॥दान की महिमा॥

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देने के लिए दान, लेने के लिए ज्ञान व त्यागने के लिए अभिमान श्रेष्ठ हैं!

एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल दिए, इस अंधविश्वास के कारण कि भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। थैली देखकर दूसरों को भी लगता है कि इसे पहले से ही किसी ने कुछ दे रखा है।

पूर्णिमा का दिन था। भिखारी सोच रहा था कि आज अगर ईश्वर की कृपा होगी तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी। अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती हुई दिखाई दी।
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भिखारी खुश हो गया। उसने सोचा कि राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से आज तो उसकी सारी दरिद्रता दूर हो जाएंगी और उसका जीवन संवर जाएगा।

जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई। जैसे ही राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रूकवाया और उतर कर उसके निकट पहुंचे।

भिखारी की तो मानो सांसें ही रूकने लगीं, लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उल्टे अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और उससे भीख की याचना करने लगा। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। अभी वह सोच ही रहा था कि राजा ने पुनः याचना की।

भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला मगर हमेशा दूसरों से लेने वाला मन देने को राजी नहीं हो रहा था।

जैसे-तैसे करके उसने दो दाने जौ के निकाले और राजा की चादर में डाल दिए। उस दिन हालांकि भिखारी को अधिक भीख मिली, लेकिन अपनी झोली में से दो दाने जौ के देने का मलाल उसे सारा दिन रहा। शाम को जब उसने अपनी झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही।

जो जौ वह अपने साथ झोली में ले गया था, उसके दो दाने सोने के हो गए थे। अब उसे समझ में आया कि यह दान की महिमा के कारण ही हुआ।

वह पछताया कि – काश.! उस समय उसने राजा को और अधिक जौ दिए होते लेकिन दे नहीं सका, क्योंकि उसकी देने की आदत जो नहीं थी।

दान हमेशा सुपात्र को ही करे! सुपात्रता की पहचान अपने विवेक से करनी चाहिये।

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शिक्षा-
*1. देने से कोई चीज कभी घटती नहीं।*
*2. लेने वाले से देने वाला बड़ा होता है।*
*3. अंधेरे में छाया, बुढ़ापे में काया और अन्त समय में माया किसी का साथ नहीं देती। परन्तु पुण्य कर्म इहलोक एवं परलोक सब जगह साथ देते है ! *

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“कुंभ स्नान”

कुंभ स्नान चल रहा था। राम घाट पर भारी भीड़ लग रही थी।

शिव पार्वती आकाश से गुजरे। पार्वती ने इतनी भीड़ का कारण पूछा – आशुतोष ने कहा – कुम्भ पर्व पर स्नान करने वाले स्वर्ग जाते है। उसी लाभ के लिए यह स्नानार्थियों की भीड़ जमा है।

पार्वती का कौतूहल तो शान्त हो गया पर नया संदेह उपज पड़ा, इतने लोग स्वर्ग कहां पहुंच पाते हैं ?
भगवती ने अपना नया सन्देह प्रकट किया और समाधान चाहा।

भगवान शिव बोले – शरीर को गीला करना एक बात है और मन की मलीनता धोने वाला स्नान जरूरी है। मन को धोने वाले ही स्वर्ग जाते हैं। वैसे लोग जो होंगे उन्हीं को स्वर्ग मिलेगा।

सन्देह घटा नहीं, बढ़ गया।

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पार्वती बोलीं – यह कैसे पता चले कि किसने शरीर धोया किसने मन संजोया।

यह कार्य से जाना जाता है। शिवजी ने इस उत्तर से भी समाधान न होते देखकर प्रत्यक्ष उदाहरण से लक्ष्य समझाने का प्रयत्न किया।

मार्ग में शिव कुरूप कोढ़ी बनकर पढ़ रहे। पार्वती को और भी सुन्दर सजा दिया। दोनों बैठे थे। स्नानार्थियों की भीड़ उन्हें देखने के लिए रुकती। अनमेल स्थिति के बारे में पूछताछ करती।

पार्वती जी रटाया हुआ विवरण सुनाती रहतीं। यह कोढ़ी मेरा पति है। गंगा स्नान की इच्छा से आए हैं। गरीबी के कारण इन्हें कंधे पर रखकर लाई हूँ। बहुत थक जाने के कारण थोड़े विराम के लिए हम लोग यहाँ बैठे हैं।

अधिकाँश दर्शकों की नीयत डिगती दिखती। वे सुन्दरी को प्रलोभन देते और पति को छोड़कर अपने साथ चलने की बात कहते।

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पार्वती लज्जा से गढ़ गई। भला ऐसे भी लोग स्नान को आते हैं क्या? निराशा देखते ही बनती थी।

संध्या हो चली। एक उदारचेता आए। विवरण सुना तो आँखों में आँसू भर लाए। सहायता का प्रस्ताव किया और कोढ़ी को कंधे पर लादकर तट तक पहुँचाया। जो सत्तू साथ में था उसमें से उन दोनों को भी खिलाया।

साथ ही सुन्दरी को बार-बार नमन करते हुए कहा – आप जैसी देवियां ही इस धरती की स्तम्भ हैं। धन्य हैं आप जो इस प्रकार अपना धर्म निभा रही हैं।

प्रयोजन पूरा हुआ। शिव पार्वती उठे और कैलाश की ओर चले गए। रास्ते में कहा – पार्वती इतनों में एक ही व्यक्ति ऐसा था, जिसने मन धोया और स्वर्ग का रास्ता बनाया। स्नान का महात्म्य तो सही है पर उसके साथ मन भी धोने की शर्त लगी है।

पार्वती तो समझ गई कि स्नान महात्म्य सही होते हुए भी… क्यों लोग उसके पुण्य फल से वंचित रहते हैं?
जय शिव शक्ति
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दो पैसे का दान

एक बार श्री कृष्ण और अर्जुन भ्रमण पर निकले तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राहमण को भिक्षा मागते देखा….
अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राहमण को स्वर्ण मुद्राओ से भरी एक पोटली दे दी।
जिसे पाकर ब्राहमण प्रसन्नता पूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुन्दर स्वप्न देखता हुआ घर लौट चला।
किन्तु उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था, राह में एक लुटेरे ने उससे वो पोटली छीन ली।
ब्राहमण दुखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया।अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राहमण पर पड़ी तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा।
ब्राहमण ने सारा विवरण अर्जुन को बता दिया, ब्राहमण की व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ गयी अर्जुन ने विचार किया और इस बार उन्होंने ब्राहमण को मूल्यवान एक माणिक दिया।
ब्राहमण उसे लेकर घर पंहुचा उसके घर में एक पुराना घड़ा था जो बहुत समय से प्रयोग नहीं किया गया था,ब्राह्मण ने चोरी होने के भय से माणिक उस घड़े में छुपा दिया।
किन्तु उसका दुर्भाग्य, दिन भर का थका मांदा होने के कारण उसे नींद आ गयी… इस बीच
ब्राहमण की स्त्री नदी में जल लेने चली गयी किन्तु मार्ग में
ही उसका घड़ा टूट गया, उसने सोंचा, घर में जो पुराना घड़ा पड़ा है उसे ले आती हूँ, ऐसा विचार कर वह घर लौटी और उस पुराने घड़े को ले कर
चली गई और जैसे ही उसने घड़े
को नदी में डुबोया वह माणिक भी जल की धारा के साथ बह गया।
ब्राहमण को जब यह बात पता चली तो अपने भाग्य को कोसता हुआ वह फिर भिक्षावृत्ति में लग गया।
अर्जुन और श्री कृष्ण ने जब फिर उसे इस दरिद्र अवस्था में देखा तो जाकर उसका कारण पूंछा।
सारा वृतांत सुनकर अर्जुन को बड़ा दुःख हुआ और मन ही मन सोचने लगे इस अभागे ब्राहमण के जीवन में कभी सुख नहीं आ सकता।
अब यहाँ से प्रभु की लीला प्रारंभ हुई।उन्होंने उस ब्राहमण को दो पैसे दान में दिए।
तब अर्जुन ने उनसे पुछा “प्रभु
मेरी दी मुद्राए और माणिक
भी इस अभागे की दरिद्रता नहीं मिटा सके तो इन दो पैसो से

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इसका क्या होगा” ?
यह सुनकर प्रभु बस मुस्कुरा भर दिए और अर्जुन से उस
ब्राहमण के पीछे जाने को कहा।
रास्ते में ब्राहमण सोचता हुआ जा रहा था कि “दो पैसो से तो एक व्यक्ति के लिए भी भोजन नहीं आएगा प्रभु ने उसे इतना तुच्छ दान क्यों दिया ? प्रभु की यह कैसी लीला
है “?
ऐसा विचार करता हुआ वह
चला जा रहा था उसकी दृष्टि एक मछुवारे पर पड़ी, उसने देखा कि मछुवारे के जाल में एक
मछली फँसी है, और वह छूटने के लिए तड़प रही है ।
ब्राहमण को उस मछली पर दया आ गयी। उसने सोचा”इन दो पैसो से पेट की आग तो बुझेगी नहीं। क्यों? न इस मछली के प्राण ही बचा लिए जाये”।
यह सोचकर उसने दो पैसो में उस मछली का सौदा कर लिया और मछली को अपने कमंडल में डाल लिया। कमंडल में जल भरा और मछली को नदी में छोड़ने चल पड़ा।
तभी मछली के मुख से कुछ निकला।उस निर्धन ब्राह्मण ने देखा ,वह वही माणिक था जो उसने घड़े में छुपाया था।
ब्राहमण प्रसन्नता के मारे चिल्लाने लगा “मिल गया, मिल गया ”..!!!
तभी भाग्यवश वह लुटेरा भी वहाँ से गुजर रहा था जिसने ब्राहमण की मुद्राये लूटी थी।
उसने ब्राह्मण को चिल्लाते हुए सुना “ मिल गया मिल गया ” लुटेरा भयभीत हो गया। उसने सोंचा कि ब्राहमण उसे पहचान गया है और इसीलिए चिल्ला रहा है, अब जाकर राजदरबार में उसकी शिकायत करेगा।
इससे डरकर वह ब्राहमण से रोते हुए क्षमा मांगने लगा। और उससे लूटी हुई सारी मुद्राये भी उसे वापस कर दी।
यह देख अर्जुन प्रभु के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके।
अर्जुन बोले,प्रभु यह कैसी लीला है? जो कार्य थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक नहीं कर सका वह आपके दो पैसो ने कर दिखाया।
श्री कृष्णा ने कहा “अर्जुन यह अपनी सोंच का अंतर है, जब तुमने उस निर्धन को थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक दिया तब उसने मात्र अपने सुख के विषय में सोचा। किन्तु जब मैनें उसको दो पैसे दिए। तब उसने दूसरे के दुःख के विषय में सोचा। इसलिए हे अर्जुन-सत्य तो यह है कि, जब आप दूसरो के दुःख के विषय में सोंचते है, तब आप दूसरे का भला कर रहे होते हैं, आप ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं, और तब ईश्वर आपके साथ होते हैं

