, उसकी भूख कभी नहीं मिटती।”

नाई को सारी बात समझ में आ गयी। नाई ने उसी दिन घर लौटकर सातों घड़े यक्ष को वापस कर दिये।

घड़ों के वापस जाने के बाद नाई का जीवन फिर से खुशियों से भर गया था।

धर्म आचरण

एक दिन एक बहू ने गलती से यज्ञवेदी में थूक दिया !!!

सफाई कर रही थी, मुंह में सुपारी थी….. पीक आया तो वेदी में थूक दिया पर उसे यह देखकरआश्चर्य हुआ कि उतना थूक तत्काल स्वर्ण में बदल गया है।

अब तो वह प्रतिदिन जान बूझकर वेदी में थूकने लगी। और उसके पास धीरे धीरे स्वर्ण बढ़ने लगा।
महिलाओं में बात तेजी से फैलती है। कई और महिलाएं भी अपने अपने घर में बनी यज्ञवेदी में थूक-थूक कर सोना उत्पादन करने लगी।

धीरे धीरे पूरे गांव में यह सामान्य चलन हो गया,
सिवाय एक महिला के…

उस महिला को भी अनेक दूसरी महिलाओं ने उकसाया….. समझाया…..
“अरी….. तू क्यों नहीँ थूकती ?”

“महिला बोली….. जी बात यह है कि मै अपने पति की अनुमति बिना यह कार्य हरगिज नहीँ करूंगी और जहाँ तक मुझे ज्ञात है वे इसकी अनुमति कभी भी नहीँ देंगे।”

किन्तु ग्रामीण महिलाओं ने ऐसा वातावरण बनाया….. कि आखिर उसने एक रात डरते डरते अपने ‎पति‬ को पूछ ही लिया।

“खबरदार जो ऐसा किया तो….. !! यज्ञवेदी क्या थूकने की चीज है ?”

पति की गरजदार चेतावनी के आगे बेबस वह महिला चुप हो गई…. पर जैसा वातावरण था और जो चर्चाएं होती थी, उनसे वह साध्वी स्त्री बहुत व्यथित रहने लगी।

खास कर उसके सूने गले को लक्ष्य कर अन्य स्त्रियां अपने नए नए कण्ठ-हार दिखाती तो वह अन्तर्द्वन्द में घुलने लगी।

पति की व्यस्तता और स्त्रियों के उलाहने उसे धर्मसंकट में डाल देते। वह सोचती थी कि –
“यह शायद मेरा दुर्भाग्य है….. अथवा कोई पूर्वजन्म का पाप….. कि एक सती स्त्री होते हुए भी मुझे एक रत्ती सोने के लिए भी तरसना पड़ता है।”

“शायद यह मेरे पति का कोई गलत निर्णय है।”
“ओह !!! इस धर्माचरण ने मुझे दिया ही क्या है ?”
“जिस नियम के पालन से ‎दिल‬ कष्ट पाता रहे। उसका पालन क्यों करूं ?”

…और हुआ यह कि वह बीमार रहने लगी। ‎

पतिदेव‬ इस रोग को ताड़ गए। उन्होंने एक दिन ब्रह्म मुहूर्त में ही सपरिवार ग्राम त्यागने का निश्चय किया।

गाड़ी में सारा सामान डालकर वे रवाना हो गए। सूर्योदय से पहले पहले ही वे बहुत दूर निकल जाना चाहते थे।

किन्तु…..
अरे !!! यह क्या….. ???

ज्यों ही वे गांव की कांकड़ (सीमा) से बाहर निकले।
पीछे भयानक विस्फोट हुआ।
पूरा गांव धू धू कर जल रहा था।

सज्जन दम्पत्ति अवाक् रह गए
और उस स्त्री को अपने पति का महत्त्व समझ आ गया।

वास्तव में….. इतने दिन गांव बचा रहा, तो केवल इस कारण….. कि धर्म आचरण करने वाला उसका परिवार, गांव की परिधि में था।

धर्माचरण करते रहे…..
कुछ पाने के लालच में इंसान बहुत कुछ खो बैठता है……इसलिए लालच से बचें…..

न जाने किसके भाग्य से आपका जीवन सुखमय व सुरक्षित है

परहित धर्म का भी पालन करते रहिए
क्योंकि…..व्यक्तिगत स्वार्थ पतन का कारण बनता है

ज़िंदगी का एक सबक

दिल्ली से गोवा की उड़ान में एक सज्जन मिले।
साथ में उनकी पत्नि भी थीं।
सज्जन की उम्र करीब 80 साल रही होगी। मैंने पूछा नहीं लेकिन उनकी पत्नी भिी 75 पार ही रही होंगी।

उम्र के सहज प्रभाव को छोड़ दें, तो दोनों करीब करीब फिट थे।

पत्नी खिड़की की ओर बैठी थीं, सज्जन बीच में और मै सबसे किनारे वाली सीट पर था।

उड़ान भरने के साथ ही पत्नी ने कुछ खाने का सामान निकाला और पति की ओर किया। पति कांपते हाथों से धीरे-धीरे खाने लगे।