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तेजी से वजन घटाना चाहते हैं, तो ट्राय कीजिए लेमन कॉफी

जी हां, लेमन कॉफी भी आपका वजन कम कर सकती है, वह भी तेजी से। अगर आपको यकीन न भी हो, तो एक बार तो आप इसे ट्राय कर ही सकते हैं।दरअसल कॉफी का काम है एनर्जी पैदा करना। और इसके कारण इसमें मौजूद कैफीन, थियोब्रोमाइन, थियोफाइलिन और क्लोरोजेनिक एसिड, जो कि वजन कम करने में मददगार होते हैं, तेजी से आपको वजन कम करने का काम करते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं यह आपके शरीर से विषैले तत्वों को बाहर करके बॉडी को डिटॉक्सीफाई करने में भी सहायक होता है। वैसे तो इसके और भी फायदे हैं लेकिन सबसे बड़ा फायदा वजन कम करने को लेकर ही है। मेटाबॉलिज्म बढ़ाने के साथ ही यह तेजी से बजन कम करेगा।
अगर आप इसे ट्राय करने का सोच रहे हैं, तो ये जरूर जान लीजिए कि इसे लेना कैसे है।

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आपको बस इतना करना है कि एक कप में गर्म पानी लेकर इसमें कॉफी मिक्स करें और उसके बाद इसमें नींबू का रस मिलाएं। बस ये बनकर तैयार है। अब आप इसे सुबह के समय खालीपेट या फिर एक्सरसाइज के पहले या फिर बाद में पिएं। रोजाना इसका सेवन करने से आपका वजन तेजी से घटने लगेगा।लेकिन इसे ट्राय करने से पहले अपने डायटीशियन से जरूर बात करें। अगर नींबू या कॉफी आपको सूट नहीं करती, तो इसका प्रयोग न करना ही आपके लिए बेहतर होगा।

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विश्वास 

✍ एक आदमी जब भी दफ्तर से वापस आता, तो कुत्ते के प्यारे से बच्चें रोज उसके पास आकर उसे घेर लेते थे क्योंकि वो रोज उन्हें बिस्कुट देता था।

कभी 4 कभी 5 कभी 6 बच्चे रोज आते और वो रोज उन्हें पारलें बिस्कुट या ब्रेड खिलता था।

एक रात जब वो दफ़्तर से वापस आया तो बच्चो ने उसे घेर लिया लेकिन उसने देखा कि घर मे बिस्कुट ओर ब्रेड दोनो खत्म हो गए है।

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रात भी काफी हो गई थी, इस वक़्त दुकान का खुला होना भी मुश्किल था, सभी बच्चे बिसकिट्स का इंतज़ार करने लगे।

उसने सोचा कोई बात नही कल खिला दूंगा, ओर ये सोचकर उसने घर का दरवाजा बंद कर लिया, बच्चे अभी भी बाहर उसका इंतजार कर रहे थे। ये देखकर उसका मन विचलित हो गया, तभी उसे याद आया की घर मे मेहमान आये थे, जिनके लिए वो काजू बादाम वाले बिस्किट लाया था।

उसने फटाफट डब्बा खोला तो उसमें सिर्फ 7-8 बिसकिट्स थे,
उसके मन मे खयाल आया कि इतने से तो कुछ नही होगा, एक का भी पेट नही भरेगा, पर सोचा कि चलो सब को एक एक दे दूंगा, तो ये चले जायेंगे।

उन बिस्किट को लेकर जब वो बाहर आया तो देखा कि सारे कुत्ते जा चुके थे, सिर्फ एक कुत्ता उसके इंतज़ार में अभी भी इस विश्वास के साथ बैठा था कि कुछ तो जरूर मिलेगा।

उसे बड़ा आस्चर्य हुआ।

उसने वो सारे बिस्किट उस एक कुत्ते के सामने डाल दिये।

वो कुत्ता बड़ी खुशी के साथ वो सब बिस्किट खा गया और फिर चला गया।

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बाद में उस आदमी ने सोचा कि हम मनुषयो के साथ भी तो यही होता है, जब ईश्वर हमे देता रहता है, तब हम खुश रहते है उसकी भक्ति करते है उसके फल का इंतज़ार करते है, लेकिन भगवान को जरा सी देर हुई नही की हम उसकी भक्ति पर संदेह करने लगते है, दूसरी तरफ जो उसपर विश्वास बनाये रखता है, उसे उसके विश्वास से ज्यादा मिलता है।

इसलिये अपने प्रभु पर विश्वास बनाये रखे, अपने विश्वास को किसी भी परिस्थिति में डिगने ना दे, अगर देर हो रही है इसका मतलब है कि प्रभु आपके लिए कुछ अच्छा करने में लगे हुए है।
।।।। जय सिया राम जी ।।।।

एक सूफी कहानी

एक फकीर जो एक वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहा था, रोज एक लकड़हारे को लकड़ी काटते ले जाते देखता था। एक दिन उससे कहा कि सुन भाई, दिन— भर लकड़ी काटता है, दो जून रोटी भी नहीं जुट पाती। तू जरा आगे क्यों नहीं जाता। वहां आगे चंदन का जंगल है। एक दिन काट लेगा, सात दिन के खाने के लिए काफी हो जाएगा।

गरीब लकड़हारे को भरोसा तो नहीं आया, क्योंकि वह तो सोचता था कि जंगल को जितना वह जानता है और कौन जानता है! जंगल में ही तो जिंदगी बीती। लकड़ियां काटते ही तो जिंदगी बीती। यह फकीर यहां बैठा रहता है वृक्ष के नीचे, इसको क्या खाक पता होगा? मानने का मन तो न हुआ, लेकिन फिर सोचा कि हर्ज क्या है, कौन जाने ठीक ही कहता हो! फिर झूठ कहेगा भी क्यों? शांत आदमी मालूम पड़ता है, मस्त आदमी मालूम पड़ता है। कभी बोला भी नहीं इसके पहले। एक बार प्रयोग करके देख लेना जरूरी है।

तो गया। लौटा फकीर के चरणों में सिर रखा और कहा कि मुझे क्षमा करना, मेरे मन में बड़ा संदेह आया था, क्योंकि मैं तो सोचता था कि मुझसे ज्यादा लकड़ियां कौन जानता है। मगर मुझे चंदन की पहचान ही न थी। मेरा बाप भी लकड़हारा था, उसका बाप भी लकड़हारा था। हम यही काटने की, जलाऊ—लकड़ियां काटते—काटते जिंदगी बिताते रहे, हमें चंदन का पता भी क्या, चंदन की पहचान क्या! हमें तो चंदन मिल भी जाता तो भी हम काटकर बेच आते उसे बाजार में ऐसे ही। तुमने पहचान बताई, तुमने गंध जतलाई, तुमने परख दी। जरूर जंगल है। मैं भी कैसा अभागा! काश, पहले पता चल जाता! फकीर ने कहा कोई फिक्र न करो, जब पता चला तभी जल्दी है। जब घर आ गए तभी सबेरा है। दिन बड़े मजे में कटने लगे। एक दिन काट लेता, सात— आठ दिन, दस दिन जंगल आने की जरूरत ही न रहती।

एक दिन फकीर ने कहा; मेरे भाई, मैं सोचता था कि तुम्हें कुछ अक्ल आएगी। जिंदगी— भर तुम लकड़ियां काटते रहे, आगे न गए; तुम्हें कभी यह सवाल नहीं उठा कि इस चंदन के आगे भी कुछ हो सकता है? उसने कहा; यह तो मुझे सवाल ही न आया। क्या चंदन के आगे भी कुछ है? उस फकीर ने कहा : चंदन के जरा आगे जाओ तो वहां चांदी की खदान है। लकडिया—वकडिया काटना छोड़ो। एक दिन ले आओगे, दो—चार छ: महीने के लिए हो गया।

अब तो भरोसा आया था। भागा। संदेह भी न उठाया। चांदी पर हाथ लग गए, तो कहना ही क्या! चांदी ही चांदी थी! चार—छ: महीने नदारद हो जाता। एक दिन आ जाता, फिर नदारद हो जाता। लेकिन आदमी का मन ऐसा मूढ़ है कि फिर भी उसे खयाल न आया कि और आगे कुछ हो सकता है। फकीर ने एक दिन कहा कि तुम कभी जागोगे कि नहीं, कि मुझी को तुम्हें जगाना पड़ेगा। आगे सोने की खदान है मूर्ख! तुझे खुद अपनी तरफ से सवाल, जिज्ञासा, मुमुक्षा कुछ नहीं उठती कि जरा और आगे देख लूं? अब छह महीने मस्त पड़ा रहता है, घर में कुछ काम भी नहीं है, फुरसत है। जरा जंगल में आगे देखकर देखूं यह खयाल में नहीं आता?

उसने कहा कि मैं भी मंदभागी, मुझे यह खयाल ही न आया, मैं तो समझा चांदी, बस आखिरी बात हो गई, अब और क्या होगा? गरीब ने सोना तो कभी देखा न था, सुना था। फकीर ने कहा : थोड़ा और आगे सोने की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है। फिर और आगे हीरों की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है। और एक दिन फकीर ने कहा कि नासमझ, अब तू हीरों पर ही रुक गया? अब तो उस लकड़हारे को भी बडी अकड़ आ गई, बड़ा धनी भी हो गया था, महल खड़े कर लिए थे। उसने कहा अब छोड़ो, अब तुम मुझे परेशांन न करो। अब हीरों के आगे क्या हो सकता है?

उस फकीर ने कहा. हीरों के आगे मैं हूं। तुझे यह कभी खयाल नहीं आया कि यह आदमी मस्त यहां बैठा है, जिसे पता है हीरों की खदान का, वह हीरे नहीं भर रहा है, इसको जरूर कुछ और आगे मिल गया होगा! हीरों से भी आगे इसके पास कुछ होगा, तुझे कभी यह सवाल नहीं उठा?

रोने लगा वह आदमी। सिर पटक दिया चरणों पर। कहा कि मैं कैसा मूढ़ हूं मुझे यह सवाल ही नहीं आता। तुम जब बताते हो, तब मुझे याद आता है। यह तो मेरे जन्मों—जन्मों में नहीं आ सकता था खयाल कि तुम्हारे पास हीरों से भी बड़ा कोई धन है।

फकीर ने कहा : उसी धन का नाम ध्यान है।

अब खूब तेरे पास धन है, अब धन की कोई जरूरत नहीं। अब जरा अपने भीतर की खदान खोद, जो सबसे कीमती है।

मूल लक्ष्य को जाना हमने?

एक प्रसंग है जो हँसी तो आएगी लेकिन जीवन मे सबसे बड़ी सीख देकर जाएगी।

एक लड़की जो बड़े घर की थी, उसके घर मे बहुत सारे नौकर थे। उस लड़की को कभी जरूरत नही पड़ी कि कभी रसोईघर में जाएं या कभी बाजार में जाएं। फिर उसकी शादी हुई वो ससुराल पहुँची ओर साथ मे किताब लाई थी जो उसकी ही मौसी ने दी थी। उस किताब का नाम था– खाना-खजाना

वो नवविवाहित स्त्री का रसोईघर में पहला दिन था उसके पति के कुछ मित्र आए थे और मजाक में ही बोले– यार ! नई-नई भाभी आई है कुछ नया-नया स्वादिष्ट मिल जाए खाने को तो मजा आ जाए।

पति ने जाकर अपनी पत्नी से कहा– “मेरे कुछ मित्र आए है। कुछ मीठा बनाओ ताकि सभी खुश हो जाएं।”

पत्नी गई रसोईघर में तो साथ मे खाना-खजाना की किताब लेते गई और फिर पहला पेज उल्टा तो लिखा था —
हलवा बनाने की विधि”– गैस पर कड़ाही चढ़ाइए, घी दीजिए, सूजी दीजिए,चीनी दीजिए……

नवविवाहिता उसी तरह करते जा रही थी जिस तरह किताब में लिखा था और फिर प्लेट में निकाल कर खाने को दिया सभी को। पति ओर उसके दोस्तों ने देखा तो हैरान हुआ और जाकर अपने पत्नी से पूछा– “कैसे बनाई❓थोड़ा बताओ तो।”

पत्नी ने सबकुछ बता दीया….।

पति– भाग्यवान ! तुमने सबकुछ ठीक किया लेकिन गैस जलाई थी??? 😧☹😕
पत्नी– 😲😮😩 भूल गई जी ये तो किताब में लिखा ही नही था…. (😄😄😄😄😛😛)

🕉कहानी से शिक्षा—🕉

यही हम् अपने जीवन मे करते है सारे शास्त्र-ग्रन्थ पढ़ते है रटते है और शास्त्रों का बहुत कुछ स्वयं भी पालन करते है ओर दुसरो को भी करने को कहते है। लेकिन जिस तरह गैस जलाना वो महिला भूल गई कही उसी तरह हम् भी तो नही कर रहे है???

🕉– क्या हमने अपने मानव जीवन से सम्बंधित धार्मिक-ग्रन्थों के रहस्य को जाना❓❓

🕉– हम् जो बाहरी पूजा-पाठ करते है क्या हमने उनका वास्तविक अर्थ जाना जो हमारे भीतर ही है❓❓

अगर सब किया, और जिसके लिए मानव तन मिला वो न किया तो सब व्यर्थ है। अगर सब पढ़ा और जिससे मानव जीवन का कल्याण हो वो न पढ़ा तो सब व्यर्थ है।

भक्त और भगवान

एक बार की बात है
महाभारत के युद्ध के बाद
भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन द्वारिका गये

पर इस बार रथ अर्जुन चलाकर के ले गये।

द्वारिका पहुँचकर अर्जुन बहुत थक गये थे

इसलिए विश्राम करने के लिए अतिथि भवन में चले गये।

शाम के समय रूक्मनी जी ने कृष्ण जी को भोजन परोसा

तो कृष्ण जी बोले घर में अतिथि आये हुए है

हम उनके बिना भोजन कैसे कर ले।

रूक्मनी जी ने कहा भगवन आप
आरंभ करिये मैं अर्जुन को बुलाकर लाती हूँ ।

जैसे ही रूक्मनी जी वहाँ पहुँची तो उन्होंने देखा कि अर्जुन सोये हुए हैं

और उनके रोम रोम से कृष्ण नाम की ध्वनि प्रस्फुटित हो रही है

तो वो जगाना तो भूल गयीं और मन्द मन्द स्वर में ताली बजाने लगी ।

इधर नारद जी ने कृष्ण जी से कहा
भगवान भोग ठण्डा हो रहा है

कृष्ण जी बोले अतिथि के बिना
हम भोजन नहीं करेंगे।

नारद जी बोले मैं बुलाकर लाता हूँ
नारद जी ने वहां का नजारा देखा तो वो भी जगाना भूल गये
और उन्होंने वीणा बजाना शुरू कर दिया ।

इधर सत्यभामा जी बोली
प्रभु भोग ठण्डा हो रहा है आप प्रारंभ तो करिये ।

भगवान बोले हम अतिथि के बिना भोजन नहीं कर सकते ।

सत्यभामा जी बोलीं मैं बुलाकर लाती हूँ ।
वे वहाँ पहुँची तो इन्होंने देखा कि अर्जुन सोये हुए हैं

और उनका रोम रोम कृष्ण नाम का कीर्तन कर रहा है और रूक्मनी जी ताली बजा रही हैं

नारद जी वीणा बजा रहे हैं
तो ये भी जगाना भूल गयीं
और इन्होंने नाचना शुरू कर दिया ।

इधर भगवान बोले सब बोल के जाते हैं
भोग ठण्डा हो रहा है
पर हमारी चिन्ता किसी को नहीं है

चलकर देखता हूँ वहाँ ऐसा क्या हो रहा है
जो सब हमको ही भूल गये।

प्रभु ने वहाँ जाकर के देखा तो वहाँ तो स्वर लहरी चल रही है ।

अर्जुन सोते सोते कीर्तन कर रहे हैं,

रूक्मनी जी ताली बजा रही हैं,

नारद जी वीणा बजा रहे हैं,

और सत्यभामा जी नृत्य कर रही हैं ।

ये देखकर भगवान के नेत्र सजल हो गये
और
मेरे प्रभु ने अर्जुन के चरण दबाना
शुरू कर दिया ।

जैसे ही प्रभु के नेत्रों से प्रेमा श्रुओ की बूँदें अर्जुन के चरणों पर पड़ी तो

अर्जून छटपटा के उठे और बोले
प्रभु ये क्या हो रहा है ।

भगवान बोले, अर्जुन तुमने मुझे
रोम रोम में बसा रखा है

इसीलिए तो तुम मुझे सबसे अधिक प्रिय
हो और
गोविन्द ने अर्जून को गले से लगा लिया ।

लीलाधारी तेरी लीला

भक्त भी तू

भगवान भी तू

करने वाला भी तू

कराने वाला भी तू

बोलिये भक्त और भगवान की जय।।

प्यार से बोलो जय श्री कृष्ण
जय श्री कृष्ण जय श्री कृष्ण
जय श्री कृष्ण जय श्री कृष्ण
👣

स्वाइन फ्लू से बचने के 5 उपाय, अपने किचन से ही पाएं, जरूर आजमाएं

तुलसी – तुलसी आपको इस संक्रमण से बचा सकती है, अत: रोजाना किसी भी रूप में इसका सेवन करें ताकि आप स्वाइन फ्लू के साथ-साथ अन्य संक्रमण से बच सकें।

कपूर – किसी भी प्रकार के संक्रमण से निजात दिलाने के लिए कपूर एक औषधि की तरह काम करता है। श्वसन संबंधी संक्रमण में इसे सूंघना फायदेमंद है, इसलिए आपने सुना होगा कि इलायची और कपूर को सूंघने से स्वाइन फ्लू से बचा जा सकता है। आप इसे खा भी सकते हैं लेकिन इसकी मात्रा गेहूं के दाने बराबर या इससे भी कम रखें।