फिर फ्लाइट में जब भोजन सर्व होना शुरू हुआ तो उन लोगों ने राजमा-चावल का ऑर्डर किया।

दोनों बहुत आराम से राजमा-चावल खाते रहे। मैंने पता नहीं क्यों पास्ता ऑर्डर कर दिया था। खैर, मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है कि मैं जो ऑर्डर करता हूं, मुझे लगता है कि सामने वाले ने मुझसे बेहतर ऑर्डर किया है।
अब बारी थी कोल्ड ड्रिंक की।

पीने में मैंने कोक का ऑर्डर दिया था।

अपने कैन के ढक्कन को मैंने खोला और धीरे-धीरे पीने लगा।

उन सज्जन ने कोई जूस लिया था।

खाना खाने के बाद जब उन्होंने जूस की बोतल के ढक्कन को खोलना शुरू किया तो ढक्कन खुले ही नहीं। सज्जन कांपते हाथों से उसे खोलने की कोशिश कर रहे थे।
मैं लगातार उनकी ओर देख रहा था। मुझे लगा कि ढक्कन खोलने में उन्हें मुश्किल आ रही है तो मैंने शिष्टाचार हेतु कहा कि लाइए…
” मैं खोल देता हूं।” सज्जन ने मेरी ओर देखा, फिर मुस्कुराते हुए कहने लगे कि…

“बेटा ढक्कन तो मुझे ही खोलना होगा।”

मैंने कुछ पूछा नहीं,
लेकिन
सवाल भरी निगाहों से उनकी ओर देखा।

यह देख, सज्जन ने आगे कहा

बेटाजी, आज तो आप खोल देंगे।

लेकिन अगली बार..?
कौन खोलेगा.?

इसलिए मुझे खुद खोलना आना चाहिए।

पत्नी भी पति की ओर देख रही थीं।

जूस की बोतल का ढक्कन उनसे अभी भी नहीं खुला था।

पर पति लगे रहे और बहुत बार कोशिश कर के उन्होंने ढक्कन खोल ही दिया।

दोनों आराम से जूस पी रहे थे।

मुझे दिल्ली से गोवा की इस उड़ान में
ज़िंदगी का एक सबक मिला।
सज्जन ने मुझे बताया कि उन्होंने..
ये नियम बना रखा है,

कि अपना हर काम वो खुद करेंगे।
घर में बच्चे हैं,
भरा पूरा परिवार है।

सब साथ ही रहते हैं। पर अपनी रोज़ की ज़रूरत के लिये
वे सिर्फ पत्नी की मदद ही लेते हैं, बाकी किसी की नहीं।

वो दोनों एक दूसरे की ज़रूरतों को समझते हैं
सज्जन ने मुझसे कहा कि जितना संभव हो, अपना काम खुद करना चाहिए।

एक बार अगर काम करना छोड़ दूंगा, दूसरों पर निर्भर हुआ तो समझो बेटा कि बिस्तर पर ही पड़ जाऊंगा।

फिर मन हमेशा यही कहेगा कि ये काम इससे करा लूं,

वो काम उससे।

फिर तो चलने के लिए भी दूसरों का सहारा लेना पड़ेगा।

अभी चलने में पांव कांपते हैं, खाने में भी हाथ कांपते हैं, पर जब तक आत्मनिर्भर रह सको, रहना चाहिए।

हम गोवा जा रहे हैं,
दो दिन वहीं रहेंगे।

हम महीने में
एक दो बार ऐसे ही घूमने निकल जाते हैं।

बेटे-बहू कहते हैं कि अकेले मुश्किल होगी,

पर उन्हें कौन समझाए
कि
मुश्किल तो तब होगी
जब हम घूमना-फिरना बंद करके खुद को घर में कैद कर लेंगे।
पूरी ज़िंदगी खूब काम किया। अब सब बेटों को दे कर अपने लिए महीने के पैसे तय कर रखे हैं।

और हम दोनों उसी में आराम से घूमते हैं।

जहां जाना होता है एजेंट टिकट बुक करा देते हैं। घर पर टैक्सी आ जाती है। वापिसी में एयरपोर्ट पर भी टैक्सी ही आ जाती है।

होटल में कोई तकलीफ होनी नहीं है।

स्वास्थ्य, उम्रनुसार, एकदम ठीक है।

कभी-कभी जूस की बोतल ही नहीं खुलती।

पर थोड़ा दम लगाओ,

तो वो भी खुल ही जाती है।

मेरी तो आखेँ ही
खुल की खुली रह गई।

मैंने तय किया था
कि इस बार की
उड़ान में लैपटॉप पर एक पूरी फिल्म देख लूंगा।
पर यहां तो मैंने जीवन की फिल्म ही देख ली।

एक वो फिल्म जिसमें जीवन जीने का संदेश छिपा था।

“जब तक हो सके,
आत्मनिर्भर रहो।”
अपना काम,
जहाँ तक संभव हो,
स्वयम् ही करो।