नीम– प्राकृतिक एंटीबायोटिक, एंटीइंफ्लेमेटरी के तौर पर नीम का प्रयोग सदियों से किया जाता रहा है, और स्वाइन फ्लू से बचने के लिए भी आप इसकी मदद ले सकते हैं। रोजाना नीम की कुछ पत्त‍ियां चबाकर आप न सिर्फ स्वाइन फ्लू से बच सकते हैं, बल्कि रक्त को भी शुद्ध कर सकते हैं।

गिलोय – गिलोय का प्रयोग करना अमृत के समान फायदेमंद होगा। इसे तुलसी की पत्त‍ियों के साथ उबालकर इस पानी में काली मिर्च, काला नमक व मिश्री के साथ सेवन करें। इससे स्वाइन फ्लू के अलावा कई स्वास्थ्य समस्याओं में लाभ होगा।

लहसुन – लहसुन का प्रयोग यूं तो आप खाने में करते ही हैं, लेकिन अगर कच्चे लहसुन का सेवन करेंगे तो यह बेहद लाभकारी होगा और आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता में भी इजाफा करेगा।

काली-सहस्रनाम

श्मशान-कालिका काली भद्रकाली कपालिनी ।

गुह्य-काली महाकाली कुरु-कुल्ला विरोधिनी ।।१।।

कालिका काल-रात्रिश्च महा-काल-नितम्बिनी ।

काल-भैरव-भार्या च कुल-वत्र्म-प्रकाशिनी ।।२।।

कामदा कामिनीया कन्या कमनीय-स्वरूपिणी ।

कस्तूरी-रस-लिप्ताङ्गी कुञ्जरेश्वर-गामिनी।।३।।

ककार-वर्ण-सर्वाङ्गी कामिनी काम-सुन्दरी ।

कामात्र्ता काम-रूपा च काम-धेनुु: कलावती ।।४।।

कान्ता काम-स्वरूपा च कामाख्या कुल-कामिनी ।

कुलीना कुल-वत्यम्बा दुर्गा दुर्गति-नाशिनी ।।५।।

कौमारी कुलजा कृष्णा कृष्ण-देहा कृशोदरी ।

कृशाङ्गी कुलाशाङ्गी च क्रीज्ररी कमला कला ।।६।।

करालास्य कराली च कुल-कांतापराजिता ।

उग्रा उग्र-प्रभा दीप्ता विप्र-चित्ता महा-बला ।।७।।

नीला घना मेघ-नाद्रा मात्रा मुद्रा मिताऽमिता ।

ब्राह्मी नारायणी भद्रा सुभद्रा भक्त-वत्सला ।।८।।

माहेश्वरी च चामुण्डा वाराही नारसिंहिका ।

वङ्कांगी वङ्का-कंकाली नृ-मुण्ड-स्रग्विणी शिवा ।।९।।

मालिनी नर-मुण्डाली-गलद्रक्त-विभूषणा ।

रक्त-चन्दन-सिक्ताङ्गी सिंदूरारुण-मस्तका ।।१०।।

घोर-रूपा घोर-दंष्ट्रा घोरा घोर-तरा शुभा ।

महा-दंष्ट्रा महा-माया सुदन्ती युग-दन्तुरा ।।११।।

सुलोचना विरूपाक्षी विशालाक्षी त्रिलोचना ।

शारदेन्दु-प्रसन्नस्या स्पुâरत्-स्मेराम्बुजेक्षणा ।।१२।।

अट्टहासा प्रफुल्लास्या स्मेर-वक्त्रा सुभाषिणी ।

प्रफुल्ल-पद्म-वदना स्मितास्या प्रिय-भाषिणी ।।१३।।

कोटराक्षी कुल-श्रेष्ठा महती बहु-भाषिणी ।

सुमति: मतिश्चण्डा चण्ड-मुण्डाति-वेगिनी ।।१४।।

प्रचण्डा चण्डिका चण्डी चर्चिका चण्ड-वेगिनी ।

सुकेशी मुक्त-केशी च दीर्घ-केशी महा-कचा ।।१५।।

पे्रत-देही-कर्ण-पूरा प्रेत-पाणि-सुमेखला ।

प्रेतासना प्रिय-प्रेता प्रेत-भूमि-कृतालया ।।१६।।

श्मशान-वासिनी पुण्या पुण्यदा कुल-पण्डिता ।

पुण्यालया पुण्य-देहा पुण्य-श्लोका च पावनी ।।१७।।

पूता पवित्रा परमा परा पुण्य-विभूषणा ।

पुण्य-नाम्नी भीति-हरा वरदा खङ्ग-पाशिनी ।।१८।।

नृ-मुण्ड-हस्ता शस्त्रा च छिन्नमस्ता सुनासिका ।

दक्षिणा श्यामला श्यामा शांता पीनोन्नत-स्तनी ।।१९।।

दिगम्बरा घोर-रावा सृक्कान्ता-रक्त-वाहिनी ।

महा-रावा शिवा संज्ञा नि:संगा मदनातुरा ।।२०।।

मत्ता प्रमत्ता मदना सुधा-सिन्धु-निवासिनी ।

अति-मत्ता महा-मत्ता सर्वाकर्षण-कारिणी ।।२१।।

गीत-प्रिया वाद्य-रता प्रेत-नृत्य-परायणा ।

चतुर्भुजा दश-भुजा अष्टादश-भुजा तथा ।।२२।।

कात्यायनी जगन्माता जगती-परमेश्वरी ।

जगद्-बन्धुर्जगद्धात्री जगदानन्द-कारिणी ।।२३।।

जगज्जीव-मयी हेम-वती महामाया महा-लया ।

नाग-यज्ञोपवीताङ्गी नागिनी नाग-शायनी ।।२४।।

नाग-कन्या देव-कन्या गान्धारी किन्नरेश्वरी ।

मोह-रात्री महा-रात्री दरुणाभा सुरासुरी ।।२५।।

विद्या-धरी वसु-मती यक्षिणी योगिनी जरा ।

राक्षसी डाकिनी वेद-मयी वेद-विभूषणा ।।२६।।

श्रुति-स्मृतिर्महा-विद्या गुह्य-विद्या पुरातनी ।

चिंताऽचिंता स्वधा स्वाहा निद्रा तन्द्रा च पार्वती ।।२७।।

अर्पणा निश्चला लीला सर्व-विद्या-तपस्विनी ।

गङ्गा काशी शची सीता सती सत्य-परायणा ।।२८।।

नीति: सुनीति: सुरुचिस्तुष्टि: पुष्टिर्धृति: क्षमा ।

वाणी बुद्धिर्महा-लक्ष्मी लक्ष्मीर्नील-सरस्वती ।।२९।।

स्रोतस्वती स्रोत-वती मातङ्गी विजया जया ।

नदी सिन्धु: सर्व-मयी तारा शून्य निवासिनी ।।३०।।

शुद्धा तरंगिणी मेधा शाकिनी बहु-रूपिणी ।

सदानन्द-मयी सत्या सर्वानन्द-स्वरूपणि ।।३१।।

स्थूला सूक्ष्मा सूक्ष्म-तरा भगवत्यनुरूपिणी ।

परमार्थ-स्वरूपा च चिदानन्द-स्वरूपिणी ।।३२।।

सुनन्दा नन्दिनी स्तुत्या स्तवनीया स्वभाविनी ।

रंकिणी टंकिणी चित्रा विचित्रा चित्र-रूपिणी ।।३३।।

पद्मा पद्मालया पद्म-मुखी पद्म-विभूषणा ।

शाकिनी हाकिनी क्षान्ता राकिणी रुधिर-प्रिया ।।३४।।

भ्रान्तिर्भवानी रुद्राणी मृडानी शत्रु-मर्दिनी ।

उपेन्द्राणी महेशानी ज्योत्स्ना चन्द्र-स्वरूपिणी ।।३५।।

सूय्र्यात्मिका रुद्र-पत्नी रौद्री स्त्री प्रकृति: पुमान् ।

शक्ति: सूक्तिर्मति-मती भक्तिर्मुक्ति: पति-व्रता ।।३६।।

सर्वेश्वरी सर्व-माता सर्वाणी हर-वल्लभा ।

सर्वज्ञा सिद्धिदा सिद्धा भाव्या भव्या भयापहा ।।३७।।

कर्त्री हर्त्री पालयित्री शर्वरी तामसी दया ।

तमिस्रा यामिनीस्था न स्थिरा धीरा तपस्विनी ।।३८।।

चार्वङ्गी चंचला लोल-जिह्वा चारु-चरित्रिणी ।

त्रपा त्रपा-वती लज्जा निर्लज्जा ह्नीं रजोवती ।।३९।।

सत्व-वती धर्म-निष्ठा श्रेष्ठा निष्ठुर-वादिनी ।

गरिष्ठा दुष्ट-संहत्री विशिष्टा श्रेयसी घृणा ।।४०।।

भीमा भयानका भीमा-नादिनी भी: प्रभावती ।

वागीश्वरी श्रीर्यमुना यज्ञ-कत्र्री यजु:-प्रिया ।।४१।।

ऋक्-सामाथर्व-निलया रागिणी शोभन-स्वरा ।

कल-कण्ठी कम्बु-कण्ठी वेणु-वीणा-परायणा ।।४२।।

वशिनी वैष्णवी स्वच्छा धात्री त्रि-जगदीश्वरी ।

मधुमती कुण्डलिनी शक्ति: ऋद्धि: सिद्धि: शुचि-स्मिता ।।४३।।

रम्भोवैशी रती रामा रोहिणी रेवती मघा ।

शङ्खिनी चक्रिणी कृष्णा गदिनी पद्मनी तथा ।।४४।।

शूलिनी परिघास्त्रा च पाशिनी शाङ्र्ग-पाणिनी ।

पिनाक-धारिणी धूम्रा सुरभि वन-मालिनी ।।४५।।

रथिनी समर-प्रीता च वेगिनी रण-पण्डिता ।

जटिनी वङ्किाणी नीला लावण्याम्बुधि-चन्द्रिका ।।४६।।

बलि-प्रिया महा-पूज्या पूर्णा दैत्येन्द्र-मन्थिनी ।

महिषासुर-संहन्त्री वासिनी रक्त-दन्तिका ।।४७।।

रक्तपा रुधिराक्ताङ्गी रक्त-खर्पर-हस्तिनी ।

रक्त-प्रिया माँस – रुधिरासवासक्त-मानसा ।।४८।।

गलच्छोेणित-मुण्डालि-कण्ठ-माला-विभूषणा ।

शवासना चितान्त:स्था माहेशी वृष-वाहिनी ।।४९।।

व्याघ्र-त्वगम्बरा चीर-चेलिनी सिंह-वाहिनी ।

वाम-देवी महा-देवी गौरी सर्वज्ञ-भाविनी ।।५०।।

बालिका तरुणी वृद्धा वृद्ध-माता जरातुरा ।

सुभ्रुर्विलासिनी ब्रह्म-वादिनि ब्रह्माणी मही ।।५१।।

स्वप्नावती चित्र-लेखा लोपा-मुद्रा सुरेश्वरी ।

अमोघाऽरुन्धती तीक्ष्णा भोगवत्यनुवादिनी ।।५२।।

मन्दाकिनी मन्द-हासा ज्वालामुख्यसुरान्तका ।

मानदा मानिनी मान्या माननीया मदोद्धता ।।५३।।

मदिरा मदिरोन्मादा मेध्या नव्या प्रसादिनी ।

सुमध्यानन्त-गुणिनी सर्व-लोकोत्तमोत्तमा ।।५४।।

जयदा जित्वरा जेत्री जयश्रीर्जय-शालिनी ।

सुखदा शुभदा सत्या सभा-संक्षोभ-कारिणी ।।५५।।

शिव-दूती भूति-मती विभूतिर्भीषणानना ।

कौमारी कुलजा कुन्ती कुल-स्त्री कुल-पालिका ।।५६।।

कीर्तिर्यशस्विनी भूषां भूष्या भूत-पति-प्रिया ।

सगुणा-निर्गुणा धृष्ठा कला-काष्ठा प्रतिष्ठिता ।।५७।।

धनिष्ठा धनदा धन्या वसुधा स्व-प्रकाशिनी ।

उर्वी गुर्वी गुरु-श्रेष्ठा सगुणा त्रिगुणात्मिका ।।५८।।

महा-कुलीना निष्कामा सकामा काम-जीवना ।

काम-देव-कला रामाभिरामा शिव-नर्तकी ।।५९।।

चिन्तामणि: कल्पलता जाग्रती दीन-वत्सला ।

कार्तिकी कृत्तिका कृत्या अयोेध्या विषमा समा ।।६०।।

सुमंत्रा मंत्रिणी घूर्णा ह्लादिनी क्लेश-नाशिनी ।

त्रैलोक्य-जननी हृष्टा निर्मांसा मनोरूपिणी ।।६१।।

तडाग-निम्न-जठरा शुष्क-मांसास्थि-मालिनी ।

अवन्ती मथुरा माया त्रैलोक्य-पावनीश्वरी ।।६२।।

व्यक्ताव्यक्तानेक-मूर्ति: शर्वरी भीम-नादिनी ।

क्षेमज्र्री शंकरी च सर्व- सम्मोह-कारिणी ।।६३।।

ऊध्र्व-तेजस्विनी क्लिन्न महा-तेजस्विनी तथा ।

अद्वैत भोगिनी पूज्या युवती सर्व-मङ्गला ।।६४।।

सर्व-प्रियंकरी भोग्या धरणी पिशिताशना ।

भयंकरी पाप-हरा निष्कलंका वशंकरी ।।६५।।

आशा तृष्णा चन्द्र-कला निद्रिका वायु-वेगिनी ।

सहस्र-सूर्य संकाशा चन्द्र-कोटि-सम-प्रभा ।।६६।।

वह्नि-मण्डल-मध्यस्था सर्व-तत्त्व-प्रतिष्ठिता ।

सर्वाचार-वती सर्व-देव – कन्याधिदेवता ।।६७।।

दक्ष-कन्या दक्ष-यज्ञ नाशिनी दुर्ग तारिणी ।

इज्या पूज्या विभीर्भूति: सत्कीर्तिब्र्रह्म-रूपिणी ।।६८।।

रम्भीश्चतुरा राका जयन्ती करुणा कुहु: ।

मनस्विनी देव-माता यशस्या ब्रह्म-चारिणी ।।६९।।

ऋद्धिदा वृद्धिदा वृद्धि: सर्वाद्या सर्व-दायिनी ।

आधार-रूपिणी ध्येया मूलाधार-निवासिनी ।।७०।।

आज्ञा प्रज्ञा-पूर्ण-मनाश्चन्द्र-मुख्यानुवूâलिनी ।

वावदूका निम्न-नाभि: सत्या सन्ध्या दृढ़-व्रता ।।७१।।

आन्वीक्षिकी दंड-नीतिस्त्रयी त्रि-दिव-सुन्दरी ।

ज्वलिनी ज्वालिनी शैल-तनया विन्ध्य-वासिनी ।।७२।।

अमेया खेचरी धैर्या तुरीया विमलातुरा ।

प्रगल्भा वारुणीच्छाया शशिनी विस्पुâलिङ्गिनी ।।७३।।

भुक्ति सिद्धि सदा प्राप्ति: प्राकम्या महिमाणिमा ।

इच्छा-सिद्धिर्विसिद्धा च वशित्वीध्र्व-निवासिनी ।।७४।।

लघिमा चैव गायित्री सावित्री भुवनेश्वरी ।

मनोहरा चिता दिव्या देव्युदारा मनोरमा ।।७५।।

पिंगला कपिला जिह्वा-रसज्ञा रसिका रसा ।

सुषुम्नेडा भोगवती गान्धारी नरकान्तका ।।७६।।

पाञ्चाली रुक्मिणी राधाराध्या भीमाधिराधिका ।

अमृता तुलसी वृन्दा वैâटभी कपटेश्वरी ।।७७।।

उग्र-चण्डेश्वरी वीर-जननी वीर-सुन्दरी ।

उग्र-तारा यशोदाख्या देवकी देव-मानिता ।।७८।।

निरन्जना चित्र-देवी क्रोधिनी कुल-दीपिका ।

कुल-वागीश्वरी वाणी मातृका द्राविणी द्रवा ।।७९।।

योगेश्वरी-महा-मारी भ्रामरी विन्दु-रूपिणी ।

दूती प्राणेश्वरी गुप्ता बहुला चामरी-प्रभा ।।८०।।

कुब्जिका ज्ञानिनी ज्येष्ठा भुशुंडी प्रकटा तिथि: ।

द्रविणी गोपिनी माया काम-बीजेश्वरी क्रिया ।।८१।।

शांभवी केकरा मेना मूषलास्त्रा तिलोत्तमा ।

अमेय-विक्रमा व्रूâरा सम्पत्-शाला त्रिलोचना ।।८२।।

सुस्थी हव्य-वहा प्रीतिरुष्मा धूम्रार्चिरङ्गदा ।

तपिनी तापिनी विश्वा भोगदा धारिणी धरा ।।८३।।

त्रिखंडा बोधिनी वश्या सकला शब्द-रूपिणी ।

बीज-रूपा महा-मुद्रा योगिनी योनि-रूपिणी ।।८४।।

अनङ्ग – मदनानङ्ग – लेखनङ्ग – कुशेश्वरी ।

अनङ्ग-मालिनि-कामेशी देवि सर्वार्थ-साधिका ।।८५।।

सर्व-मन्त्र-मयी मोहिन्यरुणानङ्ग-मोहिनी ।

अनङ्ग-कुसुमानङ्ग-मेखलानङ्ग – रूपिणी ।।८६।।

वङ्कोश्वरी च जयिनी सर्व-द्वन्द्व-क्षयज्र्री ।

षडङ्ग-युवती योग-युक्ता ज्वालांशु-मालिनी ।।८७।।

दुराशया दुराधारा दुर्जया दुर्ग-रूपिणी ।

दुरन्ता दुष्कृति-हरा दुध्र्येया दुरतिक्रमा ।।८८।।

हंसेश्वरी त्रिकोणस्था शाकम्भर्यनुकम्पिनी ।

त्रिकोण-निलया नित्या परमामृत-रञ्जिता ।।८९।।

महा-विद्येश्वरी श्वेता भेरुण्डा कुल-सुन्दरी ।

त्वरिता भक्त-संसक्ता भक्ति-वश्या सनातनी ।।९०।।

भक्तानन्द-मयी भक्ति-भाविका भक्ति-शज्र्री ।

सर्व-सौन्दर्य-निलया सर्व-सौभाग्य-शालिनी ।।९१।।

सर्व-सौभाग्य-भवना सर्व सौख्य-निरूपिणी ।

कुमारी-पूजन-रता कुमारी-व्रत-चारिणी ।।९२।।

कुमारी-भक्ति-सुखिनी कुमारी-रूप-धारिणी ।

कुमारी-पूजक-प्रीता कुमारी प्रीतिदा प्रिया ।।९३।।

कुमारी-सेवकासंगा कुमारी-सेवकालया ।

आनन्द-भैरवी बाला भैरवी वटुक-भैरवी ।।९४।।

श्मशान-भैरवी काल-भैरवी पुर-भैरवी ।

महा-भैरव-पत्नी च परमानन्द-भैरवी ।।९५।।

सुधानन्द-भैरवी च उन्मादानन्द-भैरवी ।

मुक्तानन्द-भैरवी च तथा तरुण-भैरवी ।।९६।।

ज्ञानानन्द-भैरवी च अमृतानन्द-भैरवी ।

महा-भयज्र्री तीव्रा तीव्र-वेगा तपस्विनी ।।९७।।

त्रिपुरा परमेशानी सुन्दरी पुर-सुन्दरी ।

त्रिपुरेशी पञ्च-दशी पञ्चमी पुर-वासिनी ।।९८।।

महा-सप्त-दशी चैव षोडशी त्रिपुरेश्वरी ।

महांकुश-स्वरूपा च महा-चव्रेâश्वरी तथा ।।९९।।

नव-चव्रेâश्वरी चक्र-ईश्वरी त्रिपुर-मालिनी ।

राज-राजेश्वरी धीरा महा-त्रिपुर-सुन्दरी ।।१००।।

सिन्दूर-पूर-रुचिरा श्रीमत्त्रिपुर-सुन्दरी ।

सर्वांग-सुन्दरी रक्ता रक्त-वस्त्रोत्तरीयिणी ।।१०१।।

जवा-यावक-सिन्दूर -रक्त-चन्दन-धारिणी ।

त्रिकूटस्था पञ्च-कूटा सर्व-वूâट-शरीरिणी ।।१०२।।

चामरी बाल-कुटिल-निर्मल-श्याम-केशिनी ।

वङ्का-मौक्तिक-रत्नाढ्या-किरीट-मुकुटोज्ज्वला ।।१०३।।

रत्न-कुण्डल-संसक्त-स्फुरद्-गण्ड-मनोरमा ।

कुञ्जरेश्वर-कुम्भोत्थ-मुक्ता-रञ्जित-नासिका ।।१०४।।

मुक्ता-विद्रुम-माणिक्य-हाराढ्य-स्तन-मण्डला ।

सूर्य-कान्तेन्दु-कान्ताढ्य-कान्ता-कण्ठ-भूषणा ।।१०५।।

वीजपूर-स्फुरद्-वीज -दन्त – पंक्तिरनुत्तमा ।

काम-कोदण्डकाभुग्न-भ्रू-कटाक्ष-प्रवर्षिणी ।।१०६।।

मातंग-कुम्भ-वक्षोजा लसत्कोक-नदेक्षणा ।

मनोज्ञ-शुष्कुली-कर्णा हंसी-गति-विडम्बिनी ।।१०७।।

पद्म-रागांगदा-ज्योतिर्दोश्चतुष्क-प्रकाशिनी ।

नाना-मणि-परिस्फूर्जच्दृद्ध-कांचन-वंâकणा ।।१०८।।

नागेन्द्र-दन्त-निर्माण-वलयांचित-पाणिनी ।

अंगुरीयक-चित्रांगी विचित्र-क्षुद्र-घण्टिका ।।१०९।।

पट्टाम्बर-परीधाना कल-मञ्जीर-शिंजिनी ।

कर्पूरागरु-कस्तूरी-कुंकुम-द्रव-लेपिता ।।११०।।

विचित्र-रत्न-पृथिवी-कल्प-शाखि-तल-स्थिता ।

रत्न-द्वीप-स्पुâरद्-रक्त-सिंहासन-विलासिनी ।।१११।।

षट्-चक्र-भेदन-करी परमानन्द-रूपिणी ।

सहस्र-दल – पद्यान्तश्चन्द्र – मण्डल-वर्तिनी ।।११२।।

ब्रह्म-रूप-शिव-क्रोड-नाना-सुख-विलासिनी ।

हर-विष्णु-विरंचीन्द्र-ग्रह – नायक-सेविता ।।११३।।

शिवा शैवा च रुद्राणी तथैव शिव-वादिनी ।

मातंगिनी श्रीमती च तथैवानन्द-मेखला ।।११४।।

डाकिनी योगिनी चैव तथोपयोगिनी मता ।

माहेश्वरी वैष्णवी च भ्रामरी शिव-रूपिणी ।।११५।।

अलम्बुषा वेग-वती क्रोध-रूपा सु-मेखला ।

गान्धारी हस्ति-जिह्वा च इडा चैव शुभज्र्री ।।११६।।

पिंगला ब्रह्म-सूत्री च सुषुम्णा चैव गन्धिनी ।

आत्म-योनिब्र्रह्म-योनिर्जगद-योनिरयोनिजा ।।११७।।

भग-रूपा भग-स्थात्री भगनी भग-रूपिणी ।

भगात्मिका भगाधार-रूपिणी भग-मालिनी ।।११८।।

लिंगाख्या चैव लिंगेशी त्रिपुरा-भैरवी तथा ।

लिंग-गीति: सुगीतिश्च लिंगस्था लिंग-रूप-धृव्â ।।११९।।

लिंग-माना लिंग-भवा लिंग-लिंगा च पार्वती ।

भगवती कौशिकी च प्रेमा चैव प्रियंवदा ।।१२०।।

गृध्र-रूपा शिवा-रूपा चक्रिणी चक्र-रूप-धृव्â ।

लिंगाभिधायिनी लिंग-प्रिया लिंग-निवासिनी ।।१२१।।

लिंगस्था लिंगनी लिंग-रूपिणी लिंग-सुन्दरी ।

लिंग-गीतिमहा-प्रीता भग-गीतिर्महा-सुखा ।।१२२।।

लिंग-नाम-सदानंदा भग-नाम सदा-रति: ।

लिंग-माला-वंâठ-भूषा भग-माला-विभूषणा ।।१२३।।

भग-लिंगामृत-प्रीता भग-लिंगामृतात्मिका ।

भग-लिंगार्चन-प्रीता भग-लिंग-स्वरूपिणी ।।१२४।।

भग-लिंग-स्वरूपा च भग-लिंग-सुखावहा ।

स्वयम्भू-कुसुम-प्रीता स्वयम्भू-कुसुमार्चिता ।।१२५।।

स्वयम्भू-पुष्प-प्राणा स्वयम्भू-कुसुमोत्थिता ।

स्वयम्भू-कुसुम-स्नाता स्वयम्भू-पुष्प-तर्पिता ।।१२६।।

स्वयम्भू-पुष्प-घटिता स्वयम्भू-पुष्प-धारिणी ।

स्वयम्भू-पुष्प-तिलका स्वयम्भू-पुष्प-चर्चिता ।।१२७।।

स्वयम्भू-पुष्प-निरता स्वयम्भू-कुसुम-ग्रहा ।

स्वयम्भू-पुष्प-यज्ञांगा स्वयम्भूकुसुमात्मिका ।।१२८।।

स्वयम्भू-पुष्प-निचिता स्वयम्भू-कुसुम-प्रिया ।

स्वयम्भू-कुसुमादान-लालसोन्मत्त – मानसा ।।१२९।।

स्वयम्भू-कुसुमानन्द-लहरी-स्निग्ध देहिनी ।

स्वयम्भू-कुसुमाधारा स्वयम्भू-वुुâसुमा-कला ।।१३०।।

स्वयम्भू-पुष्प-निलया स्वयम्भू-पुष्प-वासिनी ।

स्वयम्भू-कुसुम-स्निग्धा स्वयम्भू-कुसुमात्मिका ।।१३१।।

स्वयम्भू-पुष्प-कारिणी स्वयम्भू-पुष्प-पाणिका ।

स्वयम्भू-कुसुम-ध्याना स्वयम्भू-कुसुम-प्रभा ।।१३२।।

स्वयम्भू-कुसुम-ज्ञाना स्वयम्भू-पुष्प-भोगिनी ।

स्वयम्भू-कुसुमोल्लास स्वयम्भू-पुष्प-वर्षिणी ।।१३३।।

स्वयम्भू-कुसुमोत्साहा स्वयम्भू-पुष्प-रूपिणी ।

स्वयम्भू-कुसुमोन्मादा स्वयम्भू पुष्प-सुन्दरी ।।१३४।।

स्वयम्भू-कुसुमाराध्या स्वयम्भू-कुसुमोद्भवा ।

स्वयम्भू-कुसुम-व्यग्रा स्वयम्भू-पुष्प-पूर्णिता ।।१३५।।

स्वयम्भू-पूजक-प्रज्ञा स्वयम्भू-होतृ-मातृका ।

स्वयम्भू-दातृ-रक्षित्री स्वयम्भू-रक्त-तारिका ।।१३६।।

स्वयम्भू-पूजक-ग्रस्ता स्वयम्भू-पूजक-प्रिया ।

स्वयम्भू-वन्दकाधारा स्वयम्भू-निन्दकान्तका ।।१३७।।

स्वयम्भू-प्रद-सर्वस्वा स्वयम्भू-प्रद-पुत्रिणी ।

स्वम्भू-प्रद-सस्मेरा स्वयम्भू-प्रद-शरीरिणी ।।१३८।।

सर्व-कालोद्भव-प्रीता सर्व-कालोद्भवात्मिका ।

सर्व-कालोद्भवोद्भावा सर्व-कालोद्भवोद्भवा ।।१३९।।

कुण्ड-पुष्प-सदा-प्रीतिर्गोल-पुष्प-सदा-रति: ।

कुण्ड-गोलोद्भव-प्राणा कुण्ड-गोलोद्भवात्मिका ।।१४०।।

स्वयम्भुवा शिवा धात्री पावनी लोक-पावनी ।

कीर्तिर्यशस्विनी मेधा विमेधा शुक्र-सुन्दरी ।।१४१।।

अश्विनी कृत्तिका पुष्या तैजस्का चन्द्र-मण्डला ।

सूक्ष्माऽसूक्ष्मा वलाका च वरदा भय-नाशिनी ।।१४२।।

वरदाऽभयदा चैव मुक्ति-बन्ध-विनाशिनी ।

कामुका कामदा कान्ता कामाख्या कुल-सुन्दरी ।।१४३।।

दुःखदा सुखदा मोक्षा मोक्षदार्थ-प्रकाशिनी ।

दुष्टादुष्ट-मतिश्चैव सर्व-कार्य-विनाशिनी ।।१४४।।

शुक्राधारा शुक्र-रूपा-शुक्र-सिन्धु-निवासिनी ।

शुक्रालया शुक्र-भोग्या शुक्र-पूजा-सदा-रति:।।१४५।।

शुक्र-पूज्या-शुक्र-होम-सन्तुष्टा शुक्र-वत्सला ।

शुक्र-मूत्र्ति: शुक्र-देहा शुक्र-पूजक-पुत्रिणी ।।१४६।।

शुक्रस्था शुक्रिणी शुक्र-संस्पृहा शुक्र-सुन्दरी ।

शुक्र-स्नाता शुक्र-करी शुक्र-सेव्याति-शुक्रिणी ।।१४७।।

महा-शुक्रा शुक्र-भवा शुक्र-वृष्टि-विधायिनी ।

शुक्राभिधेया शुक्रार्हा शुक्र-वन्दक-वन्दिता ।।१४८।।

शुक्रानन्द-करी शुक्र-सदानन्दाभिधायिका ।

शुक्रोत्सवा सदा-शुक्र-पूर्णा शुक्र-मनोरमा ।।१४९।।

शुक्र-पूजक-सर्वस्वा शुक्र-निन्दक-नाशिनी ।

शुक्रात्मिका शुक्र-सम्पत् शुक्राकर्षण-कारिणी ।।१५०।।

शारदा साधक-प्राणा साधकासक्त-रक्तपा ।

साधकानन्द-सन्तोषा साधकानन्द-कारिणी ।।१५१।।

आत्म-विद्या ब्रह्म-विद्या पर ब्रह्म स्वरूपिणी ।

सर्व-वर्ण-मयी देवी जप-माला-विधायिनी ।।

जो ईश्वर और सद् गुरु पर विश्वास रखते हैं,उनका बाल भी बाँका नहीं होता है

एक राजा बहुत दिनों से पुत्र की प्राप्ति के लिए आशा लगाए बैठा था लेकिन पुत्र नहीं हुआ। उसके सलाहकारों ने तांत्रिकों से सहयोग लेने को कहा

सुझाव मिला कि किसी बच्चे की बलि दे दी जाए तो पुत्र प्राप्ति हो जायेगी

राजा ने राज्य में ढिंढोरा पिटवाया कि जो अपना बच्चा देगा,उसे बहुत सारा धन दिया जाएगा

एक परिवार में कई बच्चें थे,गरीबी भी थी।एक ऐसा बच्चा भी था,जो ईश्वर पर आस्था रखता था तथा सन्तों के सत्संग में अधिक समय देता था

परिवार को लगा कि इसे राजा को दे दिया जाए क्योंकि ये कुछ काम भी नहीं करता है,हमारे किसी काम का भी नहीं है

इसे देने पर राजा प्रसन्न होकर बहुत सारा धन देगा
ऐसा ही किया गया। बच्चा राजा को दे दिया गया

राजा के तांत्रिकों द्वारा बच्चे की बलि की तैयारी हो गई

राजा को भी बुलाया गया। बच्चे से पूछा गया कि तुम्हारी आखिरी इच्छा क्या है ?

बच्चे ने कहा कि ठीक है ! मेरे लिए रेत मँगा दिया जाए रेत आ गया

बच्चे ने रेत से चार ढेर बनाए। एक-एक करके तीन रेत के ढेरों को तोड़ दिया और चौथे के सामने हाथ जोड़कर बैठ गया उसने कहा कि अब जो करना है करें

यह सब देखकर तांत्रिक डर गए उन्होंने पूछा कि ये तुमने क्या किया है?

पहले यह बताओ। राजा ने भी पूछा तो बच्चे ने कहा कि
पहली ढेरी मेरे माता पिता की है मेरी रक्षा करना उनका कर्त्तव्य था परंतु उन्होंने पैसे के लिए मुझे बेच दिया

इसलिए मैंने ये ढेरी तोड़ी दूसरी मेरे सगे-सम्बन्धियों की थी। उन्होंने भी मेरे माता-पिता को नहीं समझाया

तीसरी आपकी है राजा क्योंकि राज्य की प्रजा की रक्षा करना राजा का ही धर्म होता है परन्तु राजा ही मेरी बलि देना चाह रहा है तो ये ढेरी भी मैंने तोड़ दी

अब सिर्फ अपने सद् गुरु और ईश्वर पर ही मुझे भरोसा है इसलिए यह एक ढेरी मैंने छोड़ दी है

राजा ने सोचा कि पता नहीं बच्चे की बलि देने के पश्चात भी पुत्र प्राप्त हो या न हो,तो क्यों न इस बच्चे को ही अपना पुत्र बना ले

इतना समझदार और ईश्वर-भक्त बच्चा है।इससे अच्छा बच्चा कहाँ मिलेगा ?

राजा ने उस बच्चे को अपना पुत्र बना लिया और राजकुमार घोषित कर दिया

प्रभु के वक्षस्थल पर विप्र चरण-चिह्न!!!!!!

क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उतपात।
का रहिमन हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात।।

अर्थात बड़े का बड़प्पन इसी में है कि वह सदैव निरहंकारी रहे। असभ्य व्यक्ति अभद्रता से पेश आए तो उसे आपा नहीं खोना चाहिए। यदि वह स्वयं पर अंकुश न रख सका तो बड़े व छोटे में भेद ही क्या रह जाएगा।

रहीम कहते हैं कि बड़े को क्षमाशील होना चाहिए, क्योंकि क्षमा करना ही उसका कर्तव्य, भूषण व बड़प्पन है, जबकि उत्पात व उदंडता करना छोटे को ही शोभा देता है। छोटों के उत्पात से बड़ों को कभी उद्विग्न नहीं होना चाहिए। क्षमा करने से उनका कुछ नहीं घटता। जब भृगु ने विष्णु को लात मारी तो उनका क्या घट गया? कुछ नहीं।

भृगु ने ब्रहमा-विष्णु-महेश की महानता को परखने के लिए विष्णु के वक्ष पर पाद-प्रहार किया। इससे विष्णु चुपचाप मुस्कराते रहे, जबकि ब्रहमा और महेश आपा खो बैठे। भृगु को उत्तर मिल चुका था। उन्हें ब्रहमा या महेश को लात मारने की आवश्यकता नहीं पड़ी।

श्रीरामचरितमानस में उपाख्यानित है कि भक्त और भगवान दोनों को एक ही प्रकार की परीक्षा देनी पड़ती है। जैसे भक्त पर लात का प्रहार किया गया,वैसे ही भगवान पर भी। अन्तर इतना है कि दोनों स्थानों पर मारने वाले पात्र अलग अलग स्तर के हैं।

पुराणों में कथा वर्णित है कि भगवान नारायण की छाती पर भृगु ऋषि ने प्रहार किया। और विभीषण की छाती पर, मानस में, रावण प्रहार करता है। भृगु परम पुण्यात्मा हैं और रावण पापी है। परीक्षा के पात्र हैं, भक्त और भगवान।

आज हम भगवान की परीक्षा की ओर केन्द्रित होकर,आइए इस के अंतरंग-रहस्य पर प्रकाश डालते हैं।

देखें–

एक बार इस बात पर विवाद छिड़ा कि भगवान के अनेक रूपों में सर्वश्रेष्ठ कौन है? भृगु को परीक्षा का भार सौंपा गया।वे ब्रह्मा के पास पहुँचे,पर उन्हें प्रणाम नहीं किया।

इससे ब्रह्मा को बुरा लगा।भृगु सोचने लगे कि ये बड़े शक्तिशाली और सृष्टि के रचयिता तो हैं, पर सम्मान के प्रेमी हैं, यह इनकी कमी है, इसलिए श्रेष्ठ नहीं है।

फिर वे भगवान शंकर के पास गये।उन्हें देखते ही, शंकरजी दौड़कर उनसे मिलने के लिए आए। पर भृगु कह उठे–तुम तो चिता की राख लगाये रहते हो, बड़े गन्दे हो, मुझे मत छुओ। यह सुनकर शंकरजी उन्हें त्रिशूल लेकर मारने दौड़े। भृगु ने सोचा, ये तो महान क्रोधी हैं, अभी इतना प्रेम दिखा रहे थे और अब मारने दौड़ रहे हैं। नहीं, नहीं, ये भी श्रेष्ठ नहीं हैं।

तत्पश्चात् वे विष्णु भगवान के पास क्षीरसागर गये। भगवान नारायण शयन कर रहे थे और कथा है कि भृगु ने उनकी छाती पर चरण से प्रहार किया। भगवान उठ कर बैठ गये और उन्होंने भृगु के चरण को पकड़ लिया। कहा–महाराज!आपके चरणों को बड़ा कष्ट हुआ होगा, क्योंकि वे तो बड़े कोमल हैं। जबकि मेरी छाती बड़ी कठोर है।

जब भृगु लौट कर आए तो उन्होंने घोषणा कर दी कि नारायण ही भगवान का श्रेष्ठ रूप है। इस पौराणिक, आप लोगों द्वारा सुनी हुई कथा का तत्त्व क्या है?

देखें– इसका अर्थ यह नहीं कि भृगु ने ब्रह्मा या शंकर भगवान को जो प्रमाणपत्र दिया, वह सही था। उनके प्रमाणपत्र का कोई बहुत मूल्य नहीं था। यदि वे प्रमाणपत्र न भी देते, तो नारायण की भगवत्ता में कोई अन्तर नहीं आता। यह तो उनकी अपनी कसौटी थी।

जैसे कोई पहली कक्षा का विद्यार्थी, किसी को एम.ए. का प्रमाणपत्र दे दे, तो उसका क्या मूल्य? उसके प्रमाणपत्र देने या न देने का कोई अर्थ नहीं है। तब फिर यह जो भृगु ने नारायण की परीक्षा ली, उसका तत्त्व क्या है?

वास्तव में जब भगवान ने उनसे कहा कि आपके चरणों में चोट लग गयी होगी, तो इसमें स्तुति और ब्यंग्य दोनों हैं । वह कैसे?

भृगु ब्राह्मण हैं, अकिंचन हैं।

एक नया दृश्य यहाँ उपस्थित होता है। ऐसा तो देखा जाता है कि एक अकिंचन किसी लक्ष्मीपति के पास जाकर अपमानित या लांछित हो, पर ऐसा बहुधा नहीं देखा जाता कि अकिंचन जाकर लक्ष्मीपति को ही अपमानित कर दे, और अपमान भी कैसा किया? हृदय पर चरण से प्रहार किया। लक्ष्मीजी ने जब प्रश्न सूचक दृष्टि से मुनि की ओर देखा, तो मुनि बोले–ये सो रहे हैं, इसलिए इन्हें जगा रहे हैं।

तो क्या भगवान सो रहे थे? उनका तो शयन भी जागरण ही है। फिर भृगु किसको जगाने चले थे? इसका एक सांकेतिक अर्थ देखें– भृगु हैं त्यागी, तपस्वी और भगवान हैं लक्ष्मीपति। जैसे भृगु में त्याग का अहंकार था, उसी प्रकार सर्वशक्तिमान भगवान में भी अपने लक्ष्मीपतित्व का अभिमान जाग उठता, तब क्या होता? संसार में ऐसे अहंकारों की टकराहट प्रायः दिखाई देती है।

एक ब्यक्ति को त्याग का अहंकार है कि मैंने इतना छोड़ दिया, तो दूसरे को संग्रह का अहंकार है कि मेरे पास इतना धन है। दोनों अहंकार एक दूसरे से भिड़ते रहते हैं। पर यहाँ पर भृगु तो अपने त्याग का अहंकार लेकर आए, पर लक्ष्मीपति इतने अधिक निरहंकारी निकले कि त्यागी महोदय हार गये।

लक्ष्मीपति शरीर से तो जागे, पर उनका अहंकार नहीं जग पाया, और ब्यंग्य यह था, कि प्रभु पूछ बैठते हैं–महाराज!आपको चोट तो नहीं लगी? भृगु आए थे भगवान को चोट पहुँचाने। यदि भगवान का अहम् जागता कि कहाँ मैं साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान, और कहाँ यह अकिंचन ब्राह्मण, और इसकी धृष्टता तो देखो कि मुझ पर प्रहार कर रहा है–तब तो भगवान को अवश्य चोट लग जाती।

पर भगवान का अहम् नहीं जगा, इसलिए उनकी विजय हो गयी और त्यागी पराजित हो गया। यदि कभी ऐसा हो कि प्रहार करने वाला जिस पर प्रहार करे, उसे तो चोट न लगे और स्वयं प्रहार करने वाले को ही चोट लग जाए, तो इससे बड़ा कोई अचरज नहीं हो सकता। यहाँ पर ऐसा ही हुआ।

इसका अभिप्राय यह है कि सही अर्थों में व्यक्ति को चोट तब लगती है, जब वह अपने “मैं” पर, अपने अहम् पर प्रहार का अनुभव कर तिलमिला जाता है। भगवान नारायण में तो रंच मात्र भी अहंकार नहीं है, इसीलिए वे जगद् बंद्य हैं, जगत्पूज्य हैं। तभी तो वे मुस्कराकर मुनि से पूछते हैं कि चोट तो नहीं लगी? और भृगु को अपनी भूल का ज्ञान होता है, वे लौट जाते हैं। भगवान परीक्षा में खरे उतरते हैं।

माता अनसूया जी और त्रिदेव

अत्रि ऋषि की पत्नी और सती अनुसूया की कथा से अधिकांश धर्मालु परिचित हैं। उन की पति भक्ति की लोक प्रचलित और पौराणिक कथा है। जिसमें त्रिदेव ने उनकी परीक्षा लेने की सोची और बन गए नन्हे शिशु … पढ़ें विस्तार से ….

एक बार नारदजी विचरण कर रहे थे तभ तीनों देवियां मां लक्ष्मी, मां सरस्वती और मां पार्वती को परस्पर विमर्श करते देखा। तीनों देवियां अपने सतीत्व और पवित्रता की चर्चा कर रही थी। नारद जी उनके पास पहुंचे और उन्हें अत्रि महामुनि की पत्नी अनुसूया के असाधारण पातिव्रत्य के बारे में बताया।

नारद जी बोले उनके समान पवित्र और पतिव्रता तीनों लोकों में नहीं है। तीनों देवियों को मन में अनुसूया के प्रति ईर्ष्या होने लगी। तीनों देवियों ने सती अनसूया के पातिव्रत्य को खंडित के लिए अपने पतियों को कहा, तीनों ने उन्हें बहुत समझाया पर पर वे राजी नहीं हुई।

इस विशेष आग्रह पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने सती अनसूया के सतित्व और ब्रह्मशक्ति को परखने की सोची। जब अत्रि ऋषि आश्रम से कहीं बाहर गए थे तब ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ने यतियों का भेष धारण किया और अत्रि ऋषि के आश्रम में पहुंचे तथा भिक्षा मांगने लगे।

अतिथि-सत्कार की परंपरा के चलते सती अनुसूया ने त्रिमूर्तियों का उचित रूप से स्वागत कर उन्हें खाने के लिए निमंत्रित किया।

लेकिन यतियों के भेष में त्रिमूर्तियों ने एक स्वर में कहा, ‘हे साध्वी, हमारा एक नियम है कि जब तुम निर्वस्त्र होकर भोजन परोसोगी, तभी हम भोजन करेंगे।’

अनसूया असमंजस में पड़ गई कि इससे तो उनके पातिव्रत्य के खंडित होने का संकट है। उन्होंने मन ही मन ऋषि अत्रि का स्मरण किया। दिव्य शक्ति से उन्होंने जाना कि यह तो त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं।

मुस्कुराते हुए माता अनुसूया बोली ‘जैसी आपकी इच्छा’…. तीनों यतियों पर जल छिड़क कर उन्हें तीन प्यारे शिशुओं के रूप में बदल दिया। सुंदर शिशु देख कर माता अनुसूया के हृदय में मातृत्व भाव उमड़ पड़ा। शिशुओं को स्तनपान कराया, दूध-भात खिलाया, गोद में सुलाया। तीनों गहरी नींद में सो गए।

अनसूया माता ने तीनों को झूले में सुलाकर कहा- ‘तीनों लोकों पर शासन करने वाले त्रिमूर्ति मेरे शिशु बन गए, मेरे भाग्य को क्या कहा जाए। फिर वह मधुर कंठ से लोरी गाने लगी।

उसी समय कहीं से एक सफेद बैल आश्रम में पहुंचा, एक विशाल गरुड़ पंख फड़फड़ाते हुए आश्रम पर उड़ने लगा और एक राजहंस कमल को चोंच में लिए हुए आया और आकर द्वार पर उतर गया। यह नजारा देखकर नारद, लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती आ पहुंचे।

नारद ने विनयपूर्वक अनसूया से कहा, ‘माते, अपने पतियों से संबंधित प्राणियों को आपके द्वार पर देखकर यह तीनों देवियां यहां पर आ गई हैं। यह अपने पतियों को ढूंढ रही थी। इनके पतियों को कृपया इन्हें सौंप दीजिए।’

अनसूया ने तीनों देवियों को प्रणाम करके कहा, ‘माताओं, झूलों में सोने वाले शिशु अगर आपके पति हैं तो इन्हें आप ले जा सकती हैं।’

लेकिन जब तीनों देवियों ने तीनों शिशुओं को देखा तो एक समान लगने वाले तीनों शिशु गहरी निद्रा में सो रहे थे। इस पर लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती भ्रमित होने लगीं।

नारद ने उनकी स्थिति जानकर उनसे पूछा- ‘आप क्या अपने पति को पहचान नहीं सकतीं? जल्दी से अपने-अपने पति को गोद में उठा लीजिए।’

देवियों ने जल्दी में एक-एक शिशु को उठा लिया। वे शिशु एक साथ त्रिमूर्तियों के रूप में खड़े हो गए। तब उन्हें मालूम हुआ कि सरस्वती ने शिवजी को, लक्ष्मी ने ब्रह्मा को और पार्वती ने विष्णु को उठा लिया है। तीनों देवियां शर्मिंदा होकर दूर जा खड़ी हो गईं। तीनों देवियों ने माता अनुसूया से क्षमा याचना की और यह सच भी बताया कि उन्होंने ही परीक्षा लेने के लिए अपने पतियों को बाध्य किया था। फिर प्रार्थना की कि उनके पति को पुन: अपने स्वरूप में ले आए।

माता अनसूया ने त्रिदेवों को उनका रूप प्रदान किया। तीनों देव सती अनसूया से प्रसन्न हो बोले, देवी ! वरदान मांगो।

त्रिदेव की बात सुन अनसूया बोलीः- “प्रभु ! आप तीनों मेरी कोख से जन्म लें ये वरदान चाहिए अन्यथा नहीं…

तभी से वह मां सती अनुसूया के नाम से प्रख्यात हुई तथा कालान्तर में भगवान दतात्रेय रूप में भगवान विष्णु का, चन्द्रमा के रूप में ब्रह्मा का तथा दुर्वासा के रूप में भगवान शिव का जन्म माता अनुसूया के गर्भ से हुआ।